"एक गुलाब ऐसा भी"
मंद मंद मुस्काई कभी,
मुस्काई कभी मन ही मन|
कभी कभी तो लजाई आँखें,
पलकें भी शरमाई कभी|
हसीं तुम्हारी यूँ लगे,
जैसे हो रस्सा-कशी,
होंठ और कपोलों में|
घुंघराले केश तुम्हारे,
जब कभी लहरे,
बिखर सी जाती,
खुशबू तुम्हारी |
कहीं तुम गुलाब तो नहीं ?
प्यार में रमे मन में चलने वाले द्वंद्व का मार्मिक चित्रण किया है आपने ...आपका आभार
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण और सजीव चित्रण..
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण एहसास की यह अभिव्यक्ति बहुत खूब
जवाब देंहटाएंare waaaaaaaaaaaaah !
जवाब देंहटाएंहसीं तुम्हारी यूँ लगे,
जवाब देंहटाएं>
>
जैसे मोनोलिसा स्माइल :)
kahin tum gulaab to nhin..........!!! lovely.
जवाब देंहटाएंhappy rose day....
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे भाव,
एवँ अच्छा शब्द सँयोजन ।
मैं कोई ज्ञानी तो नहीं, पर इतनी कोमल अभिव्यक्ति में रस्सा-कशी... यह कहीं कठोर शब्द तो नहीं ?
होठ और कपोल की रस्साकशी ...हम तो दिल और दिमाग में ही अटके पड़े रहे ..
जवाब देंहटाएंनया प्रयोग ..
सुन्दर भाव ...
सुमधुर कविता ....
बहुत बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंसादर
प्रेम में पगी पंक्तियाँ....
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लिखती है आप,
जवाब देंहटाएंमैंने भी कुछ लिखा है आप अपने ब्ल्प्ग में इसे जगह दे .
मन मंजुल मैना सा ,
भटका भागा डोरा सा ,
कभी सनेह की गागर सा , कभी गगन के शोलो सा,
कभी किसी पर बिछ जाता ,
कभी किसी को तरसाता ,
रोम रोम जब हो पुलकित ,
धीरे से कही खिसक जाता
मंजुल भटनागर