सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

"एक गुलाब ऐसा भी"

मंद मंद मुस्काई कभी,
मुस्काई कभी मन ही मन|
कभी कभी तो लजाई आँखें,
पलकें भी शरमाई कभी|
हसीं तुम्हारी यूँ लगे,
जैसे हो रस्सा-कशी,
होंठ  और कपोलों में|
घुंघराले केश तुम्हारे,
जब कभी लहरे,
बिखर  सी जाती,
खुशबू तुम्हारी |
कहीं तुम गुलाब तो नहीं ?



   

11 टिप्‍पणियां:

  1. प्यार में रमे मन में चलने वाले द्वंद्व का मार्मिक चित्रण किया है आपने ...आपका आभार

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  2. भावपूर्ण एहसास की यह अभिव्यक्ति बहुत खूब

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  3. हसीं तुम्हारी यूँ लगे,
    >
    >
    जैसे मोनोलिसा स्माइल :)

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  4. बहुत अच्छे भाव,
    एवँ अच्छा शब्द सँयोजन ।
    मैं कोई ज्ञानी तो नहीं, पर इतनी कोमल अभिव्यक्ति में रस्सा-कशी... यह कहीं कठोर शब्द तो नहीं ?

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  5. होठ और कपोल की रस्साकशी ...हम तो दिल और दिमाग में ही अटके पड़े रहे ..
    नया प्रयोग ..
    सुन्दर भाव ...
    सुमधुर कविता ....

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  6. बहुत खूब लिखती है आप,
    मैंने भी कुछ लिखा है आप अपने ब्ल्प्ग में इसे जगह दे .

    मन मंजुल मैना सा ,
    भटका भागा डोरा सा ,
    कभी सनेह की गागर सा , कभी गगन के शोलो सा,
    कभी किसी पर बिछ जाता ,
    कभी किसी को तरसाता ,
    रोम रोम जब हो पुलकित ,
    धीरे से कही खिसक जाता
    मंजुल भटनागर

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