मैं काट रहा हूँ ,
वह शाख ,
जिस पर बैठा हूँ ,
कह उठता हूँ ,
ऊंट को उट्र उट्र ,
यूँ ही अक्सर ,
तमाम बेवकूफियां ,
कर गुजरता हूँ ,
इस उम्मीद में ,
कि मिलें तुम्हारी ,
झिड़कियां ,
शायद लिपटी ,
प्यार और दुलार में ,
और रच डालूं मैं ,
एक ग्रन्थ और ,
प्रणय का ,
अब आ भी जाओ ,
तुम फिर एक बार ,
शाख टूटने से पहले ,
मेरी ज़िन्दगी में ,
बन 'विद्दोत्तमा '
बस एक बार ।
"मूर्ख दिवस पर एक अदद 'विद्दोत्तमा' की तलाश में ........"
"मूर्ख दिवस पर एक अदद 'विद्दोत्तमा' की तलाश में ........"
झूठ मत बोलिए -एक तो आपको भी मिल गयी हैं ! बस एक ही काफी हैं ज्यादा नहीं संभलती-मेरा भोगा यथार्थ है!
जवाब देंहटाएंयह कविता बताती है की विद्योत्तमा जिंदगी में साथ ही है !
जवाब देंहटाएंविद्दोतमा के साथ के भी गूढ़ अर्थ हैं |
जवाब देंहटाएंये विद्योत्तमा आपकी सैलरी स्लिप पे फ़िदा है...आपकी बेवकूफियों से इसे क्या लेना-देना...
जवाब देंहटाएंये आज की विद्दोतमा आपसे भी बड़ी आड़ी ले कर आ गयी तो ..?
जवाब देंहटाएंहम तो दर्पण देख लेते हैं, मूर्ख मिल जाता है।
जवाब देंहटाएंविद्दोतमा के बिना ऐसा सृजन संभव कहाँ... शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंमोनिका जी बात से सहमत हूँ ...
जवाब देंहटाएंहर व्यक्ति के अन्दर ही है एक अदद कालीदास और एक विद्दोतमा. बस झाँक कर देखिये.
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना..... :)
जवाब देंहटाएं~सादर!!!
अरे किसकी आरज़ू कर रहे हैं???
जवाब देंहटाएंख़याल रहे माँ काली की कृपा के चक्कर में कहीं कोई और रौद्र रूप न दिखा जाए..
:-)
सादर
अनु
वाह
जवाब देंहटाएंएक तो साथ ही हैं ..... अब ज्यादा की मांग कर सच ही मूर्खता तो नहीं दर्शा रहे ?
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