"बिखरी बिखरी सी ..."
बिखरी बिखरी सी तुम,
बिखरी बिखरी सी,
जिंदगी मेरी,
कभी बैठो न पास,
और समेटो खुद को,
सिमट जाये,
मेरी भी जिंदगी,
या फिर,
बिखर ही जाओ,
कुछ यूँ
जिंदगी में मेरी,
जैसे
बिखरती है
धूप ओस की बूँदों पे
तनिक दमके
बूँदों की तरह,
और फिर,
बिखर ही जाए,
जिंदगी मेरी |
स्वतन्त्रता की चाह और बिखर जाने का डर, द्वन्द्व बड़ा गहरा है।
जवाब देंहटाएंखुद ओस बन जाओ या मुझे बना दो ....
जवाब देंहटाएंक्या हसीन डर है! :)
जवाब देंहटाएंbikhri ko kitna aur bikhraaoge!! Plan kya hai tumhara?
जवाब देंहटाएंजिसे समेट समेट कर सुन्दर शब्द दिया जा सके .
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंकोमल भावों से सजी सुंदर रचना...समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका सवागत है
जवाब देंहटाएंhttp://mhare-anubhav.blogspot.com/2011/12/blog-post_12.html
http://aapki-pasand.blogspot.com/2011/12/blog-post_11.html
दोनों ही पोस्ट पर आपका स्वागत है
बहुत ही खुबसूरत और कोमल भावो की अभिवयक्ति......
जवाब देंहटाएंबिखरना और सिमटना... यही तो जीवन है
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