दीपावली की छुट्टियां खत्म हुंई और दोनों बेटे फ़िर रवाना हो गए, कानपुर के लिए।जब भी बेटे छुट्टियों के बाद घर आते हैं,उनकी मां को वे और बच्चे से लगने लगते हैं क्योंकि उनके साथ ना रहने पर वे सारी बचपन की यादें और शरारतें मां को और पीछे ले जाती हैं।पर मुझे तो हरबार पहले की अपेक्षा दोनो ही थोड़ा और mature से लगते हैं।
कभी कभी एक ही flash में सारी यादें मन के कैनवस पर उभर आती हैं। बच्चों के स्कूल जाने का पहला दिन आज भी साफ़ साफ़ याद है,सारे दिन हम दोनों स्कूल के गेट के बहर ही खड़े रहे थे। स्कूल जाने के लिये रिक्शे पर बैठ कर दोनों पीछे मुड़कर यों देखते कि शायद हम लोग झट उन्हें उतार लें ।पर फ़िर धीरे धीरे यही रूटीन बन गया।स्कूल जाना,लौटना फ़िर अपनी मां को कॉपी दिखाना कि कितने गुड, कितने स्टार ।अक्सर दोनों में होड़ कि किसके गुड की गिनती ज्यादा,किसकी ड्राइंग ज्यादा सुंदर।(बड़े होने पर बच्चे भी शायद मां -पापा से यही अपेक्षा करते होंगे कि वे भी अपने व्यवहार,कार्य संस्कॄति को ऐसा रखे कि they can also be proud of their parents) ।पर ऐसा होता नही ,पता नही क्यों?दुनिया के सारे मां-बाप अपने बच्चों को अच्छी तालीम दिलाना और अच्छा इंसान बनाना चाहते है पर खुद ऐसी मिसाल नही पेश कर पाते कि बच्चे भी उन पर फ़ख्र कर सकें ।(समाज को बेहतर बनाने के लिये शायद इससे अच्छा triggering point नही हो सकता।
समय बीतता गया,बच्चों के होमवर्क की सारी जिम्मेदारी तो उनकी मां की थी।हां कभी कभी मैं भी रुचि ले लेता था जब excellent कार्य पर parent's signature करने होते थे।बच्चों के बढ़ने की नाप, घर मे रखे सामान अथवा ऊचाई पर टंगी चीजों को पा पाने से होती थी और हम दोनों मन मन मे ही मुदित होते रहते थे। पी. टी. एम.में जाकर बच्चों के बारे में अच्छे रिमार्क सुनकर ऐसा लगता था, जैसे हमारे ही परिणाम दिखाए जा रहे हों।यकीनन उस समय भी हम लोग अपने को दुनिया का सबसे अधिक lucky पेरेंट समझते थे।पर धीरे धीरे पढ़ाई तो मुशकिल होने वाली थी,थॊड़ी जिम्मेदारी मेरे हिस्से भी आई, मैथ्स और साइंस की।कभी कभी मै झल्लाया भी,कुछ बिजली महकमे की व्यस्त नौकरी की वजह से और ज्यादातर उस समय मेरे स्वयं के उन सवालों को ना हल कर पाने के कारण।(क्योंकि मैने तो मैथ्स मैथ्स की तरह पढ़ी थी पर अब तो मैथ्स फिलोस्फ़िकल ज्यादा और मैथ्स कम हो गई है) । पर शायद अब तक दोनों यह समझ चुके थे कि पापा को क्या और कितना आता है,बस उतना ही पूछते थे ।
अब बारी आनी थी बोर्ड परीक्षाओं की।ऐसे में मेरा ट्रांसफ़र लखनऊ से बाहर हो गया।पुनः मां का परचम ही लहराना जो था।परिणाम अच्छे रहे।अब चूंकि घर में विरासत इंजीनियरिंग शिक्षा की थी सो तैयारी तो फ़िर आई.आई.टी. की होनी थी।
बच्चों को कड़ी मेहनत करते देखकर यह दुख भी होता था कि इनका बचपन तो जैसे इन्हें मिला ही नही।पर जिस व्यवस्था मे आज हम रह रहे हैं उसमें vertical launch या catapulting इसी slot में उपलब्ध है।असल में समाज में या पूरी दुनिया में शिक्षा के तौर पर,स्टेटस के तौर पर अथवा आर्थिक तौर पर विभिन्न orbits हैं जो different एनेर्जी लेवेल्स की हैं और higher orbit में जाने के लिये आई.आई.टी. निश्चित तौर पर एक अच्छा लांचिंग पैड है(स्वयं कुछ करना हो तो भी और दूसरे से करवाना हो तब भी) ।
संक्षेप में -- वर्ष ०९ और १० में क्रमशः दोनों का चयन हो गया और दोनों कानपुर चले गए। बच्चे जल्दी बड़े होते हैं तो जैसे लगने लगता है अब हम भी और बड़े होते जा रहे हैं और यही तो जीवन चक्र है।
कभी कभी एक ही flash में सारी यादें मन के कैनवस पर उभर आती हैं। बच्चों के स्कूल जाने का पहला दिन आज भी साफ़ साफ़ याद है,सारे दिन हम दोनों स्कूल के गेट के बहर ही खड़े रहे थे। स्कूल जाने के लिये रिक्शे पर बैठ कर दोनों पीछे मुड़कर यों देखते कि शायद हम लोग झट उन्हें उतार लें ।पर फ़िर धीरे धीरे यही रूटीन बन गया।स्कूल जाना,लौटना फ़िर अपनी मां को कॉपी दिखाना कि कितने गुड, कितने स्टार ।अक्सर दोनों में होड़ कि किसके गुड की गिनती ज्यादा,किसकी ड्राइंग ज्यादा सुंदर।(बड़े होने पर बच्चे भी शायद मां -पापा से यही अपेक्षा करते होंगे कि वे भी अपने व्यवहार,कार्य संस्कॄति को ऐसा रखे कि they can also be proud of their parents) ।पर ऐसा होता नही ,पता नही क्यों?दुनिया के सारे मां-बाप अपने बच्चों को अच्छी तालीम दिलाना और अच्छा इंसान बनाना चाहते है पर खुद ऐसी मिसाल नही पेश कर पाते कि बच्चे भी उन पर फ़ख्र कर सकें ।(समाज को बेहतर बनाने के लिये शायद इससे अच्छा triggering point नही हो सकता।
समय बीतता गया,बच्चों के होमवर्क की सारी जिम्मेदारी तो उनकी मां की थी।हां कभी कभी मैं भी रुचि ले लेता था जब excellent कार्य पर parent's signature करने होते थे।बच्चों के बढ़ने की नाप, घर मे रखे सामान अथवा ऊचाई पर टंगी चीजों को पा पाने से होती थी और हम दोनों मन मन मे ही मुदित होते रहते थे। पी. टी. एम.में जाकर बच्चों के बारे में अच्छे रिमार्क सुनकर ऐसा लगता था, जैसे हमारे ही परिणाम दिखाए जा रहे हों।यकीनन उस समय भी हम लोग अपने को दुनिया का सबसे अधिक lucky पेरेंट समझते थे।पर धीरे धीरे पढ़ाई तो मुशकिल होने वाली थी,थॊड़ी जिम्मेदारी मेरे हिस्से भी आई, मैथ्स और साइंस की।कभी कभी मै झल्लाया भी,कुछ बिजली महकमे की व्यस्त नौकरी की वजह से और ज्यादातर उस समय मेरे स्वयं के उन सवालों को ना हल कर पाने के कारण।(क्योंकि मैने तो मैथ्स मैथ्स की तरह पढ़ी थी पर अब तो मैथ्स फिलोस्फ़िकल ज्यादा और मैथ्स कम हो गई है) । पर शायद अब तक दोनों यह समझ चुके थे कि पापा को क्या और कितना आता है,बस उतना ही पूछते थे ।
अब बारी आनी थी बोर्ड परीक्षाओं की।ऐसे में मेरा ट्रांसफ़र लखनऊ से बाहर हो गया।पुनः मां का परचम ही लहराना जो था।परिणाम अच्छे रहे।अब चूंकि घर में विरासत इंजीनियरिंग शिक्षा की थी सो तैयारी तो फ़िर आई.आई.टी. की होनी थी।
बच्चों को कड़ी मेहनत करते देखकर यह दुख भी होता था कि इनका बचपन तो जैसे इन्हें मिला ही नही।पर जिस व्यवस्था मे आज हम रह रहे हैं उसमें vertical launch या catapulting इसी slot में उपलब्ध है।असल में समाज में या पूरी दुनिया में शिक्षा के तौर पर,स्टेटस के तौर पर अथवा आर्थिक तौर पर विभिन्न orbits हैं जो different एनेर्जी लेवेल्स की हैं और higher orbit में जाने के लिये आई.आई.टी. निश्चित तौर पर एक अच्छा लांचिंग पैड है(स्वयं कुछ करना हो तो भी और दूसरे से करवाना हो तब भी) ।
संक्षेप में -- वर्ष ०९ और १० में क्रमशः दोनों का चयन हो गया और दोनों कानपुर चले गए। बच्चे जल्दी बड़े होते हैं तो जैसे लगने लगता है अब हम भी और बड़े होते जा रहे हैं और यही तो जीवन चक्र है।
बस यही ज़िन्दगी है …………एक सिरे से शुरु होतीहै और फिर नये सिरे जोडती जाती है।
जवाब देंहटाएंवंदना जी ने सही कहा..अगर जिंदगी रूकती नहीं एक जगह..तभी हर लम्हे का महत्त्व बड़ा होता है..
जवाब देंहटाएंपर शायद अब तक दोनों यह समझ चुके थे कि पापा को क्या और कितना आता है,बस उतना ही पूछते थे ।
जवाब देंहटाएंकितना सही विश्लेषण करते हैं बच्चे हमारा फिर हम क्यों कहते हैं बच्चे हमें नहीं समझते.
समय कैसे पंख लगा कर उड़ जाता है.
यही है जीवन ....शुभकामनायें
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