बुधवार, 19 दिसंबर 2012

" कल हो न हो..........."


दिनांक २१.१२.१२ को दुनिया खत्म हो जायेगी | कोई पिंड हमारी धरती से टकराएगा और हम खंड खंड हो बिखर जायेंगे | ऐसी भविष्यवाणी की गई है | कहते हैं 'माया कलेंडर' में २१.१२.१२ के बाद की तिथि ही अंकित नहीं है | 

ऐसा हो या न हो ,कौन जानता है परन्तु जब कभी भी अंत होगा तो ऐसे ही होगा | हम इतने आशावादी हैं और डरपोक भी कि इस कटु सत्य को मान लेने में अपनी पराजय समझते हैं | ऐसा हो क्यों नहीं सकता , इसके सम्बन्ध में अभी तक कोई तर्क नहीं दिया गया है | क़यामत अर्थात सभी का एक साथ अंत या मौत | जब किसी की मृत्यु होती है तब भी तो ऐसे ही होता है कि अचानक जीता जागता व्यक्ति सदा के लिए सो जाता है | संभव है कि सभी का अंत एक साथ हो जाए |

मृत्यु अथवा अकस्मात अंत की सच्चाई को स्वीकार कर लेना चाहिए | वही तो यात्रा का अंतिम पड़ाव है | 'यक्ष -युधिष्ठर' प्रश्नोत्तर से स्पष्ट ज्ञान मिलता है कि 'सबसे बड़ा सत्य है कि मृत्यु निश्चित है ' और 'सबसे बड़ा भ्रम है कि यह सत्यता केवल अन्य लोगों पर ही चरितार्थ होगी ' | हम सब एक दूसरे को झूठी दिलासा देते रहते हैं कि अरे !  कोई दुनिया -वुनिया ख़त्म नहीं होने वाली ,सब अफवाह है | ऐसा नहीं है , जब कभी भी ऐसा होगा ,अकस्मात ही होगा | 'एन्ट्रापी' हमेशा बढती जा रही है और अधिकतम 'एन्ट्रापी' को ही 'कैटेसट्राफी'  अर्थात क़यामत कहते हैं |

इतनी खूबसूरत दुनिया कभी न खत्म हो तो बेहतर है ,परन्तु बारी बारी हर एक की दुनिया तो खत्म होती ही रहती है | जब अंत सामने दिखता रहे तब समय अत्यंत  कम लगने लगता है | इस कम समय की मुख़्तसर सी ज़िन्दगी में हम अनायास ईर्ष्या द्वेष के चक्कर में पड़ अपनों से बैर करते रहते है , क्यों न सभी से प्रेम करते हुए बस प्रेम का प्रसार करते चलें | अंतिम यात्रा में साथ में 'लगेज' ले जाने का कोई प्राविधान नहीं है , न ही बिजनेस क्लास में ,न ही एकानमी क्लास में | सुगम और आनंददायक यात्रा होने के लिए यही सबसे बड़ी शर्त भी है | हम व्यर्थ में राग ,द्वेष , इसका , उसका ,किन्तु , परन्तु , कम ,ज्यादा के फेर में पड़ कर अपना 'लगेज' बढाते रहते हैं जो अंतिम यात्रा को पीड़ाकारी और बोझिल बना देता है |

" २१.१२.१२" को अंत नही होगा , इससे मैं भी इत्तिफाक रखता हूँ पर क्यों न हम इसे सच मान कर एक काल्पनिक तैयारी कर ही लें और सभी से प्रेम से कुछ यूं मिलें जैसे कि " कल हो न हो " |

रविवार, 16 दिसंबर 2012

" भिखारी कौन..........."


लगभग एक घंटे की लम्बी लाइन में लगे रहने के पश्चात 'खाटू श्याम मंदिर' ,सीकर ,राजस्थान में दर्शन मिलने का नंबर आया | बहुत अच्छे दर्शन हुए प्रभु के | यह मंदिर बहुत सिद्ध मंदिर माना जाता है | इसके बाद हमने दर्शन किये ,'सालासर,बाला जी ,चुरू,राजस्थान' ,मंदिर में 'बाला जी' के | यह मंदिर भी जगत विख्यात है, अपनी आस्था के कारण और मनोकामना पूर्ण करने के रूप में |

दोनों स्थानों पर मंदिर से बाहर निकलते ही राजस्थानी वेश-भूषा में भीख मांगने वाली महिलाओं और छोटी छोटी लड़कियों ने घेर कर पैसे मांगने शुरू कर दिए | मैंने दो-चार को अभी कुछ दिया ही था कि पास से किसी की आवाज़ आई ,"यह मांगने वाले बहुत तंग करते हैं यहाँ , लाइन लगा कर खड़े रहते हैं और बिना लिए कुछ खिसकते नहीं " | मै मन ही मन सोचने लगा ,वही तो हम भी करते हैं , मांगने आते हैं और लाइन लगाए खड़े रहते हैं और उम्मीद से कहीं ज्यादा मांग लेते हैं और मिलता भी है | हाँ कोई दूसरा मांगते दिख जाए तो उसे 'भिखारी' कहते हैं , या ताना कसते हैं उस पर, कि कोई काम धाम करना चाहिए और हम स्वयं चाहते हैं कि ईश्वर हमें बिना प्रयास किये ही कोई चमत्कार कर हमारा प्रयोजन सिद्ध कर दें |

मैं मन ही मन स्वयं को भिखारी मान चुका था अब तक, और जितना भी संभव था मैं भरसक सभी को कुछ न कुछ दे चुका था | तभी एक औरत शायद बच गई थी ,वह पास आकर बोली ,"ऐ सेठ ,मुझे दे न कुछ " | मुझे अपने ऊपर शर्म आ गई , कैसा सेठ मै , मैं तो खुद ही भिखारी हूँ यहाँ ,मैं क्या किसी को दे पाऊँगा | हाँ जितनी सामर्थ्य प्रभु ने दी है ,उतनी सेवा अवश्य कर दूँगा | बहुत छोटे छोटे बच्चे वहां समूह बना घेर लेते हैं | बहुत अध्ययन करें तो समझ आता है कि यह भी एक समझा बूझा उद्योग है ,पर हम भी तो उद्योग-वश ही मंदिर जाते हैं | बस प्रभु से मांगो और जीते रहो |

मैं जब भी मंदिर जाता हूँ ,ऊहापोह में रह जाता हूँ , उस परम पिता से कुछ नहीं मांग पाता | दर्शन कर बस प्रभु से मौन संवाद कर लौट आता हूँ | पता नहीं कितना सही ,कितना गलत |

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

" तिथियों से परे............"


तुम परे हो ,
तिथियों से ,
रहो सदा ,
'अ-तिथि' बन कर |

बाट जोहूँ ,
आस छोड़ दूं ,
आ जाओ ,
तुम आहट बन कर |

नींद खो जाए ,
चैन बिछड़ जाए ,
आ जाओ तुम ,
ख़्वाब  बन कर |

हो अँधेरा ,
मन भ्रांत हो ,
आ जाओ तुम ,
किरण बन कर  |


तुम परे हो ,
तिथियों से ,
रहो सदा ,
'अ-तिथि' बन कर |

शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

" ब्लॉग पर पोस्ट पब्लिश करने का मुहूर्त ........."


ब्लॉग-पोस्ट लिखने के बाद उसे पब्लिश करना एक बहुत ही साधारण और सहज सी बात है | परन्तु मैंने पोस्ट पब्लिश करने के समय को ध्यान में रख कर जब उनका विश्लेषण किया तब कुछ बहुत ही चौंकाने वाले और मजेदार तथ्य संज्ञान में आये | संकलित निष्कर्ष कुछ यूँ हैं :

१. जो पोस्ट ब्रह्म मुहूर्त अर्थात सवेरे ४ से ७ बजे के बीच पब्लिश की गईं वे सबसे अधिक पढ़ीं गई |
२.सवेरे ९ से १० बजे के बीच पब्लिश की गई पोस्ट शुरुआत में पाठक नहीं बटोर पाई |
३.सायं काल ६ से ८ बजे के मध्य पब्लिश की गई पोस्ट सबसे कम पढ़ी गईं |
४.रात्रि ९ से ११ बजे के मध्य पब्लिश की गई पोस्ट पढ़ी अधिक गईं एवं टिप्पणी भी सर्वाधिक प्राप्त हुईं |
५.पोस्ट पब्लिश कभी भी करें ,परन्तु फेसबुक पर माहौल जुटने के बाद ही उसे शेयर करें |
 
पोस्ट कब पब्लिश की जाय ,यह इस पर भी निर्भर करता है कि पोस्ट का विषय क्या है | 

१.ज्ञान ,ध्यान ,शिक्षा ,संस्कार की बाते हैं ,तब उन्हें सवेरे सवेरे पब्लिश करें | 
२.देश ,समाज के बारे में चिंतन है तब सवेरे ९ से ११ बजे तक का समय उपयुक्त है | 
३.इश्क ,मोहब्बत , रोमांस की बात है और कविता पब्लिश करनी है तब रात १० बजे के बाद सबसे उपयुक्त समय हैं | 
४.लेख अगर आपसी संबंधों और विवादों को ले कर है तब उसे रात में कभी भी पब्लिश न करें | लोग पढेंगे कम , टिप्पणी अधिक चिपकायेंगे |
५.विषय वस्तु अगर स्त्री है तब सायं काल का समय सर्वोत्तम है |
६.हास्य व्यंग है ,तब कभी भी पब्लिश कर सकते हैं |
७.तमाम ब्लॉग एग्रेगेटर अपने शीर्षक के अधीन आपकी पोस्ट को छापते हैं | सबका समय अलग अलग है | 'ब्लॉग बुलेटिन' रात में निकलता है | अतः अगर आपने शाम को पब्लिश किया है तब वह वहां अवश्य मिलेगा | 
८.कुछ लोग तो सिंडिकेट बना कर आपस में एक दूसरे को छापते रहते हैं |

" सभी ब्लॉगर १२ राशियों में बंटे  हैं । २४ घंटों में से प्रत्येक राशि के ब्लॉगर के लिए २ घंटे आबंटित हुए । मध्य रात्रि  से प्रारम्भ करते हुए ,मेष राशि से दो दो घंटे जोड़ते हुए अपनी अपनी राशि के अनुसार ब्लॉगर को अपनी पोस्ट पब्लिश करने की सलाह दी जाती है । परिणाम अच्छे प्राप्त होंगें ।"

उपरोक्त सारे तथ्य अनेक ब्लॉग पोस्टों पर किये गए सर्वे पर आधारित हैं | इसका मकसद किसी व्यक्ति / लेखक / कवि / ब्लॉगर की भावना को ठेस पहुंचाना बिलकुल नहीं है | किसी व्यक्ति का उपरोक्त निष्कर्ष से सहमत / असहमत होना उसका व्यक्तिगत विचार है | 

गुरुवार, 22 नवंबर 2012

" कुछ यूँ हैं वो ....."


एक चिराग रौशन ,
करते जैसे कई चिराग ,
खिलखिलाहट भी ,
उनकी यूँ ही कुछ ,
खिला सी देती है ,
तबस्सुम सारे लबों पे ।

मीठी आवाज़ ,
पाक सी उनकी ,
जैसे हो अजान की  ,
इल्म सा कराती ,
वक्त इबादत का |

निगाहें  उनकी ,
तिलिस्म हो जैसे ,
देखती हैं कुछ यूँ ,
कह रही हों  ,
जैसे कोई ग़ज़ल |

खूब सूरत दे खुदा ,
पर इतनी भी न दे ,
कि देखे वे आइना ,
जी भर के ,
और जी न भर पाएँ  |

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

" के.वाई.सी. ......."


आजकल एक फैशन आम हो चला है ," के.वाई.सी. " का ,अर्थात 'know your customer' | कभी बैंक से नोटिस  आती है और कभी गैस कंपनी से कि ,कृपया अपना के.वाई.सी. करा लें नहीं तो आपकी सेवायें बंद कर दी जायंगी | दसियों साल से अधिक से बैंक में , गैस कंपनी में निरंतरता बनी हुई है फिर भी अपनी शिनाख्त वहां कराना आवश्यक माना जा रहा है | मेरे पास अपनी पहचान के लिए वोटर आई.डी. कार्ड , पैन कार्ड , ड्राइविंग लाइसेंस , पासपोर्ट , आधार कार्ड , विभागीय आई.डी. कार्ड , राशन कार्ड ( अब निष्प्रयोज्य ) सभी कुछ है | पर शायद बैंक या गैस कंपनी को लगता होगा ,बहुत दिन हो गए चलो इनका मिजाज़ /शक्ल देख लें ,हमारे लायक बचे भी हैं कि नहीं यह अब | 

पर चूँकि यह वैधानिक रूप से आवश्यक कर दिया गया है ,अतः मैंने सशरीर सभी जगह जा कर अपना के.वाई.सी. करा लिया | परन्तु इस प्रक्रिया के दौरान मुझे एक बात यह सोचने को मजबूर होना पड़ा कि मूलतः के.वाई.सी. का उद्देश्य बहुत पुराने हो चुके संबंधों को नवीनीकृत करना है और बेहतर सम्बन्ध बनाने की दिशा में एक सार्थक पहल है , इसका प्रयोग तो मानवीय संबंधों में भी किया जाना चाहिए | 

बचपन से लेकर अब तक हम लोग न जाने कितने लोगों के संपर्क में आते हैं और अक्सर कुछ ख़ास लम्हों और घटनाओं को याद करते रहते हैं | बहुत से रिश्ते और रिश्तेदार ऐसे भी हैं जिनसे मिले मुद्दत हो गई | उनको देखने और स्वयं को उन्हें दिखाने का मन होता है | अगर इसे कुछ यूं कहे कि संबंधों में भी 'के.वाई.सी.' कराने की आवश्यकता होती है तब अतिश्योक्ति न होगी | लगता है वर्ष में कम से कम एक बार १०/१५ दिनों का अवकाश लेकर पुराने लोगों से मिल कर 'के.वाई.सी.' अवश्य करा लेना चाहिए | निश्चित ही उसका आनंद कुछ और होगा |

इश्क ,मोहब्बत में तो 'के.वाई.सी.' बहुत जल्दी जल्दी कराते रहना चाहिए नहीं तो कनेक्शन कब कट जाये, वह भी बिना पूर्व सूचना के ,पता नहीं चलेगा | दाम्पत्य जीवन में भी करवा चौथ , कजरी तीज सरीखे व्रत/त्यौहार 'के.वाई.सी.' कराने की ही तर्ज पर प्रोग्राम किये गए हैं | बच्चों के जन्म दिन मनाने की परम्परा भी मूलतः बच्चों की 'के.वाई.सी.' कराने सामान ही होती है | आने वाले लोगों और उनसे मिली गिफ्ट से वह भी अपना 'के.वाई.सी.' पूर्ण समझ लेते है | 

कभी कभी आईने में स्वयं को देखता हूँ तो स्वयं को ही अजनबी सा पाता हूँ | बचपन में कितनी सादगी ,कितनी शुचिता और सबके प्रति सम्मान और स्नेह था और अब बस "निजता" के सिवाय कुछ नहीं | इतना परिवर्तन कैसे हो जाता है खुद में ही | शायद अगर स्वयं से ही स्वयं का 'के.वाई.सी.' कराता रहता तब इतना परिवर्तन न होने पाता |

ईश्वर से भी कभी कभी समय निकाल कर पूजा / प्रार्थना के द्वारा 'के.वाई.सी.' कराते रहना चाहिए जिससे उनके पास हमारा पूर्ण सही विवरण उपलब्ध रहे और हमारे विषय में जानकारी के आभाव में असमय हमारा कोई नुकसान या हानि न हो जाए |

                 बस मानवीय संबंधों में प्रयुक्त के.वाई.सी. का अर्थ "know your character" होना चाहिए ।

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

" फैक्स टोन..........."


आज ऑफिस में एक अत्यंत महत्वपूर्ण पत्र ,तत्काल मुख्यालय भेजना था | मेरा अधीनस्थ बार बार उसे फैक्स करने के लिए मुख्यालय फोन कर फैक्स टोन मांग रहा था | शायद ऑटो - फैक्स मशीन खराब थी | काफी मशक्कत के बाद टोन मिलने के बाद वह महत्वपूर्ण पत्र फैक्स द्वारा प्रेषित किया जा सका | बिना फैक्स टोन के फैक्स किया जाना संभव नहीं होता |

इश्क , मोहब्बत में भी ऐसे ही होता है | किसी को कितना भी चाहते रहो , टकटकी लगाए देखते रहो ,उन्हें यूं ही गुगुनाते रहो परन्तु जब तक उधर से फैक्स टोन न आ जाए , कुछ भी होने वाला नहीं है |( वो चाहे आपकी पत्नी ही क्यों न हो , उस पर भी समानता से लागू ) | इश्क मोहब्बत में असफल होने वालों का मुख्य कारण यही पाया गया है कि अधीरता में वह बिना फैक्स टोन मिले फैक्स कर डालते हैं और अंजाम "मजमून जाया हो जाता है  " |

ऐसे मामलों में फैक्स टोन निम्नवत  प्रकार से प्राप्त हो सकती हैं :

१.निगाहों से ही |
२.पलकों के झपकने से |
३.एक मीठी मुस्कान से |
४.लबों की जुम्बिश से |
५.बालों के छल्ले घुमाती उँगलियों से |
६.दांतों तले दबे पल्लू के कोने से |
७.मिटटी कुरेदते पांवों से |
८.एक लम्बी जम्हाई से |
९.एक लम्बी अंगडाई से |
१०.तेज़ चल उठी साँसों से |

यह बात दीगर है कि फैक्स टोन मिलने में अक्सर समय बहुत जाया हो जाता है | पर टोन मिल जाती है तब क्या इबारत और क्या हर्फ़ सब हू-ब हू उसके दिल पर चस्पा हो उठते हैं ,जिसे आप दिलो-जान से चाहते हैं और बगैर फैक्स टोन मिले  सब बेकार |

                "बिना फैक्स टोन मिले फैक्स नहीं करना चाहिए, मजमून चाहे कागज़ पे हो ,चाहे दिल पे |"

बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

" इस बार करवा चौथ पे ....."


सुनो, उस दिन बिंदी वो वाली लगाना , गीली वाली , अरे, जिसमें खुशबू होती है | मैं हर बार नाम भूल जाता हूँ , पर तुम समझ तो जाती हो न | हाँ ! वो कुमकुम वाली , जो पतली तीली से लगाती हो न माथे पे , वही | अच्छा, मंदिर के लिए गेंदे के फूलों की लड़ी लाऊँगा तब बेले के फूल भी लेता आऊंगा तुम्हारे बालों के लिए | अच्छे लगते हैं |

"आपको तो पूजा / व्रत में आस्था है नहीं , फिर इस बार इतना क्यों याद रख रहे हैं ", पूछा निवेदिता ने | मैंने कहा ," मुझे वो सारे उपक्रम बहुत अच्छे लगते हैं जो तुम पूजा / व्रत की तैयारी में करती हो | पूरा घर सुगन्धित हो उठता है और पूजा के बाद मन भी |

रही बात 'करवा चौथ' के व्रत की , तो वह तुम करो ,न करो ज्यादा फरक नहीं पड़ता | व्रत तो तुमने उसी दिन रख लिया था ,जीवन भर के लिए , जब तुम अपना प्यार भरा मायका छोड़ , एक अनजान परिवार में कल्पनाओं का संसार लिए चली आई थीं | तुम्हारा व्रत तो मुझे रोज़ दिखता है अपनी ज़िन्दगी में | ऑफिस में टिफिन भी खोलता हूँ जब , तब करीने से रखी कटोरियाँ , फ्वाएल में लपेटे अचार और मिठाई में तुम्हारा ही एहसास होता है |

तुमने कई बार कहा है , "मेरे बारे में मत लिखा करिए " | पर मन करता है कभी कभी मन उड़ेलने के लिए | अतः फिर गुस्ताखी कर रहा हूँ | इस बार पूजा में तुम मुझे डाटना मत , जब मैं सामने देखने के बजाय तुम्हारे डिम्पल निहारता मिलूं | मेरा मानना है ,पूजा करते समय ध्यान की अवस्था होनी चाहिए बस, और मैं तो हमेशा तुम्हारे ध्यान की अवस्था में ही रहता हूँ , फिर दोष कैसा |

तुम्हारे जीवन में हमेशा सुगंध भर सकूँ ,बस इतना ही अनुरोध है तुम्हारे उस भगवान् से जिसे तुम ज्यादा मानती हो और मैं तनिक कम |

                                             "करवा चौथ व्रत की महिमा बनी रहे "




मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

" कच्ची रसीद........."


तुम,
'हाँ' नहीं कहते ,
यह सच है ,
'ना' भी नहीं कहते , 
यह और भी सच है ,
लबों से बोलकर ,
पक्की रसीद न दो न सही ,
आँखों ही आँखों में ,
कच्ची रसीद ही जारी कर दो |

गर हुआ मिलना कभी ,
दुनिया के किसी मोड़ पर ,
रसीद दिखा तुम्हें ,
अपनी चाहत रसीद कर दूँगा |
अपनी चाहत वसूल कर लूँगा |

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

" इतनी ख्वाहिश बस ............"



अल्फाज़ मेरे,
लब तेरे ,
आँखें तेरी ,
जुगनू मेरे,
इतनी ख्वाहिश बस |

दिल मेरा ,
धड़कन तेरी ,
मन तेरा ,
उमंग मेरी ,
इतनी ख्वाहिश बस |

कदम मेरे ,
आहट तेरी ,
नींदे तेरी,
ख़्वाब मेरे ,
इतनी ख्वाहिश बस |

तबस्सुम तेरी ,
ख्याल मेरे ,
अश्क तेरे ,
प्यास मेरी ,
इतनी ख्वाहिश बस |

चाहत तेरी ,
हसरत मेरी , 
फ़िदा मै ,
कबूल तुम ,
इतनी ख्वाहिश बस |

शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

" हमारे यहाँ सातवाँ कब आयेगा......."


सातवाँ बहुत खूबसूरत है | महंगा तो अवश्य है ,परन्तु है, सब से हटकर | उसको लेने वाले भी अलग से दिखते हैं | मुझे लाइन में लग कर यह कहने में ही हीनता हो रही थी कि मेरा तो अभी तीसरा ही है | मैं शक्ल से दीन हीन तो लगता ही हूँ ,मेरे साथ मेरा सिलंडर भी शर्माते हुए जमीन में धंसा जा रहा था | सातवें और उससे अधिक वालों की लाइन एकदम अलग | उस काउंटर पर बैठा आदमी भी एकदम फ्रेश और दुरुस्त | फटाफट नए नोट कडकडाते हुए मुट्ठी में दबोच रहा था और सातवाँ जारी पर जारी किये जा रहा था | सातवाँ सिलंडर भी खुद ब खुद चलकर लुढ़कता हुआ गाड़ियों की डिक्की में दुबकने को तत्पर था | हम थे कि सिलंडर पर कम, बचे पैसों की चिल्लर पर ज्यादा ध्यान लगाए थे कि इस मारामारी में इस लाइन के काउंटर पर बैठा मैला कुचैला सा आदमी हमारी बची चिल्लर न दाब जाए | 

खैर सिलंडर जो हमें मिला ,वह भी तीन जगह से पिचका सा था जैसे बिना मन से तीसरा बन कर जा रहा हो | अब तो हर सिलंडर सातवाँ बनना चाहता है बस | महंगा बिकने का मजा ही कुछ और है ,चाहे वह हीरो हो , हीरोइन हो , क्रिकेटर हो या हो, लीक हुआ पर्चा किसी प्रतियोगी परीक्षा का | मेरी गैस सिलंडर की किताब को देखकर काउंटर वाला आदमी बोला , तुम्हारा तो सातवें का नंबर ही नहीं आयेगा कभी | महीने में पंद्रह दीन फांका रखते हो क्या ! मैंने कहा अरे नहीं भाई , थोड़ा किफायती हैं और थोड़ा कंजूस भी | 

सुना है, जिनके यहाँ सातवाँ पहुँच गया है उनके यहाँ उस पर बनी चाय का जायका भी बहुत शानदार है | विद्वान लोग , मेरे जैसों को छोड़कर , चाय सूंघ कर ही बता देते हैं कि चाय सातवें पर बनी है | पिलाने वाला भी बहुत गर्मजोशी के साथ यह कह कर पिलाता है कि लीजिये साहब यह चाय सातवीं पर बनी है | जैसे पहले कभी जब लोग मोबाइल पर किसी से बात करते थे,तो छूटते ही पहले यह जरूर बताते थे कि मोबाइल से बोल रहा हूँ |

सरकार को एक काम यह भी करना चाहिए ,गैस का सिलंडर ट्रांसपैरेंट बनवा दें और उसमें दवा की शीशी की तरह दिनों के हिसाब से ६० दिन के लिए बराबर बराबर निशान लगा दें | थोड़ा मुश्किल जरूर है क्योंकि सिलंडर के अन्दर गैस तो द्रव की शक्ल में होती है और उसका आकार और आयतन बदलता रहता है फिर भी बाहर से दिखेगा तो आदमी उसी हिसाब से खाना पकाएगा और समय रहते ही फांका मार एक दो दिन गैस को बचाने की  कोशिश भी करेगा |   

समाज के वर्गीकरण का एक नया आधार मिल गया अब | वार्षिक आमदनी की बजाय अब सिलिंडर की वार्षिक खपत के आधार पर वजीफा , बेरोजगारी भत्ता ,रेल किराए में छूट , गाँवों में इंदिरा आवास , पेशन आदि योजनायें लागू की जायेंगी | 

                सातवें की तो बात ही कुछ और है | हमारे यहाँ सातवाँ कब आएगा .......पता नहीं |

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

" चूहे दानी ......"


आज ऑफिस में एक महत्वपूर्ण फ़ाइल मांगने पर स्टाफ जब फ़ाइल लाया तब मैंने देखा , उसके कुछ पन्ने कुतुरे हुए से थे | मैं थोड़ा चकित हुआ और घबराया भी कि लगता है ऑफिस में चूहे हो गए हैं जो अच्छा खासा नुकसान कर सकते हैं | मेरी व्यथा देख सबने विचार विमर्श के बाद ऑफिस में ' रैट किल ' डालने को कहा | परन्तु मैं चूहों के प्राण लेने में साझीदार नहीं बनना चाह रहा था | अतः मैंने स्टाफ से एक चूहेदानी लाने को कहा | मैंने कहा उसमें चूहा कैद हो जाएगा , फिर उसे दूर कहीं छोड़ देना | इस पर सब लोग सहमत हो गए | और वे एक चूहेदानी बाज़ार से ले आये |

मैं कौतूहलवश चूहेदानी को हाथ में लेकर देख कर रहा था कि इसमें चारा कहाँ लगाते हैं और कैसे चूहे के दाँत लगते ही चूहेदानी अपने आप बंद हो जाती है और एक आवाज़ जोर से होती है जिससे मालूम चल जाता है कि फँसा एक चूहा | सोचते सोचते मैं चूहे की मानसिकता के बारे में सोचने लगा कि जहां कहीं भी चूहे दानी को लगाते हैं वहां चूहे को खाने लिए चूहे दानी के आलावा बहुत कुछ खाने और कुतुरने के लिए होता है , फिर वह चूहा उसमें क्यों जा कर फंस जाता है | जवाब मिला :" लालच " | हाँ ! लालच के ही कारण चूहा उसमें घुसकर अपनी जान की आफत मोल ले लेता है | 

मैंने प्रयोग के तौर पर जो चारा चूहेदानी में लगाया उसी खाद्य पदार्थ को उस चूहे दानी के आस पास और भी अधिक मात्रा में बिखेरने को कहा  | फिर भी अगले दिन चूहे दानी में चूहा फँसा मिला | निष्कर्ष "लालच" | कितना ही पेट भरा हो चूहे का , फिर भी अपनी आदत वश कुछ नया पाने को , नया खाने को , नया कुतुरने को वह लालच वश उस चूहे दानी में घुसता है और कैद हो जाता है और कुछ माउस ट्रैप तो ऐसे होते हैं जिसमें चूहे मर भी जाते हैं | "लालच कितनी बुरी बला है" ,यह कितनी आसानी से सिद्ध हो जाता है , केवल चूहे दानी को देखने से ही |

एक पलांश की लालच और उम्र भर की सज़ा या मौत | मेरा तो मानना है कि प्रत्येक कार्यालय में दीवारों पर गांधी जी के चित्र भले ही न हो परन्तु चूहे दानी का चित्र अवश्य लगाना चाहिए | इसे देखकर लोगों को लालच से अवश्य छुटकारा मिल सकता है | लालच के दुष्परिणाम को समझने के लिए इससे शोर्ट तरीका और कोई नहीं | केजरीवाल को अपनी पार्टी का चुनाव प्रतीक भी 'चूहेदानी' ही रखना चाहिए | बच्चों को भी घर और स्कूलों में चूहेदानी के डेमो से लालच के बारे में समझाया जाना चाहिए |

मनुष्य भी अच्छी खासी ज़िन्दगी जीते जीते अकस्मात एक लालच के चक्कर में ऐसे ही अक्सर फंस जाता है और खुशहाल जीवन से हाथ धो बैठता है | रास्ता तय करते वक्त लोग चढ़ाई पर कभी नहीं गिरते हैं ,जब भी गिरते हैं ढलान पर ही गिरते हैं अर्थात सरल आकर्षण प्रायः चूहेदानी समान ही होते हैं |

यह आकर्षण धन , वैभव , जायदाद या सौन्दर्य कुछ भी हो सकता है |

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

" एक कोलाज उनके... जो शरीक हैं मेरी ज़िन्दगी में........"



                                                                                           (चित्र पर क्लिक करें) 

कुछ ख्याल आज यूँ आया कि जो लोग मेरी ज़िन्दगी से जुड़े हैं या जिनसे सरोकार है मेरा , अगर उन ज़िन्दगियों को जोड़ जोड़ कर एक कोलाज बनाया जाये तब वह  कैसा बनेगा और कैसा दिखेगा | पुरानी स्मृतियों से लेकर अब तक सभी को याद कर एक जिग-सा पज़ल की तरह करीने से जोड़ने का प्रयत्न कर रहा हूँ पर अचंभित हूँ यह देख कर कि सारी कतरने मेरी लगाईं हुई जगह पर नहीं ठहर रही हैं | वह खुद-ब-खुद चल कर अपनी जगह ढूंढ कर वहीँ चिपक जा रही हैं | आकृति एक मनुष्य की ही बनती जा रही है ,शायद मेरी ही | 


देखते देखते एक कोलाज मेरे ही चित्र सा तैयार हो गया | जिनकी तरह से मैं सोचना चाहता हूँ , उन सब ने मिल कर सर का आकार ले लिया | जिन्हें मैं दिल में बसाना चाहता था , वे एक भी दिल के स्थान पर नहीं ठहरे | सब बस दिल के इर्द गिर्द एकत्र होकर दिल को आकार दे रहे थे और दिल में झाँकने का प्रयत्न कर रहे थे (देखें चित्र में ) | चूंकि वहां का स्थान रिक्त था,अतः वहां कोई उतरने की हिम्मत नहीं कर पाया | शायद लोग वहीँ रहना और जाना पसंद करते हैं ,जहाँ भीड़ भाड़ होती है |अतः कोलाज में भी मेरे दिल का स्थान रिक्त ही रहा | अब चूंकि काम तो बहुत अधिक करना पड़ता है और जो लोग भी मेरे सहयोगी है ,वे सब मेरे दायें ओर एकत्र हो गए | यह  सब कोलाज बनाते समय अपने आप हो रहा था | चाह कर भी मै कुछ लोगों की कतरनों को इधर से उधर नहीं कर पाया | अचानक से सभी जिंदगियां जीवंत जो हो चुकी थीं |

जिन्हें मैं अपनी नज़र में बसा कर रखता हूँ ,वे सब आँखों के स्थान पर आकर ठहर गए | मेरे अधरों पर मुस्कान लाने वाले बहुत कम ही लोग हैं मेरी ज़िन्दगी में , वे चंद लोग ठहरे से हैं मेरे होंठों पर | उनका मैं दिल से अहसान मंद हूँ |

कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अब मेरे संपर्क में नहीं हैं और मुझसे बहुत दूर हैं | वे दूर तो खड़े हैं परन्तु वास्तविक आकार मेरे जीवन का उनके वहां होने सी ही है | वाह्य रेखाएं किसी भी चित्र की सबसे महत्वपूर्ण रेखाएं होती हैं |

और कुछ यूँ बन गया कोलाज, मेरी ज़िन्दगी में शामिल लोगों का |

ज़िन्दगी एक कोलाज ही तो है तमाम उन ज़िन्दगियों का , जो आपकी ज़िन्दगी से वास्ता रखती हैं |

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

"सी.टी.सी."........अर्थात.... "कॉस्ट टू कंपनी"..........."


एक साधारण सा टर्म आजकल प्रचलन में है 'सी टी सी ' , जिसका सीधा सा अर्थ है कि कोई व्यक्ति जिस कंपनी / ग्रुप में काम करता है उस कंपनी को उस व्यक्ति को अपने यहाँ काम के बदले कुल कितनी कीमत चुकानी पड़ती है | उस 'सी टी सी' में सभी प्रकार के लाभ , वित्तीय अथवा गैर वित्तीय , जुड़े होते हैं | 

इसी टर्म का प्रयोग अगर एक दूसरे सन्दर्भ में किया जाय तब और ही ज्यादा व्यापक अर्थ निकल आता है | 'कंपनी' का अर्थ किसी का 'साथ' भी होता है | और अक्सर किसी का साथ पाने के लिए कीमत भी चुकानी पड़ती है यथा :

१. किसी राज नेता की सी.टी.सी. -----------अपने सिद्धांतों और निजी जीवन से समझौता |
२.किसी पत्रकार की सी.टी.सी. --------------आपकी निजता और गोपनीयता समाप्त |
३.किसी पुलिस वाले की सी.टी.सी. ---------अपने ही घर में चोर घोषित हो जाएँ ,पता नहीं |
४.किसी माफिया की सी.टी.सी. -------------उसके लिए आप फिरौती के सिवाय कुछ नहीं |
५.ममता की सी.टी.सी. ----------------------समर्थन वापसी का भय |
६.अमर सिंह की सी.टी.सी.---------------- --जया प्रदा विलुप्त  |
७.केजरीवाल की सी.टी.सी.------------------अन्ना का विलीनीकरण |
८.दिग्विजय सिंह की सी.टी.सी.-------------कांग्रेस को लुप्त प्राय करने की ओर अग्रसर |
९.नरेंद्र मोदी की सी.टी.सी.-------------------मुस्लिम वर्ग से बैर , विश्व को नकारात्मक सन्देश |
१०.मायावती की सी.टी.सी.-------------------एक वर्ग विशेष का राज, शिक्षा विहीन समाज | 
११.ट्रेन में महिला सहयात्री की सी.टी.सी.------'आई.ए.एस.' जेल में |
१२. गर्ल फ्रेंड की सी.टी.सी.-------------------समय , सुकून का सत्यानाश और भीगा रूमाल जेब में ।
१३.पत्नी की सी.टी.सी. ------------------------उनके पक्ष में 'एस्क्रो' खाता प्यार का | (escrow account)
१४.बच्चों की सी.टी.सी.-----------------------मुस्कराहट , खिलखिलाहट  और जीवन्तता से भरपूर जीवन |
१५.ब्लॉगर की सी.टी.सी.---------------------बस तारीफ़ करती टिप्पणियाँ |
१६.फेसबुक फ्रेंड की सी.टी.सी.------------------रातों की नींद  |
१७. बॉस की सी.टी.सी. -----------------------पत्नी से नाराजगी |
१८."उनकी" सी.टी.सी.  -----------------------जोखिम जान का |


                            "मेरी सी.टी.सी. --------बस दो बोल प्यार के , फिर तो जान भी हाजिर है |"

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

" १९ जुलाई से २८ सितम्बर तक ......"


जुलाई में जन्म हुआ श्रीमती जी का १९ को , अगस्त में मेरा, पहली को , अगस्त में ही बड़े बेटे अनिमेष का २५ को और अंत में सितम्बर में छोटे बेटे अभिषेक का २८ को | माह तो क्रम वार हैं ही , तिथियाँ भी बड़े से छोटे के क्रम में हैं | ( ०१/१९/२५/२८ ) 

वर्ष में १२ माह होते हैं परन्तु हमारे यहाँ तीन माहों में ही हम सब के जन्म दिन हो जाते हैं | पार्टियां करो तो लोग कहते हैं , यार इनके यहाँ तो रोज ही जन्म दिन होता है | जब बच्चे छोटे थे तब दोनों का जन्म दिन हमलोग अक्सर किसी एक की ही तिथि पर मना लिया करते थे | पर उस दशा में दोनों में गिफ्ट के लिए बहुत लड़ाई होती थी |

आज अभिषेक का जन्म दिन है | बचपन से बहुत शरारती , बहुत बात करने वाला , अत्यंत जिज्ञासु , मेरी नाक में दम करने वाला , अनिमेष से खूब लड़ाई करने वाला ( एक बार एक घूंसे में अनिमेष की नाक से खून निकाल दिया था ) और अपनी मम्मी का चहेता नंबर वन | मेरे आफिस की सारी बातें सुन सुन कर मुझ से ही प्रश्न करता रहता था कि , पापा आप करते क्या हो , रोज़ रोज़ ट्रांसफार्मर फुंकते रहते है | किसी भी सिस्टम से बेहतर आउट पुट कैसे लिया जा सकता है , इस पर मनन करने का तो जैसे शौक है उसे | किताबों के प्रति बहुत शुरू से लगभग कक्षा १ से ही लगाव हो गया था और आज तो अच्छी खासी एक लाइब्रेरी बन चुकी है हमारे घर में |

पढ़ाई में सदा मेधावी , सारे ओलंपियाड में मेडल और साइटेशन मिला | 'किशोर वैज्ञानिक प्रोत्साहन योजना' में अंत तक सफल हुआ | परन्तु आई आई टी में चयन होने के कारण स्कालरशिप नहीं मिली , क्योंकि वह स्कालरशिप प्योर साइंसेस के लिए थी | अभी इरादा एम एस करने का बना रहा है , देखें आगे क्या होता है |

कभी कभी लगता है जैसे ईश्वर से मेरी बहुत अच्छी दोस्ती सी है , जो उनसे कहता हूँ बस हो जाता है  |  पुनः प्रार्थना है उस दोस्त सरीखे ईश्वर से, बस मेरे दोनों बेटों पर अपना स्नेह और आशीर्वाद बनाए रखें | हम पति पत्नी तो बस उनकी ख़ुशी में ही धन्य रहेंगे सदा | 

अभिषेक , बहुत बहुत प्यार पापा का और तुम्हारी मम्मी का | एक शिकायत तुम्हारी मम्मी की,मुझे करनी है , तुम दोनों के जाने के बाद से मुझे यार घर में वह सीरियसली लेती ही नहीं | हाँ ! एक बात और तुम्हारी जिद के कारण मम्मी ने जिम जाना और मैंने घर पर ही रेगुलरली ट्रेड मिल शुरू कर दिया है ।

अपने दोस्तों को पार्टी -शार्टी दे देना । बस ।

-पप्पा
                                                                      " तुम दोनों में ही तो प्राण बसते हैं हम दोनों के "

सोमवार, 24 सितंबर 2012

" दर्द का महाराजा .......दाँत का दर्द ...."


'वेदना' शब्द की उत्पत्ति में 'वेद' शब्द का क्या महत्त्व है, यह तो नहीं पता ,परन्तु इतना तो अवश्य तय है कि जितना ज्ञान वेदना की स्थिति में प्राप्त होता है उतना ज्ञान वेद से भी नहीं मिल सकता | शायद इसीलिए उस स्थिति को वेद-ना कहा गया है | वेदना में भावनाओं का भी समावेश झलकता है | उसके इतर 'दर्द' शब्द का प्रयोग शारीरिक पीड़ा के लिए अधिक किया जाता है |

दर्द जहां भी होता है और जब होता है तभी उस दर्द के होने वाले हिस्से की उपयोगिता समझ में आती है | यह रिश्तों के दर्द पर भी लागू होता है | ईश्वर ने दर्द को शायद इसलिए बनाया कि दर्द होने पर हम उसके प्रति सजग हो जाए और समय रहते उपचार कर उस हिस्से , अंग या सम्बन्ध को दुरुस्त कर लें |

दर्द भी अनेक प्रकार के होते हैं | पर सब दर्दों का राजा होता है 'दाँत का दर्द' | यह ऐसा दर्द है जो शुरुआत में बहुत मीठा लगता है | कुछ लोग इसी मिठास को टीसना भी कहते हैं | फिर शुरू होने के बाद लुका छुपी खेलना शुरू कर देता है | कभी लगेगा इधर हो रहा है , कभी लगेगा उधर चला गया | कभी गुस्से में बेचारे मसूढ़े को फुला देगा | कभी कान के नीचे तक दर्द की लकीर सी बना देता है | मजे की बात है , यही दर्द एकमात्र ऐसा दर्द है जिसका लोकस ड्रा किया जा सकता है | इसी दर्द से निजात पाने के लिए बड़े बड़े राजा महाराजा अपना राज पाट भी लुटाने को तैयार हो जाते थे |

ईश्वर ने दाँत के दर्द को इतना महत्व इसलिए दिया होगा जिससे हम लोग इसका प्रयोग अत्यंत सावधानी के साथ करें | यह सोच कर लापरवाही न करें कि अरे यह तो ३२ दाँत है ,एकाध टूट भी गए तो क्या | जीवन जीने के लिए भोजन प्रमुख आवश्यकता है और भोजन के लिए मुख में दाँत सर्वाधिक महत्वपूर्ण | इसीलिए सर्वाधिक दर्द का समावेश भी दांतों के साथ ही किया गया |

यह तो सिद्ध सी बात है , जिस दर्द में सबसे ज्यादा दुःख होता है , वही बात हमारे जीवन के लिए सर्वाधिक महत्व वाली होती है | आज मुझे कई दिनों से दाँत में दर्द हो रहा था पर यह तय कर पाना मुश्किल था कि, हो कहाँ रहा है | बहुत कोशिश की ,शीशे के सामने मुंह फाड़ फाड़ कर देखने की , पर समझ न आया कि कलप्रिट दाँत कौन सा है | आखिर आज आफिस से लौटते समय अपने एक मित्र डाक्टर के यहाँ गया | मुझे देखते ही वह बहुत खुश हुआ क्योंकि मै अपने दांतों की सेहत को लेकर काफी अभिमान किया करता था | खैर , मेरे दर्द को देख उसने थोड़ा अपनी हंसी रोकी और अपनी 'आधी कुर्सी आधा बेड' टाइप बिस्तर पर मुझे लिटा दिया | मुआयना करने के बाद यह निष्कर्ष निकला कि थर्ड मोलर नामक प्राणी अपनी औकात से ज्यादा बाएं दायें खिसक रहा है | अतः उसे मुख-संसद से बाहर निकाल दिया जाय | 

जितनी आसानी से मेरे मित्र चिकित्सक ने यह बात कह दी , मुझे अफ़सोस हुआ | जिस दाँत ने अपने जीवन भर मुझे खिलाया -पिलाया और हंसाया भी खूब , उसे ही अब उखाड़ फेकने को कह रहे थे वह | खैर मजबूरी है उनकी बात मानना , नहीं तो दाँत का दर्द ही वो दर्द है जो इस बात को झूठ सिद्ध कर देता है कि 'मर्द को दर्द नहीं होता ' | 

अभी तो पेन किलर खा कर उस दर्द का बखान लिख रहा हूँ | कल की  शाम फिक्स हुई है ,उस शातिर को बाहर का रास्ता दिखाने के लिए |


शनिवार, 22 सितंबर 2012

" पैसे पेड़ पर नहीं उगते ......."


बहुत साधारण सी बात है कि, पैसे पेड़ पर नहीं उगते | यह जुमला अक्सर सुनने को मिलता है | मध्यम वर्ग के परिवारों में अक्सर बच्चे या महिलायें अगर किसी चीज़ की फरमाइश कर दे और कमाने वाला पुरुष अगर सीमित आमदनी वाला है तब वह बरबस उनकी फरमाइश सुन कर कह उठता है , पैसे पेड़ पर तो उगते नहीं | ऐसा नहीं है कि वह उनकी फरमाइश से इत्तिफाक नहीं रखता या पूरी नहीं करना चाहता पर हताशा वश ( अपने परिवार की इच्छा पूरी न कर पाने के दबाव में ) ऐसा कह उठता है | इस कथन के पीछे उसे भी मानसिक पीड़ा बहुत होती है | जब भी या जिस भी परिस्थिति में इस जुमले का प्रयोग किया गया हो या किया जाता हो , वह स्थिति अधिकतर लाचारी को ही दर्शाती है |

प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संबोधन में ऐसी बात कहना हास्यास्पद नहीं समझा जाना चाहिए | उनकी या उनकी पार्टी की आर्थिक नीतियाँ जो भी हो , उसे समझने और उसकी व्याख्या करने के लिए बहुत सारे विशेषज्ञ अपनी अपनी राय दे रहे हैं और समय समय पर देते रहते हैं | परन्तु अभी समय है इस पर चिंतन करने का कि प्रधान मंत्री ने पूरे देश के सामने इतनी गंभीर बात कह दी है ,इसका अर्थ है कि वास्तव में देश का खजाना खाली है और उनके सामनें लाचारी और बेबसी की स्थिति है | उन्हें अच्छी तरह से मालूम है कि अगले लोकसभा चुनाव के सन्निकट ऐसी बाते करने से उन्हें लाभ के स्थान पर भारी नुकसान ही होने वाला है फिर भी उन्होंने ऐसी आत्मघाती बात कही है | 

दोष किसका है , यह तो तय होता रहेगा ,सर्व प्रथम आवश्यकता इस बात की है कि ऐसी स्थिति से बाहर कैसे निकला जाय | संसाधनों का अत्यंत सीमित प्रयोग पहला कदम होना चाहिए | समृद्ध व्यक्ति धन के बल पर पेट्रोल / डीज़ल / गैस / बिजली का दुरूपयोग करता रहे और बाकी लोग अभावों में झूझते रहे ,इस पर अंकुश की आवश्यकता है |

भ्रष्टाचार या घोटाले जो भी आजकल चर्चा में है उसमे शामिल धन का आकलन काल्पनिक अधिक और वास्तविकता में कम है | ज्यादातर ऐसे तथ्य उजागर हुए हैं कि अगर आबंटन ( चाहे कार्य का हो , चाहे लाइसेंस का ) खुली निविदा से होता तब ऐसा नहीं ऐसा होता | अगर वैसा होता भी तब भी देश की अर्थ व्यवस्था में कोई सुधार न होता | किसी क्लोज्ड सिस्टम की गुणवत्ता में सुधार तभी संभव है जब उसमे बाहर से अधिक गुणकारी चीजें जोड़ी जाए | जब तक अपने देश में बाहरी देशों के लोग व्यापार / उद्योग को स्थापित नहीं करेंगे अर्थ व्यवस्था में सुधार संभव नहीं है | एक छोटे से उदाहरण से इसे यूं समझा जा सकता है कि जैसे अपने देश में ही जो भी तीर्थ स्थान हैं , दूर दराज़ में अनेक मंदिर बने हुए हैं अगर वहां बाहर से लोग आना बंद कर दे तब मात्र चौबीस घंटों में ही उनका सारा अर्थ शास्त्र बिगड़ जाएगा | धन का प्रवाह जितना अधिक और जितने अधिक देशों में होगा उतना ही हमारा रुपया मजबूत होगा | बिना विस्तार के मुद्रा भी संकुचित होती रहती है और यह स्थिति आज सारे विश्व की है | पुराने जमाने में प्रचलित बार्टर सिस्टम आज भी लागू है | जिसके पास पेट्रोल / डीज़ल है वह उसके बदले आपसे मनमानी से रेट मांग रहा है | अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में हमें हमारे उत्पादों की गुणवत्ता बढाकर खुद को स्थापित करना होगा | 

प्रधान मंत्री की बात के दूरगामी परिणामों पर विमर्श किया जाना चाहिए | विकल्प के तौर पर कौन लोग उपलब्ध है और कितने सच्चरित्र हैं , सब सबके सामने हैं | क्षेत्रवाद , जातिवाद और परिवारवाद से परे कोई नहीं |

बस एक बात ही सरल सी समझ आती है "आवश्यकताएं कम कर लो , समृद्धि महसूस होने लगेगी " | समृद्धि का सीधा अर्थ रुपये के अंतर्राष्ट्रीय मूल्य के सापेक्ष देखा जाना चाहिए | अगर रूपए का अवमूल्यन हो रहा है , इसका अर्थ है कि जो समृद्धि दिख रही है वह कुछ लोगों तक ही सीमित है और वह भी कुछ समय तक के लिए ही सीमित रहेगी |  

बुधवार, 19 सितंबर 2012

" चलती कार में ठिठकी निगाहें ......"



साथ उसका और ,
सफ़र कार का,
बाहर मौसम सुहाना था,
भीतर वह दीवाना था ,
निगाहों में उसके रफ़्तार थी,
मेरी निगाहें उस प्यार पे थीं ,
उंगलियाँ उसकी गुनगुनाती जब थी ,
मैं लजाती शर्माती इठलाती तब थी ,
पलकें मेरी गिरती उठती ,
और सहमती थी भय से ,
पर जब भी देखा था हौले से ,
मुस्करा के उसने ,
निगाहें  तब तब ठिठकी सी थी |


रविवार, 16 सितंबर 2012

" अखबार फेंकते, ये हॉकर्स ........."


सवेरे तय समय पर अखबार न मिले तो कुछ उलझन सी लगती है | अब तो अख़बार में कुछ नया नहीं होता पढने को , सब कुछ टेलिविज़न या नेट की न्यूज़ से पता चल जाता है , फिर भी अखबार की तलब तो लगती ही है | जब पहली चाय के साथ अखबार न हो तो चाय भी बे-स्वाद ही लगती है |

मौसम कैसा भी हो , बारिश जम के हो रही हो या  कोहरे में हाथ को हाथ न सूझ रहा हो ,फिर भी अखबार तय समय पर मिल जाए ,यह उम्मीद रहती है और मिलता भी है | अक्सर जब विपरीत मौसम में अपने हॉकर को देखता हूँ , अखबार देते हुए , उसकी निष्ठा के प्रति सम्मान उमड़ जाता है |

अमूमन सभी अखबार रात को २/ ३ बजे के बाद ही प्रेस से निकलते हैं | तभी से इन हॉकर्स की दिनचर्या आरम्भ हो जाती है | अखबार के सभी पन्नों को क्रम से लगाना ( अब तो शायद यह मशीन से ही संभव हो गया है ) , फिर उसके भीतर कोई न कोई विशेषांक रखना और प्रायः सभी अखबार के भीतर विज्ञापन के पैम्फलेट रखना , यही शुरुआत होती है , अखबार के हॉकर्स के काम की | सारे अखबार जो उन्हें वितरित करने होते हैं उन्हें वह अपने क्षेत्र मे बांटने के क्रम में सजा लेते हैं | ख़बरों के इस बोझ को वह अपनी साइकिल पर लाद कर निकल पड़ते हैं , फेंकने को खबरे रोज़ रोज़ की,हमारे आपके घरों में |

अखबार में क्या छपा है , इससे इतर उनके मन में साइकिल पर चलते चलते कुछ यूं चलता होगा : 

शर्मा जी के यहाँ जागरण और टाइम्स देना है , बाजपेई जी के यहाँ खाली हिन्दुस्तान | आहूजा साब के यहाँ कुत्ता न बैठा हो गेट की आड़ में | सरकार जी के यहाँ फिर वह आंटी खड़ी मिलेंगी हल्ला करते हुए कि , तुम अखबार पानी में क्यों फेंकते हो | सलूजा साहब कहेंगे , अखबार मोड़ कर मत दिया करो , सीधा सीधा डाला करो ( बाद में रद्दी बेचते समय ज्यादा पैसे मिल जाते होंगे शायद ) | छोटे घरों में अखबार देना आसान होता है , एक पैर पर साइकिल टिकाई और बैठे बैठे ही घंटी बजाकर फेंक दिया या फंसा दिया दरवाजे में और बड़े घरों में , आगे खुला मैदान ,उसमे दो चार कुत्तों की जमात ,जो देखते रोज़ हैं पर भौंकते भी रोज़ है ( शायद अखबार की खबर का भान रहता है उन्हें कि फिर खबर छपी है उसमें कुत्ते सरीखे आदमियों की ) । कितना भी जोर से फेंको , बरामदे तक पहुंचता नहीं और वह मुआ कुत्ता उसे फाड़ देता है | अब रुको पहले, फिर  घंटी बजाओ , किसी के आने की प्रतीक्षा करो तब उन्हें दो , नहीं तो अगले दिन की चिड चिड झेलो | मेरे बारे में सोचता होगा कि टाइम्स आफ इंडिया और हिन्दुस्तान के तो पैसे देते हैं , उसके अलावा २/३ अख़बार तो इन्हें मुफ्त कूपन से मिल जाते हैं ( खूब रद्दी बेचते होंगे ) | अरे! नहीं भाई , ये प्रेस वाले जबरदस्ती कूपन पकड़ा जाते हैं तो क्या करें | रद्दी तो कभी हमने बेचीं ही नहीं | घर पर काम वाली ले जाती है ,उसके बच्चे उससे लिफाफा बना बेचते हैं | 

साल के बारहों महीने एक सा काम , एक तय समय का रूटीन , मेरे ख्याल से इन हॉकर्स के अलावा और किसी भी काम का इतना सख्त रूटीन नहीं होता होगा | मजे की बात हर कोई चाहता है , मोहल्ले में अखबार सबसे पहले उसे मिले | जितनी तल्लीनता से और निशाना साध कर यह हॉकर्स अखबार दूसरे /तीसरे माले तक फेंक देते हैं , वह काबिले तारीफ़ है | अगर इन्हें शूटिंग प्रतियोगिता में भेजा जाये , शर्तिया मेडल ले कर ही लौटेंगे | 

अखबार की खुशबू हाथ में आते ही कितने लोगों की शारीरिक पाचन क्रिया तत्काल गुड़गुड़ाहट के साथ अपना दायित्व पूरा करने को तत्पर हो जाती है | गोया अखबार हाथ में न आये तो मूड फिर बनता ही नहीं | कुछ का अखबार पढ़ते पढ़ते, उससे मुंह ढँक कर दुबारा सोने का मजा ही कुछ और है | कहीं कहीं क्रॉस वर्ड या सुडोकू कौन पहले हल कर डालेगा , इसका झगडा और कहीं तो सारे पन्ने अलग अलग बँट जाते हैं ,कोई स्पोर्ट्स ले गया कोई सिटी विशेषांक और कोई मुखपृष्ठ |

जो भी हो मुझे तो इन हॉकर्स में अपने काम के प्रति लगन , जिम्मेदारी , कंसंट्रेशन भरपूर दिखता है और याददाश्त तो इनकी गजब की होती है और निशाने का भी कोई जवाब नहीं और न ही निशानदेही का |

शायद यूरोपियन देशों में इसीलिए बच्चों को अखबार वितरित करने का काम सौंपा जाता है ,'सेन्स आफ़ रेस्पोंसबिलीटी' डेवलप करने के लिए । 

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

" राष्ट्रीय भाषा अथवा राष्ट्रीय राजमार्ग........"


छोटे छोटे गाँव / कस्बों / देहातों में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने के लिए पगडंडियों जैसे अनेक टेढ़े मेढ़े परन्तु कम दूरी के रास्ते होते हैं | इन पर केवल वहीँ के रहने वाले लोग सुगमता से चल सकते हैं | वृहद स्तर पर देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से की यात्रा के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग होते हैं,जिन पर हर कोई सुगमता से चल सकता है | 

क्षेत्रीय भाषा एवं राष्ट्रीय भाषा का भी स्वरूप कुछ ऐसा ही है | राष्टीय भाषा राष्ट्रीय राजमार्ग जैसी होनी चाहिए , एकदम साफसुथरी और सबके लिए सुगम और सुलभ , जिससे वह पूरे देश को एक साथ जोड़ सके | भले ही राष्ट्रीय राजमार्ग के रास्ते में पड़ने वाले क्षेत्रों में पगडंडियों जैसी अनेक क्षेत्रीय भाषाओं का सामना क्यों न करना पड़े | क्षेत्रों के विकास के लिए ये पगडंडियाँ  जैसी क्षेत्रीय भाषाएँ भी आवश्यक ही हैं | 

"हिंदी" भाषा भी हमारे देश में एक कोने से दूसरे कोने तक राष्ट्रीय राजमार्ग जैसी ही प्रतिपादित और विकसित की जानी  चाहिए | इस राष्ट्रीय राजमार्ग पर कहीं कहीं अंग्रेजी भाषा सरीखे फ़्लाइओवर भी हैं ,पर कितने भी फ़्लाइओवर बन जाएँ , पुराने रास्ते कभी बंद नहीं होते और न ही उन पर चलने वालों की संख्या में कमी आती है |

हिंदी भाषा का सम्मान और इस पर गर्व किया जाना चाहिए | किसी देश की मौलिक पहचान उसके राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय भाषा से ही की जाती है | इसके अतिरिक्त अन्य भाषाओं का ज्ञान अर्जित करना अपने आप में बहुत अच्छी बात है, परन्तु हिंदी पर व्यंग कर अन्य भाषाओं को महत्व देना शर्म और दुर्भाग्य की बात है |

हर्ष की बात है कि हिंदी ब्लॉग जगत में लोग उत्साह के साथ हिंदी का प्रयोग कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसे प्रचारित और प्रसारित कर रहे हैं |

विदेश में रह कर हिंदी में लेखन करने वालों का इसमें अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है |

रविवार, 9 सितंबर 2012

" घटनाओं का क्रम और हमारा भ्रम ........."


जीवन ,मृत्यु , निर्माण , विध्वंस ,जय , पराजय , मिलना , बिछुड़ना ,यह सब ऐसी घटनाएं है जो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में घटित होती । इन होने वाली घटनाओं के क्रम को हम अपने सुचारू जीवन के हँसते खेलते भविष्य के अनुसार तय कर लेते हैं । तय क्रमानुसार घटनाएं घटित होती रहती हैं तब हम ईश्वर को विस्मृत कर स्वयं को ही इस संसार का सबसे बड़ा कर्त्ता और नियंता समझ बैठते हैं । जैसे ही घटनाएं अपना क्रम बदल लेती हैं , हमारा भ्रम टूट जाता है और क्षण भर में हम धराशायी और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं ।

कल शाम शिवम जी ने पाबला साब के पुत्र के निधन की सूचना जब फोन पर दी , मैं स्तब्ध रह गया । अभी 26/27 अगस्त की बात है ,जब पाबला साब मेरे घर पर थे और कितना आनंदित हुए थे हम लोग उनके सानिध्य में ,उनके जिंदादिल और खुशदिल व्यवहार से । बातों बातों में ही मजाक में मैंने कहा था कि अब आपके बेटे की शादी में आपके घर आऊंगा , आप बुलाओ चाहे न बुलाओ । उन्होंने कुछ तस्वीरे भी दिखाई थी मुझे अपने बच्चों की , मेरे ही सिस्टम पर । उन्हें जब मैं स्टेशन छोड़ने गया था , चलते समय अत्यंत भावुक हो गए थे वह । उसके बाद से मेरी उनसे फोन पर भी अनेक बार बात हुई ।

कल यह सूचना मिलने के बाद उनसे फोन पर बात करने का साहस नहीं कर पा रहा हूँ । मेरे फेसबुक पर कवर फोटो में उनके साथ हम लोगों की तस्वीर लगी है । उसमें उन्हें हंसता देख कर उनके इस दुःख की कल्पना मात्र से ही सिहरन सी हो रही है । कैसे वह इस भयंकर दुःख को बर्दाश्त कर पायेंगे ।

घटनाएं तो सभी घटित होना तय होती हैं । ईश्वर से प्रार्थना है कि बस उनका क्रम ऐसे न बिगड़ने दें कि जिससे मनुष्य व्यथित हो कर अपने ही जीवन के होने और न होने के बीच उलझ कर इस अमूल्य जीवन से ही विमुख हो जाए ।बस यहीं आकर हम लोगों की सोचने और तर्क करने की शक्ति समाप्त हो जाती है ।

अंत में बस परम पिता परमेश्वर से यही प्रार्थना है कि पाबला जी को और उनके परिवार को इस दुःख को सहन करने की शक्ति प्रदान करें और उनके प्यारे से बेटे को अपने पास स्वर्ग में स्थान दें ।

     

शनिवार, 8 सितंबर 2012

" रेसिपी , एक अच्छी चाय की ......"


मैं बिस्तर से सवेरे उठने को ही था कि श्रीमती जी ने नींद में ही जम्हाई लेते हुए मुझसे कहा ," आज चाय आप बनाइये न प्लीज़ "| सच तो यह है कि किचेन के नाम पर मुझे बस वाटर प्योरीफायर से पानी लेना आता है |हाँ! पर ऐसा भी नहीं कि चाय न बना पाऊं | मैंने मन ही मन सोचा चलो आज चाय बना ही देते हैं | दो कप चाय बना कर बड़े  करीने से ट्रे में रख कर मैं उनके पास ले गया | पहली चुस्की लेते ही उनकी आँखों में रोशनी आ गई और चहकते हुए बोली ,"चाय तो आपने बहुत अच्छी बनाई है" | मुझे लगा ,कहीं ये फ्यूचर इन्वेस्टमेंट तो नहीं है इनका | फिर भी तारीफ़ सुनना अच्छा तो लगा | मैंने कहा , अरे मैंने तो यूँ ही बना दी , तुम्हे अच्छी लग रही है , क्योंकि तुम्हे बिस्तर पर ही बनी बनाई जो मिल गई | वे बोली ," अरे नहीं सच में अच्छी बनी है , मुझसे ऐसी नहीं बनती कभी | आप इसकी रेसिपी लिख दीजिये , मैं भी ऐसे ही बनाऊँगी  | मैंने सोचा, मैंने तो साधारण तरीके से बस एक चाय ही बनाई है, इन्हें इतनी अच्छी क्यों लग रही है | मनन करने पर अच्छी चाय की रेसिपी कुछ यूं नज़र आई :

1. अव्वल तो चाय मांगी जाय प्यार से और दुलार से।

2.बनाने वाला प्यार से बस उसी को मन में सोचते हुए चाय बनाए ।

3.चीनी डालते समय दिल में पीने वाले का ही ख्याल रहे तब मिठास सीधे उसके होंठों से होते हुए दिल तक पहुंचेगी ।

4.चाय की पत्ती डालने के बाद उबाल आने पर उसमें उन्हीं का अक्स देखने की कोशिश करें। सच मानिए आपको उसमें उनका अक्स नज़र आयेगा,अगर आपने चाय सच में उनके लिए प्यार से और दिल से बनाई है ।

5.चाय बनने के बाद बस प्यार भरी नज़रों से उनकी आँखों में आँखें डालकर चाय की प्याली थमा दीजिये फिर देखिये ,अब यह चाय अमृत जैसी ही लगेगी भले ही चाय में चीनी ,पत्ती ,और दूध कैसे और कितना डाला जाए ।

6.चाय का फ्लेवर flavonoid ( अक्षय कुमार वाला ) से नहीं feelings से आता है ।

" प्यार से कोई चाय बनाने को कहे तो फिर बनाने का मन तो करता ही है बस कहे तो एक बार प्यार से ।"

बुधवार, 5 सितंबर 2012

" कविता भी रूठ गई ......"


रात गहरी हो चली थी | मैं अपनी आँखें मूंदे मूंदे ख्यालों में एक कविता गुन, बुन रहा था | गुनते ,बुनते कब आँख लग गई पता नहीं चला | सपनों में , हाँ ,सपना ही रहा होगा,मैं अपनी कविता को शब्दों , भावों और स्मृतियों से सजा रहा था । तभी  देखा ,मेरी कविता अकस्मात मेरे सामने तन कर खड़ी हो गई और मुझसे बोली ,"आज तुम मेरा श्रृंगार-विंगार मत करो ,पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो |" मेरे लिए अचानक यह अचंभित करने वाली घटना थी | मेरी ही कृति मुझसे प्रश्न कर रही थी | अपने को संयत करते हुए मैंने अपनी कविता से कहा , क्या बात है , क्या शंका और सन्दर्भ है तुम्हारा |

मेरी कविता : जबसे तुम युवा हुए हो , तुमने मुझे अपने ह्रदय में बसा रखा है | तबसे बरसों बीत गए और तुम सबके सामने मुझे ही प्रस्तुत करते रहते हो | मुझे तुम कभी आंसुओं के आवरण में और कभी वेदना से सुसज्जित कर ,स्वयं तो मेरे पीछे छुप जाते हो और दुनिया के सामने मुझे पेश कर देते हो | बहुत पीड़ा होती है मुझे जब लोग मुझे शब्द-शब्द , भाव-भाव ,पोर पोर से उद्घाटित करते हैं और मेरे दर्द में वे स्वयं आनंद की अनुभूति करते हैं | बार बार आखिर कितनी बार तुम मेरा सहारा लोगे  ,स्वयं को अभिव्यक्त करने में | 

सच तो यह है, तुमको जब भी कोई अपना सा मिलता है, कुछ भाने सा लगता है ,तुम स्वयं को उसके सामने प्रस्तुत कर कुछ कहना चाहते हो पर यह क्या, स्वयं तुम चुप रह कर मुझे सजाते संवारते हो ,उसके सामने पेश कर देते हो | वे सब भी मुझ पर तुम्हारे ही द्वारा लादे गए आभूषणों से रोमांचित और पुलकित होते हैं , थोड़ा निहारते हैं ,मुस्कराते हैं,अपना जी भर लेते हैं ,बस और कुछ नहीं | मैं भी अब थक गई हूँ , तुम्हारे बदले सारी दुनिया से रू-ब-रू होते होते  |

मेरा दिल भी अब तुम्हारे पास नहीं लगता | मुझे भी किसी एक के ही हवाले कर दो | सुख चैन से उसी की हो कर रहूँगी | रोज़ रोज़ तुम्हारे आंसुओं में नहाना तो नहीं पडेगा | कभी एक पाँव मेरा तुम चाँद पर रखते हो और दूसरा दरिया में | फूलों की खुशबू से ज्यादा काँटों से सजाते हो | दर्द इतना भर देते हो कि अन्दर ही अन्दर सांस लेना मुश्किल हो जाता है | लबों को मेरे, तुमने न जाने कितनी बार छुआ होगा सबके सामने, कि अब तो सबके सामने जाने में लज्जा सी लगती है | दर्द ही सजा मिला है सदा वहां ,जहां तबस्सुम को भी होना चाहिए कभी |

अपनी कविता का यह रूप देख मैं स्तब्ध रह गया | मैं कुछ सोचने को विवश हो ही रहा था कि मेरी कविता ने आज मुझ पर ही कुछ पंक्तियाँ लिख दी  :

दो बोल अब बोल भी दो , 
दिल का राज़ खोल भी दो,
मत लिखो कोई नई कविता,
बह जाने दो आँखों से सरिता,
कर जाओ मुझे भी अब मुक्त,
करके प्यार को अपने उन्मुक्त |

मैं अपनी कविता द्वारा लिखी चंद पंक्तियों के अर्थ को समझने का प्रयास कर ही रहा था कि वह मुस्करा कर उठ खड़ी हुई और कभी न आने की बात कर चली गई | अब शायद कभी न लौट कर आये मेरी कविता |

अब तक मेरी उनींदी आँखें खुल चुकी थी और मुझे दिख रही थी एक धुंधली सी कविता ,रूठ कर जाते हुए |

रविवार, 2 सितंबर 2012

" हँसना मना है........"

मनुष्य और अन्य प्राणियों में सबसे बड़ा अंतर यह है कि केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो हँस सकता है | अब वो चाहे अपने ऊपर हँसे अथवा दूसरों पर हँसे | जब मनुष्य अपने ऊपर हँसता है तो आत्मस्थ ,जब दूसरों पर हँसे तो परस्थ हास्य कहलाता है |

हँसी के छः प्रकार होते हैं : 'स्मित','हसित','विहसित','उपहसित','अपहसित' और 'अतिहसित' | 'स्मित' में कपोल ज़रा मुस्कराते प्रतीत होते हैं,दांत नहीं दिखाई पड़ते | 'हसित' में दांत ज़रा दिखाई पड़ते हैं | 'विहसित' में आँखें सिकुड़ जाती हैं ,ज़रा आवाज़ भी होती है ,मुँह लाल भी हो जाता है | 'उपहसित' में कंधे भी सिकुड़ जाते हैं ,सर हिलता है | 'अपहसित' में बेमौके की हँसी होती है , आँखों में पानी आ जाता है | 'अतिहसित' में आँखों से पानी बहता है, आवाज़ अधिक होती है , हाथ से बगल को दबा लिया जाता है |

उपरोक्त व्याख्या इतनी सूक्ष्मता से भरत मुनि ने हज़ारों वर्ष पहले अपने ग्रन्थ में दी है |    

निम्न चित्र में पायी गई हँसी ऊपर वर्णित हँसी से सर्वथा भिन्न है | इसमें लोग बुक्का फाड़ कर , फूट फूट कर और लोट लोट कर हँस रहे हैं  :-


मैं ,पिछली पोस्ट की मेहमान और निवेदिता 

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

" १२.३५ की शताब्दी से अगले दिन २३.१५ की कैफ़ियात तक ......"



दिनांक : २६.०८.२०१२ , ट्रेन : स्वर्ण शताब्दी , कोच नंबर-सी ५
ठीक १२.३५ पर ट्रेन लखनऊ के प्लेटफार्म नंबर -१ पर ठहरती है | मै एक ऐसे शख्स को रिसीव करने आया था ,जिनसे पिछले दो वर्षों से ब्लॉग और फेसबुक की आभासी दुनिया में बातचीत तो होती रही, परन्तु सच में एक दूसरे से शत-प्रतिशत अनजान | मेहमान विदेशी था ,सो संकोच भी मेरा अपने चरम पर था | कैसा होगा , क्या पसंद हो , क्या नापसंद हो | जन्मदिन पर मेरे उनका फोन आ गया था और तब उन्होंने बताया था कि एक कार्यक्रम के सिलसिले में उन्हें बतौर मुख्य अतिथि मेरे शहर में आना है सो मेरे लिए कहीं रहने की व्यवस्था किसी होटल में मैं करा दूँ | तभी मैंने कह दिया था कि मेरे रहते होटल में रुकने का प्रश्न ही नहीं उठता | यह बात मैंने कैसे और किस अधिकार से कह दी थी यह आज तक समझ में नहीं आया | खैर उन्होंने फोन पर ही कहा ,नहीं मै आपके यहाँ ही आऊँगी । आप  खिलाना ,पिलाना , शहर घुमाना पर ठहरेंगे किसी होटल में ही | यह बात पहली अगस्त की है ,जब जन्मदिन पर बात हुई थी | मैंने एक विदेश में रहने वाली  महिला को अपने यहाँ आने का निमंत्रण तो दे दिया था परन्तु थोड़ा मैं असहज भी महसूस कर रहा था कि उनकी व्यवस्था में कहीं कोई कमी न रह जाए | 

डरते डरते यह बात मैंने अपनी पत्नी को बताई कि मैंने तुमसे बगैर पूछे एक निमंत्रण दे दिया है | बिना असहज हुए ही वे तुरंत हामी की मुद्रा में आ गई | अब अगला प्रस्ताव पत्नी के सामने मैंने यह रखा कि चूंकि आमंत्रित मेहमान एक महिला है अतः बेहतर होगा कि उन्हें रिसीव करने स्टेशन तुम भी चलो | इस पर उन्होंने कहा कि सोच तो मै भी यही रही थी पर चाहती थी आप कहें तो चलने को | 

ट्रेन के ठहरने से पहले ही मै कोच नंबर सी-५ के सामने अपने को स्थापित कर चुका था | ब्लॉग और फेसबुक पर उनके चित्र देखते देखते उनका चेहरा लगभग परिचित सा हो चुका था | अतः उन्हें देखते ही मैंने बरबस अपना दायाँ हाथ ऊपर उठा दिया | अब तक शायद वह भी पहचान चुकी थीं और मेरे साथ मेरी पत्नी को देख उम्मीद से अधिक आश्वस्त भी लग रही थी | उनके साथ उनका एक छोटा सा सूटकेस पहियों वाला था , जिसे मैंने अपने हाथ में शिष्टाचारवश लेना चाहा पर उन्होंने मना कर दिया और मैं भी  अधिक जोर नहीं दे पाया क्योंकि मैं अपना सामान तो कभी स्वयं उठाता नहीं और पत्नी के सामने यह परोपकार करने की जहमत नहीं उठा सकता था क्योंकि भविष्य में इस बात को 'कोट' किये जाने की पूरी  संभावना रहती | खैर प्लेटफार्म से बाहर निकल कर मै उन्हें अपनी कार से अपने घर ले आया | कार में यदि तीन लोगों को बैठना हो तब समस्या यह होती है कि अगर दो लोग पीछे बैठ जाएँ तो चलाने वाला ड्राइवर समान लगने लगता है और अगर मेहमान को पीछे बिठा कर पति-पत्नी आगे बैठ जाए तब मेहमान neglected फील करता है | यहाँ पुनः मेरी पत्नी अपने विवेक का परिचय देते हुए और मेरी समस्या को हल करते हुए स्वयं तो पीछे बैठ गई और मेहमान को आगे बिठा दिया और दलील यह दी कि आप बाहर विदेश से आये हो आपको बाहर का दृश्य देखना समझना अच्छा लगेगा जो आगे की सीट से  बेहतर संभव होगा |

घर पहुँच कर बहुत जल्दी ही हम सब सामान्य से हो गए और ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हम लोग आपस में पूर्व परिचित हों | कारण क्या था इसका, आज तक अज्ञात है | चाय वगैरह और उसके बाद भोजन के बाद उन्होंने शहर से कुछ मशहूर चिकन के कपडे खरीदने की इच्छा व्यक्त की | अब तक तो मैं अपने को 'जिन' समझने लगा था कि कोशिश करूँ कि जो कुछ भी वह कहे मैं कर दूं | इसी क्रम में हम लोग हजरतगंज गए परन्तु रविवार होने के कारण अधिकतर दुकाने बंद थीं फिर भी जनपथ में २/३ दुकाने खुली थी | उन्होंने कुछ कुर्ते वगरह वहां से लिए ,इसी बीच मेरी जानकारी में आया कि थोड़ी दूर पर एक बेहतर दुकान और है जिसके यहाँ सामान तो अच्छा है ही, थोड़ा मेरा पूर्व परिचय भी था वहां | परन्तु एक समस्या यह थी कि इसी बीच मैंने अपनी कार थोड़ी दूर पर पार्किंग में लगा दी थी | तब तक  बारिश भी आ गई |हम तीनो लोग दो रिक्शे  पर बैठ कर बौछारों का आनंद लेते हुए अगली दुकान पर पहुंचे | वहां दुकानदार ने मेरे पूर्व परिचय का सम्मान करते हुए हम लोगों को 'काफी' पिलाई और उन्होंने जी भर के वहां खरीददारी भी की | वहां से फिर हम लोग रिक्शे से ही हल्की हल्की बारिश में वापस कार पार्किंग में आये | इस तरह मैंने उनको एक चार्टर्ड रिक्शे में भी घुमा दिया | वहां से हम लोग शहर का मशहूर इमामबाडा देखने गए जहां तस्वीरें भी उतारी गई | लखनऊ की गोमती पर सबसे पुराना बना पुल जो 'लाल पुल' के नाम से जाना जाता है उसे भी देखा  | अब तक हम लोग थक भी चुके थे सो घर वापस चल दिए | बारिश लगातार हो रही थी ऐसे में मैंने ताजे भुने भुट्टे खाने का प्रस्ताव रखा जिसे ध्वनि मत से पारित कर दिया गया | भुट्टे खाते खाते हम लोग घर पहुँच गए | वहां बारिश में ही कार से उतरने में उनका मोबाइल नीचे पानी में गिर गया | जो काफी मशक्कत के बाद ढूंढने से मिला पर उसका मिलना न मिलना अब बेमानी ही था क्योंकि अब वह अन्दर तक पसीज गया था और उसकी बोलती बंद हो चुकी थी | अपने वतन से दूर अगर किसी का मोबाइल बिगड़ जाए तो इससे भयावह स्थिति और कोई नहीं हो सकती | तत्काल मौके के मिजाज़ को समझते हुए मैंने अपना एक पुराना मोबाइल ढूंढ़ कर उनका 'सिम' उसमें  डाल कर उसे चालू कर दिया | उनका फोन इस दरमियाँ लगभग आधे घंटे ही बंद रहा होगा पर तब तक उस पर बीसियों काल आ चुकी थीं | 

मेरे घर के पास ही काफी शाप पर उन्हें किसी डाक्टर दंपत्ति के बुलावे पर भी जाना था | उनका सिम जिस मोबाइल में डाला गया वह मोबाइल पूर्णतया डिस्चार्ज था | अतः वे काफी शाप बिना मोबाइल लिए ही चली गई | अब स्थिति बदल चुकी थी | एक अपरिचित विदेशी मेहमान अब मेरी जिम्मेदारी था | उन्हें काफी शाप से लौटने में थोड़ा विलम्ब हुआ और उनसे संपर्क का कोई जरिया भी नहीं था , वह डाक्टर भी हमारे लिए अनजान था | हम लोग उस क्षण थोड़ा चिंतित भी हो गए थे और मैं पुनः उन्हें देखने जाने वाला ही था कि बेल बज उठी थी और हम लोगों ने चैन की सांस ली | बातचीत के दौरान अब तक वह हमारे घर में ही रुकने को सहमत हो गई थी और इस बात से उन्होंने अपने परिवार को अवगत भी करा दिया था | फिर भी घर वाले तो सशंकित रहते ही हैं कि जिसे कभी देखा नहीं कभी जाना नहीं उसके यहाँ रात्र-निवास का क्या मतलब | 

आभासी दुनिया के कुछ अन्य मित्र भी मेरे निमंत्रण पर मेरे घर आ गए और डिनर हम लोगों ने साथ ही एक पास के होटल में लिया | उस रात काफी देर तक हमारे घर में ठहाके गूंजते रहे थे |

अगले दिन सुबह उठकर बस नाश्ता वगैरह कर हम लोग कार्यक्रम स्थल पहुँच गए थे | चूँकि मेरे यहाँ ठहरने वाला मेहमान ही उस कार्यक्रम का मुख्य आकर्षण था सो लोग मुझे अत्यंत आश्चर्य मिश्रित  भाव से देख रहे थे | सारे दिन कार्यक्रम चलता रहा , वह पुरस्कार पे पुरस्कार बटोरती रहीं और शाम ७ बजे तक हम लोग वापस घर आ गए थे | इसी रात की ट्रेन से उनकी वापसी भी थी | मैं तो भागादौड़ी में उनसे बिलकुल भी बात नहीं कर पाया | हाँ ! इच्छा तो थी कि वह थोड़ा और ठहरती परन्तु सारे कार्यक्रम पूर्व निर्धारित थे जिसमे परिवर्तन संभव नहीं था | इस बीच उनकी दोस्ती मेरी पत्नी से इस कदर हो गई कि, आईं थी मेरी मेहमान बनकर और लौट रही थी उनकी दोस्त बन कर | 

उनकी ट्रेन कैफ़ियात एक्सप्रेस थी जो रात के २३.१५ बजे छूटती है | मैं उन्हें छोड़ने स्टेशन गया और लखनऊ जंक्शन के प्लेटफार्म नम्बर १ पर ट्रेन के विवरण की प्रतीक्षा कर रहा था | तभी अकस्मात पता चला कि वह ट्रेन तो छोटी लाइन (एन. ई. आर.) के स्टेशन से छूटती है | ( छोटी लाइन तो बड़ी लाइन में परिवर्तित हो चुकी है परन्तु अभी भी उसे छोटी लाइन का ही स्टेशन कहा जाता है ) भागते भागते हम लोग छोटी लाइन के स्टेशन पहुंचे | वहां पहुँचते ही बत्ती गुल हो गई | उसी अँधेरे में जानकारी हुई कि ट्रेन तो आ चुकी है और प्लेटफार्म नंबर २ पर खड़ी है | छोटी लाइन पर ट्रेन बहुत आगे खड़ी होती है और ए. सी. का डिब्बा एकदम आगे होता है | तेजी से भागते हुए ट्रेन के डिब्बे तक पहुंचे | वहां डिब्बे पर चार्ट नहीं लगा था | जल्दीबाजी में उन्होंने टिकट देखा और अपनी उम्र की संख्या को सीट नंबर समझ उसी पर जम गईं | तब तक एक सज्जन आये और ध्यान से टिकट देखकर उन्होंने हम दोनों ही का भ्रम दूर कर दिया | इतनी देर में अब केवल ५/७ मिनट रह गए थे ट्रेन छूटने में | जल्दी जल्दी मैंने दूसरे कोच में कंडक्टर को ढूंढा पर वह होता तब तो मिलता | मैंने कहा अब आप कहीं भी बैठिये मैं कुछ करता हूँ | तब तक उन्होंने स्वयं ही देखा कि टिकट में सीट नंबर अंकित था जो उन्हें ही आबंटित थी | फिर उसी सीट पर उन्हें बिठा कर एक बोतल ठंडा पानी देकर बस उतर ही रहा था और ट्रेन चल दी थी | इस आपाधापी  में उन्हें विदा करते समय ठीक से न कुछ कह पाया, न देख पाया |

और कैफ़ियात एक्सप्रेस चली गई ,पर बहुत सारी स्मृतियाँ दे गईं | 
दिनांक २७.८.२०१२ ,समय २३.१५ |