मंगलवार, 23 अगस्त 2011

"दूरियाँ वक्त की"

हम,
लम्हों को लम्हों में, 
गूँथते रहें,
और,
अपना आशियाना, 
उन्हीं के इर्द गिर्द, 
बुनते रहे |
मगर वो थे कि,
हमारी साँसों का,
हिसाब करते रहे |
(ये शायद इंतिहा थी उनकी चाहत की), 
हम साथ चलते तो रहे,
पर दूरियां बढ़ती रहीं,
कदम तो थे दोनों के,
नपे तुले मगर,
रास्ते ही अक्सर, 
जुदा होते रहे |
अब दूरियां,
इतनी भी नहीं, 
कि,ना मिट सके | 
मगर,
दरमियाँ खड़ी है,
एक प्राचीर वक्त की,
और शायद,
यह सच है कि,
भेद पाना इसे,
अब आसान नहीं |
हाँ ! अगर कुछ, 
कडवे  लम्हे, 
खींच लिए जाये, 
वक्त की इस प्राचीर से,
तब मुमकिन है,
ढह जाए दीवार,
बीच की |
पर,
इसके लिए भी,
पकड़ना होगा,
ईंट उन लम्हों की,
दोनों सिरों  से |
काश !!!!!!!!!

शनिवार, 6 अगस्त 2011

"आहट".....आँसुओं की...

मेरा बावरा मन,
बिना पूछे ,
अक्सर, 
मुझसे, 
निमंत्रण देता, 
रहता है,
मेरे ही आंसुओं को,
वह भी, 
मेरी ही आँखों में, 
कितना समझाया, 
घर छोटा है, 
ज्यादा मेहमान, 
ना बुलाया करो,
अभी पिछली बार की,
ही तो बात है,
याद में, 
उनकी, 
आये आंसू, 
अभी भी, 
वहीँ ठहरे हुए हैं,
अब,
नई कतार,
कहाँ बिठाऊँ,  
बार बार,
यूँ बुलाते हो, 
मेहमान को, 
कहीं ऐसा ना हो, 
जगह ना पायें वे,
और, 
आना ही छोड़ दें, 
और फिर,
तुम तरस, 
जाओ,
मेहमान नवाजी को, 
आँखें भी सूख जाएँ, 
ताउम्र के लिए, 
पर मन तो गुम सा है,
उनकी ही याद में, 
ये क्या,
मै,
फिर सुन रहा हूँ, 
आहट......आंसुओं की, 
चलो फिर बुहार ही लूँ, 
पलकों से आँखों को, 
और स्वागत करूँ, 
आंसुओं का |  

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

"अर्धांगिनी" से "पूर्णांगिनी" तक.....

                 आज सवेरे सवेरे आइने में खुद को जरा निहार रहा था गौर से ,तो मुझे मेरे ही अंग कुछ अजनबी से लगे । लगा जैसे वे मेरी अनसुनी ,अनदेखी कर रहे हों । मेरी ही आँखें ,जो मै देखना चाहता हूँ,वह नही देखती,मेरी उंगलियाँ जिसे स्पर्श करना चाहती हैं ,उन्हें नही छू पाती । पग जिधर डग भरना चाहते हैं ,उधर बढ़ ही नही पाते ।मुझे लगने लगा जैसे मै अपने ही घर में मकान मालिक की जगह किरायेदार की औकात में आ गया हूँ । एक दार्शनिक चिंतन की तरह मै इस पर अभी विचार कर ही रहा था कि ’निवेदिता’ की आवाज़ आई ,कॉलबेल बज रही है ,देख  लीजिये शायद दूध वाला हो ,ले लीजिये । यह क्या,तुरंत ही मेरे पाँव चल दिये ,बाहर की ओर ,गेट खोलने को । जो पैर, मेरा लाख कहा नही मानते ,तुरंत ही मेरी श्रीमती जी की आवाज़ पर दौड़ पड़े । दूध लेने के पश्चात मैं बैठ गया टी.वी. देखने ,अभी न्यूज़ चैनल लगाया ही था कि वे बोलीं , कलर्स लगाइये,बालिका वधू आ रहा होगा,तुरंत ही मेरी उंगलियों ने बिना मेरी बात सुने रिमोट उठाया और चैनल बदल दिया ।
                  मैं वहाँ से उठ कर कम्प्यूटर पे आ गया ,ब्लॉगिंग करने,अभी लॉग इन किया ही था कि पुनः वे आ गईं और बोली, पहले मेरा ब्लॉग देखिये ,आज चर्चा मंच पर लगा है । तुरंत ही मेरे हाथ चले और उनका पासवर्ड डाल उन्हीं का ब्लॉग खुल गया । मै अब तक सवेरे से असमंजस में ही था कि यह हो क्या रहा है ?
                  मै अपने ही शरीर में अपने अंगों को अब उनका समझ रहा था । पर अब होश आने से भी क्या लाभ । अब तो बहुत देर हो चुकी थी । मेरी अर्धांगिनी अब मेरी पूर्णांगिनी बन चुकी थीं । मैने प्रारम्भ मे अपने आधे शरीर पर ही उनको कब्जा दिया था, तभी वे अर्धांगिनी कहलाई थीं ,पर धीरे धीरे वे तो पूरे मकान पे काबिज हो गईं और मैं ही अपने मकान में किरायेदार हो गया ।
                 अब वो पूर्णांगिनी हैं,और मैं उनका अर्धांगना नहीं अंशागना हूँ।