शनिवार, 31 दिसंबर 2011

" ३१.१२.२०११ " ..........वर्ष २०११ की १००वी पोस्ट...


                                              
                                               " वक्त तुमसे शिकायत है "
लम्हा लम्हा,
कतरा कतरा,
तुम बीतते रहे,
मुस्कुराते रहे,
भिंची मुट्ठी से, 
तुम सरकते रहे,
रोकने की कोशिश,
बहुत की मगर,
तुम गुजरते रहे,
पर कभी, 
ठहरे नहीं,
हाँ !जब कभी,
मायूस हुआ मै,
पता नहीं, 
क्यूँ तुम ठहर सा गए,
यही तुमसे शिकवा है,
यही तुमसे शिकायत है |
अगले बरस, 
ऐसा क्यूँ न हो,
तुम्हारे (वक्त) कैनवस पे,
जब सुकून के लम्हे,
अपनी स्याही उड़ेले,
उन्हें दूर तक फैलने देना,
और मायूस मुकामों, 
और गमो की स्याह,
स्याही वहीं सोख लेना |
तुम्हारे हमल में,
क्या है,
तुम जानो,
मुझे बस,
मेरे अपनों की,
ख़ुशी देना, 
हां! तुमसे एक, 
वादा जरूर है,
गर तुमने वक्त दिया,
तो फिर मुलाक़ात होगी |


                                                "नववर्ष की शुभकामनाएं "

               

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

"माना कि मूल धन 'क' है"

      
            गणित के पाठ्यक्रम में प्रारम्भिक कक्षाओं में अज्ञात राशि की गणना करने में बहुधा पहले अज्ञात राशि को मान लेते है कि वह 'क' है | तत्पश्चात उस काल्पनिक राशि के अन्य विवरण अनुसार उसकी व्याख्या एवं वर्णन करते करते उस मूल 'क' की राशि की भी गणना कर लेते है | यही बीजगणित कहलाता है |
            सिद्धांत केवल इतना  सा है कि अज्ञात राशि को ,(चाहे वह धन हो, आकार प्रकार हो,आयतन क्षेत्रफल हो) ,प्रारम्भ में एक इच्छित राशि 'क' का रूप दे दे ,फिर सारे गुण दोष अनुसार उसकी व्याख्या करते जाए ,आप स्वयं ही उस अज्ञात राशि को पूर्णतया जान लेंगे |
             यह तो हुई गणित की बात ,यही सिद्धांत ईश्वर की सत्ता को समझने में भी लागू होता है | ईश्वर अज्ञात राशि के समान है | उसको कोई निश्चित राशि,मात्रा ,आकार ,प्रकार देना संभव नहीं है | परन्तु उसके विषय में अनेक कल्पनाये ,कहानियाँ प्रचलित है | ईश्वर को जानने के लिए  केवल प्रारम्भ में आप बस मान ले कि हाँ ईश्वर है ,फिर उसके बनाए साम्राज्य को धीरे धीरे देखने और समझने का प्रयत्न करे ,यथा तितली में रंग कहाँ से आये ,सूरज रोज़ निकलने में देरी क्यों नहीं करता ,चींटी में दिल,दिमाग,किडनी,लीवर ,हाथ पैर किसने बनाए ,चिड़ियों को रास्ता कौन याद कराता है  और न जाने क्या क्या |  
             बस इन्ही सारी बातों को सोचते जाए ,अंत में वह प्रारम्भिक अज्ञात राशि 'क' का अनुमान क्या एकदम सही मूल्य आपको ज्ञात हो जाएगा और आप ईश्वर को पा पायेंगे | आवश्यकता केवल प्रारम्भ में बस इतना कहने की  है कि माना कि ईश्वर है !!!

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

" लड़की हूँ न "


रंग भाते है मुझे,
लड़की हूँ न,
भाते तो परिंदे भी है,
लड़की हूँ  न,
मन तो पतंग है,
पर ढील नहीं दे पाती,
लड़की हूँ न,
पापा की दुलारी हूँ ,
पर खेल न सकूँ लड़कों संग,
लड़की हूँ न,
इतराना इठलाना चाहूँ,
हँसना चिल्लाना चाहूँ,
पर नहीं ,लड़की हूँ न,
रिक्शा ,ऑटो,बस,स्कूल,
टीचर,प्रिंसी,कोच,कैप्टन,
सारे सब तो आँख गडाए,
सब से बस आँख चुराऊं,
लड़की हूँ न,
आई.आई.टी./आई.आई.एम. ,
सब किया,
पर लिंग पराजय कहाँ छुपाऊं,
लड़की हूँ न,
जीवन तो धारण करती मै ही ,
सृष्टि अधूरी मेरे बिन,
कब समझोगे प्रियतम तुम,
पर कैसे समझाऊं तुम्हे,
लड़की हूँ न |

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

"सूखे दरख़्त "

सूख चुके रिश्तों में,
शायद,
आँखों की नमी भी ना रही |
फासले दरमियां,
कुछ यूँ हुए,
कि संग रह के भी संगदिल हुए |
दूरियां क्या इतनी,
कि तय हो ना सके |
अरे !
सूखे दरख़्त हो,
या हो रिश्ते
शादाब हो भी सकते है !
बस नज़र भर,
देखने वाली हो नज़रें
और हो,
उन नज़रों में पानी |

रविवार, 18 दिसंबर 2011

"लेन्ज़ का नियम और मनुष्य"

              "लेन्ज़ का नियम कहता है कि चुम्बकीय फ़्लक्स में परिवर्तन होने पर उत्पन्न ई.एम.एफ़.से प्रवाहित धारा की दिशा इस प्रकार क़ी होती है कि उससे उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र उस कारण का ही विरोध करता है ,जिससे वह उत्पन्न हुआ है ।"
              संक्षेप में अथवा सरल भाषा में कह सकते है कि उत्पाद उत्पत्ति के कारण का ही विरोध करता है ।अब इस नियम को मनुष्य जीवन के परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश करते हैं | प्रत्येक मनुष्य के मन में सतत विचार धाराओं का प्रवाह होता रहता है | जब वह अन्य किसी व्यक्ति के संपर्क में आता है तब उसकी विचारधारा उसके स्वयं के विचारधारा से यदि भिन्न कला में होती है तब एक नई प्रकार की विचारधारा का जन्म होता है,परन्तु वह नई धारा इस प्रकार का रूप लेने लगती है कि पश्चात में वह नई विचारधारा वाला व्यक्ति मूल व्यक्तियों का ही विरोध करने लगता  है | हाँ ! यदि दोनों व्यक्तियों की विचारधाराएँ एक सी है तब न तो कोई नई विचार धारा जन्म लेती है न कोई विरोधी उत्पन्न होता है |
               समाज में शनै शनै सामान विचारों वाले आपस में मिलकर एक बड़ा समूह अथवा दल बना लेते है ,फिर जब दो विपरीत विचार धाराओं वाले दल आपस में मिलते है पुनः एक नई विचारधारा वाले दल का जन्म होता है ,जो मूल दलों का ही विरोध करने लगता है | इसी प्रकार से नए घटकों का जन्म होता चला जाता है |
               कुछ इसी प्रकार की बात परिवारों में भी देखने को मिलती है | पुत्र द्वारा पिता क़ी नीतियों का विरोध ,या नई पीढी द्वारा पुरानी पीढी के  विरोध (जिसे हम कभी कभी 'जेनेरेशन गैप' भी कहते है ) को भी  इसी नियम से समझा जा सकता है |
               कभी कभी लोग स्वार्थ सिद्धि के लिए भी नई विचार धाराओं को जन्म देते है जो पश्चात में अपने कारक का ही घोर विरोध करता है | आतंक वाद क़ी अनेक घटनाओं और शीर्ष के अनेक नेताओं क़ी ह्त्या को भी इसी नियम से समझा जा सकता है | राजनैतिक दलों में अनेक  नेता स्वयम को शीर्ष पर पहुंचाने वाले नेताओं और दलों का ही विरोध कर डालते है |
                पौराणिक कहानियों में 'भस्मासुर' की कहानी भी लेन्ज के नियम का ही अनुसरण करती है |  इसमें किसी का कोई दोष नहीं है |
                "यह तो लेन्ज का नियम है बस |"

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

"गति ही संतुलन है "

           'पहिया' सीधा खडा करना हो ,बिना सहारे के यह संभव नहीं | तनिक उसे गति दे दो , बिना किसी सहारे के दौड़ता चला जाता है ,एकदम संतुलित रहते हुए ,न बाएं गिरेगा ,न दायें | दो पहिये की साइकिल ,बिना सहारे के नहीं खड़ी होती ,और जब चलती है तब मजे से १५० किलो से अधिक वजन ढ़ोते हुए एकदम संतुलित तरीके से गंतव्य की और दौड़ लेती है |
            'मौत का कुआं' खेल में कार सवार और मोटर साईकिल सवार एकदम खडी दीवार पर  अपना वाहन चलाते हैं ,उस समय गति कम हो जाए या शून्य हो जाए तब गति से सीधे सदगति को ही प्राप्त होने की संभावना बनती दिखती है | विमान में गति है तभी विमान में संतुलन है | वायु में गति है तभी पतंग में संतुलन है |  जो गतिमान है वो संतुलित है | खगोलीय पिंड सभी गतिमान है ,तभी सदियों से संतुलित है |
            मनुष्य जीवन में जिसका मस्तिष्क गतिशील है ,चिंतन मंथन करता रहता है वही विवेकशील होता है और अपने विचारों में संतुलित होता है |
            साँसे जब तक गतिमान है तभी तक जीवन और मृत्यु के बीच संतुलन  बना रहता है | साँसे रुकी ,संतुलन टूटा और मृत्यु का पलड़ा भारी हो जाता है |
            "अतः गति ही जीवन है और संतुलन भी |"    

   (यह चित्र मेरे छोटे बेटे अभिषेक की और उसके दोस्तों की साइकिलों के हैं जो  आई आई टी कानपुर से बिठूर पिकनिक मनाने गए  थे )  

रविवार, 11 दिसंबर 2011

"बिखरी बिखरी सी ..."


बिखरी बिखरी सी तुम,
बिखरी बिखरी सी,
जिंदगी मेरी,
कभी बैठो न पास,
और समेटो खुद को,
सिमट जाये,
मेरी भी जिंदगी,
या फिर,
बिखर ही जाओ,
कुछ यूँ
जिंदगी में मेरी,
जैसे
बिखरती है
धूप ओस की बूँदों पे
तनिक दमके
बूँदों की तरह,
और फिर,
बिखर  ही जाए,
जिंदगी मेरी |


गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

"यूँ दबे पाँव"


कब तक चलूं,
यूँ  दबे पाँव,
कि आवाज़ न हो,
तुम्हारी पलकों की आहट,
पाने को बेचैन,
अपनी आवाज़ गुम कर,
बस रहता हूँ गुम, 
सन्नाटे के शोर में,
साँसे भी मेरी चलती हैं अब,
दबे पाँव कि,
कहीं तुम्हारी पलकें,
उठें मेरी ओर,
आहट हो नज़रों की,
और मै चूक न जाऊं,
निभाते निभाते रिश्ते,
दबे पाँव,
थक गया हूँ मै,
दबे पाँव चलना,
ज्यादा मुश्किल,
होता है शायद,
यूं लगता है अब,
ज़िन्दगी भी मेरी, 
चलती है दबे पांव,
कहीं मौत ,
न जाग जाए | 

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

"ऊ ला ला ......."

        
         खाना खाते वक्त हमेशा की तरह मै चुपचाप खाना खा रहा था | मेरी एक बहुत बुरी आदत है कि मै कभी पत्नी के हाथों बनाए किसी व्यंजन में गुण दोष नहीं देखता ,बस एक ईमानदार सरकारी मुलाजिम की तरह सर नीचे किये पूरा परोसा हुआ खाना उदरस्थ कर लेता हूँ | परन्तु ये है कि मानती नहीं ,अक्सर पूछ लेती है कि ,क्यों कैसा बनाया है हमने ? मन ही मन सोचता हूँ ,बनाया तो तुमने खूब है मुझे ,और रोज ही बनाए जा रही हो ,पर चेहरे पर अभूतपूर्व प्रसन्नता लाते हुए कहता हूँ ,वाह तुम्हारा जवाब नही | (यही प्रतिक्रिया मेरी तब होगी ,जब कभी खुदा मुझे मिलेंगे और मेरी पत्नी के बारे में मेरी राय पूछेंगे ) | इसी परंपरा के निर्वहन के तहत आज खाना खाते वक्त इन्होने पूछ लिया ( सरप्राइज टेस्ट की तरह  ) कि कोफ्ते कैसे बने है ? मेरे मुंह से निकला " ऊ ला ला " | वे दौड़ती हुई गई और जल्दी से मुझे पानी लाकर देने लगीं | मैंने कहा ,क्या हो गया ,मैंने पानी तो नहीं माँगा | वे बोली ,आप ही तो मिर्ची लगने के कारण ऊ ऊ कर रहे थे और पानी के लिए ला ला कर रहे थे | मैंने कहा ,धन्य हो भागवान ,अरे मेरा ऊ ला ला कहने का अर्थ था कि कोफ्ते एकदम मस्त बने है ,विद्या बालन की तरह एकदम ऊ ला ला | वे बोली ,आपका दिमाग खराब हो गया है | जबसे ऊ ला ला देख कर आये हैं ,आप डर्टी माइंड वाले हो गये हैं, अब आपको सारी मोटी मोटी लडकियां और औरतें ही भाने लगीं है | पहले मेरा वज़न ज्यादा था ,तो जिम ज्वाइन करा दिया कि दुबली हो जाओ ,अब जब वजन कम हो गया तो "ऊ ला ला " चाहिए |
       मैंने कहा क्या करूँ, पहले करीना का जीरो साइज़ आया ,तब "स्किनी" का फैशन हो गया था | जीरो साइज़ तो इतना हिट हुआ था कि ,मै सब्जी भी जब लाता था ,तो भिन्डियाँ एकदम पतली पतली ,लौकी ,गाजर ,ककड़ी ,खीरे सब एकदम पतले छरहरे ही लाता था  | बस सब्जी वाले से एक ही बात बोलता था ,सब जीरो साइज़ का माल देना ,रेट चाहे जो लगाओ |
       पर अब ऊ ला ला में विद्या बालन को देखने के बाद वज़न से प्यार हो गया है |
       अभी अभी वे एक कप काफी का रख गई हैं ,उसमे झाग ऊपर तक उठा हुआ है ,मुझे तो वह झाग भी फूला हुआ एकदम मस्त ऊ ला ला लग रहा है | पीछे से उन्ही की आवाज़ आ  रही है, पीने के बाद जाकर पहले दूध ले आइये ,तब ला ला करिए ,नहीं शाम को चाय ,काफी कुछ भी की  ला ला का जवाब नहीं दे पाऊँगी | मैं भी तुरंत अपनी पर्सनल विद्या बालन की बात आज्ञाकारी नसीरुद्दीन की तरह मानते हुये दूध लाने जा रहा हूँ,और मन ही मन सोच रहा हूँ आज अभी लौट कर उनसे कहूँगा  ,कभी  बुम्बाट लग कर दिखाओ ना !!!!    

रविवार, 4 दिसंबर 2011

"संचय" कितना और कहाँ तक ?

        
           एक राजा बहुत ऐशोआराम से राज कर रहा था | उसके राज में धन दौलत की कोई कमी नहीं थी | राजा बहुत संचयी प्रवृति का था | उसने अपार धन, दौलत, सम्पदा एकत्र कर रखी थी |
           एक दिन बातचीत के दौरान उसने अपने कोष रक्षक से पूछा कि ,यह बताओ ,हमारे पास जितनी दौलत है, उससे कब तक का काम चल जाएगा ,हम कब तक के लिए निश्चिन्त समझे, अपने आप को | कोष रक्षक ने सोच विचार के बाद बताया कि, महाराज ,जितनी दौलत खजाने में है ,उससे आपकी सात पीढ़ियों तक की चिंता करने की आवश्यकता आपको  नहीं है ,बहुत आराम और मजे से सात पीढ़ियों तक के लोग गुजर बसर कर लेंगे | हाँ ! मगर आठवीं पीढ़ी के लोगों को कमी महसूस हो सकती है | यह सुन  राजा चिंता में पड़ गया | उसने अपने सलाहकारों को बुला मंत्रणा की और सलाह मांगी की, क्या किया जाए ? सलाहकारों ने राय दी कि ,इस विषय के लिए एक महान पंडित हैं ,उन्हें ही बुलाना पड़ेगा ,वे ही कुछ उपाय बता सकते है ,वे बहुत सिद्ध पंडित थे |
          आनन फानन में राजदूत को पंडित को बुलाने के लिए भेज दिया गया | ऐसा लग रहा था ,मानो देश पर कोई घोर संकट आन पड़ा है | दूत ने पंडित के घर जाकर सन्देश दिया कि राजा ने तुम्हे बुलाया है ,तुरंत चलना होगा | पंडित ने पूछा ,क्या घोर विपत्ति आन पड़ी, जो राजा ने तुरंत बुलाया है | दूत ने सारा किस्सा सुना दिया कि राजा अपनी आठवीं पीढ़ी के बारे में चिंतित है कि कहीं उस पीढ़ी को धन वैभव की कमी ना हो जाए ,उसी शंका  के उपाय के लिए तुमको तुरंत बुलाया गया है | और इस उपाय के बदले तुमको राजा पुरूस्कार स्वरूप बहुत सारा धन देंगे |
         पंडित ने वहीं से बैठे बैठे अपनी पत्नी को आवाज़ लगाईं और पूछा ,पंडिताइन ,यह बताओ ,अपने पास खाने पीने का इंतजाम कब तक का है ? पंडिताइन ने भीतर से लेटे लेटे बताया कि, स्वामी ,अपने पास आज रात तक के भोजन की व्यवस्था है बस |
         पंडित तनिक मुस्कुराते हुए राजा के दूत से बोला कि, भाई अभी तुम जाओ ,मेरे पास आज तक का इंतजाम तो है खाने पीने का ,कल की कल देखेंगे | राजा से कहना ,मै अभी नहीं आ पाऊंगा | कल सवेरे आऊँगा |
          यह सुनकर दूत वहां से लौट आया और सारा वृतांत राजा को सुना दिया | यह सुनकर राजा स्तब्ध रह गया कि ,धन के लालच में भी पंडित नहीं आया ,और तो और, उसे कल की भी चिंता नहीं है ,और मै अपनी आठवीं पीढ़ी की चिंता में लगा हूँ | बस इतनी छोटी सी बात से राजा का सारा भ्रम दूर हो गया और उसको ज्ञान प्राप्त हो गया | उसने अपने राज की सारी धन दौलत गरीबों में बाँट दी और अत्यंत सादे जीवन में रहते हुए अपने राजधर्म का निर्वाह करने लगा और हाँ ,उस पंडित को अपना राज पुरोहित नियुक्त कर दिया |    
              
              "सोचने को विवश करती कहानी "संचय कितना और कहाँ तक ?"