बुधवार, 28 मई 2014

" हाँ , मैं रोमांटिक हूँ......"


'फेसबुक' पर यूँ ही मैंने एक 'चुनावी स्टेटस' पर एक हलकी फुलकी टिप्पणी वह भी 'स्माइली' के साथ कर दी थी ,जवाब मिला ,यहाँ गंभीर चिंतन होता है और 'romantic poems are not my cup of tea' . मैं सोचने को विवश हुआ कि कहाँ गलती हो गई मुझसे । मेरा कोई अभिप्राय तो वैसा था ही नहीं । पर 'ब्लॉग' और 'फेसबुक' पर की गई प्रस्तुति से लोग एक 'इमेज' बना लेते हैं उस व्यक्ति के बारे में और शायद मेरी कविताएं या स्टेटस और टिप्पणियों से लोगों को लगता होगा कि मैं रोमांटिक शब्द विन्यास और रोमांस में अधिक रूचि रखता हूँ ।

हाँ , यह सच है कि मैं रोमांटिक हूँ और रोमांस करना मेरी फितरत है । बचपन में मुझे पहला रोमांस अंको के संग हुआ । मैं लकड़ी के बने छोटे छोटे अंको के साथ घंटो खेल करता था । बाद में वही रोमांस गणित के प्रति रूचि में परिवर्तित हो गया । ' 8 ' अंक  के 'कर्व' पर तो मैं न जाने कितनी देर अपनी छोटी सी खिलौने वाली कार चलाया करता था । गणित से रोमांस इतना अधिक था कि अन्य कोई विषय पढता ही नहीं था । इस रोमांस की अधिकता के लिए डांट भी बहुत मिली । बाद में ऊंची कक्षा में आते आते यही रोमांस फिजिक्स से हो गया । रोमांस की पराकाष्ठा यह थी कि कभी स्वयं को 'गैलीलियो' समझता था तो कभी 'आइज़क न्यूटन' ।

पूरी तरह युवा होते होते बारिश अच्छी लगने लगी , फिर मिटटी की खुशबू से रोमांस हो गया । नया नया साइकिल चलाना सीखा तो साइकिल से रोमांस हो गया और सपने में भी पैर चलाता रहता था । साइकिल से रोमांस ने तो बहुत चोटें दी हाथ पैरों में पर रोमांस तनिक भी कम न हुआ । ( वैसे रोमांस कोई भी हो चोट अवश्य देता है ) 

इन्ही रोमांस और रोमांटिक मनोभावों के बीच जीवन आगे बढ़ता गया । नौकरी में आया तो यकीन मानिये कि मुझे अपने काम में इतनी रूचि हो गई कि उसके साथ मेरा रोमांस ही चलता आ रहा है आज तक ।

मैं जब कार चलाता हूँ न तब मैं अपनी कार से भी बात करता हूँ । जब पहिये के नीचे ख़राब सड़क आती है तब उसका दर्द मैं अपने सीने में बखूबी महसूस करता हूँ । अपनी कार का मूड मैं भली भांति जानता हूँ और वह भी मेरा खूब साथ देती है और अपनी कार से मेरा रोमांस आज भी जारी है ।

मोबाइल से रोमांस कौन नहीं करता आजकल । बगैर उसके जीना दुश्वार और भूले से कहीं छूट जाए तो कलेजा मुंह को आ जाता है । अंगुलियां तो उसके शरीर को गुदगुदाती ही रहती हैं ।

जहाँ तक बात रोमांटिक कविताओं और स्टेटस की है ,उसका सच तो यह है कि रोमांटिक भावनाओं को कलम में बांधना सरल नहीं होता । बगैर एहसास किये इन्हे जतलाना बहुत मुश्किल होता है । रोमांस का सीधा सा अर्थ है किसी को बहुत शिद्दत और लगन से चाहना और उसका ख्याल भी रखना ,मगर जतलाना हौले हौले ,बदले में वह चाहे न चाहे उसकी मर्जी । दिल में उमड़ते भावनाओ के ज्वार भाटा को शब्द देने में कभी कभी तकलीफ भी बहुत होती है और ऐसी रचनाएं प्रस्तुत करने के लिए साहस और बेबाकी की जरूरत भी होती है ।

जिन्होंने हमारे देश को स्वतंत्रता दिलाई उन वीर पुरुषों को देश से रोमांस था ,जो हँसते हँसते झूल गए फांसी के तख्ते पर । कुछ कुछ वैसा ही रोमांस शायद अब दिख जाए इस नई सरकार का अपने देश से ,बस इसी आशा के साथ .......... । 

शनिवार, 24 मई 2014

" कुछ ख्वाबों / ख्वाहिशों को नाम नहीं दिए जाते ......"


खुद का एहसास होने के लिए कुछ लिखना जरूरी है ,
पर उसके लिए खुद का आसपास होना भी तो जरूरी है ।

खुद को ढूँढा तो पाया आगोश में उनकी ख्वाहिश के ,
अब आगोश इस कदर हो तो तड़पना भी जरूरी है ।

ढुलक जाए लाख आँसू उनकी यादों में ,
पर नाम उनका लूँ तो मुस्कुराना भी जरूरी है ।

मोहब्बत मुझसे वो करें न करें मर्जी उनकी ,
पर मेरी हिचकियों का हिसाब लेना जरूरी है ।

ख़्वाब में है ख्वाहिश या ख्वाहिश उनके ख्वाब की ,
उनसे नज़र एक बार मिलाना भी तो जरूरी है ।

अकेले में वो तबस्सुम लिए फिरते तो हैं होंठों पे ,
इश्क हमी से है उनको तसदीक करना भी तो जरूरी है ।

रविवार, 18 मई 2014

"और गुनाह हो गया......"


एक नज़्म सी तुम ,
गुनगुना गया मैं ,
और गुनाह हो गया ,

गहरी नदी सी तुम ,
बह गया मैं ,
और गुनाह हो गया ,

ठंडी बयार सी तुम ,
मचल गया मैं ,
और गुनाह हो गया ,

सुहानी शाम सी तुम ,
ढल गया मैं ,
और गुनाह हो गया ,

पूरा चाँद सी तुम ,
बहक गया मैं ,
और गुनाह हो गया ,

मासूम तबस्सुम सी तुम ,
अश्क मैं पीता गया ,
और गुनाह हो गया ।

शुक्रवार, 2 मई 2014

" दिल , दिमाग और जिस्म "


'दिल' , 'दिमाग' और 'जिस्म' , इन्ही तीन हिस्सों में किसी व्यक्ति को विभक्त किया जा सकता है । यह तीन हिस्से अपने में परिपूर्ण होने के साथ साथ अपनी अपनी रूचि ,अपनी अपनी प्रवृत्ति और अपनी अपनी आवश्यकताएं लिए होते हैं ।

'दिल' सबसे घुलना मिलना चाहता है । स्नेह करना और पाना चाहता है । यह तर्क नहीं जानता , विमर्श नहीं मानता । 'दिमाग' तर्क करता है ,'क्यों' और 'क्यों नहीं' में उलझा रहता है और इसका समाधान मिलते ही अगली उलझन को निमंत्रण दे डालता है ,यही उसकी प्रवृत्ति है । 'जिस्म' ही चूंकि वह अवयव है व्यक्ति का ,जो दिखाई पड़ता है इसीलिए 'जिस्म' सदा खूबसूरत ,सुदृढ़ और सुन्दर दिखना और बना रहना चाहता है ।

जब व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से मिलता है ,संवाद करता है तब वास्तव में दोनों व्यक्तियों के यही तीनो अंग अलग अलग  आपस में संवाद करते हैं । 'दिल' से 'दिल' बात करता है और 'दिमाग' सामने वाले के 'दिमाग' को टटोल कर उससे बात करने की चेष्टा करता है और दोनों के 'जिस्म' अपनी अपनी जगह पर रहते हुए एक दूसरे की बाह्य ज्यामिति समझने का प्रयास करने में लग जाते हैं ।

कुदरत ने व्यक्ति की ऐसी रचना की है कि इन तीनो अंगों के परस्पर संवाद सामने वाले के साथ बहुत द्रुति गति से स्थापित होते हैं । इस संवाद के दौरान व्यक्ति के अपने तीनो अंगों के भीतर भी सामने वाले व्यक्ति को लेकर जद्दोजेहद चलती रहती है । अगर तीन में से दो अंग सामने वाले के उन दोनो अंगों से प्रभावित हो जाते हैं तब दोनों व्यक्ति आपस में मैत्री स्थापित कर सकते हैं , यह दो अंग कोई भी हो सकते हैं ।

यदि 'दिल' और 'दिमाग' सामने वाले के 'दिल' और 'दिमाग' से प्रभावित होते हैं तब वैचारिक मित्रता अथवा स्नेहपूर्ण मित्रता स्थापित होती है और अगर 'जिस्म' एवं 'दिल' का युग्म सामने वाले के 'जिस्म' एवं 'दिल' को पसंद कर लेता है तब उनमे प्यार और परस्पर शारीरिक मिलान की चाह पनप जाती है । अब यदि 'जिस्म' और 'दिमाग' का युग्म बनता है तब भी प्यार तो पनपता है और जिस्मानी मिलान की इच्छा भी होती है पर दोनों के 'दिमाग' की उपस्थिति से अंकुश लग सकता है ।  

वैवाहिक जीवन की सफलता ,असफलता भी पति और पत्नी के इन्ही तीन अवयवों के परस्पर संवाद की सफलता पर निर्भर करती है । विवाहेत्तर संबन्ध बनाने में भी इन्ही तीनो अंगों का असंतुलन काम करता है । समाज में जब भी कहीं कोई विकृति या विकार देखने को मिलता है ,वह बस इन्ही तीनो के परस्पर सामंजस्य के अभाव में ही होता है । अचम्भे की बात तो यह है कि उम्र की इसमें कोई भूमिका नहीं होती । 

व्यक्ति के इन्ही तीन (अंगों) टांगो पर समाज की मस्तिष्क प्रधान व्यवस्था टिकी हुई है और इन टांगो में से सबसे कमजोर टांग 'जिस्म' ही है और सबसे मजबूत 'दिमाग' । जिस समाज की यह कमजोर टांग टूटती है वह पुनः पाशविक समाज की और झुकने लगता है । इसीलिए समाज के अग्रणी लोगों को जिन्हे लोग रोल मॉडल की तरह देखते हैं उन्हें ऐसे विकारों से अवश्य बचना चाहिए और बचने का एकमात्र तरीका यही है कि जिस्मानी सन्तुलन न बिगड़ने दे ,भले ही 'दिल' और 'जिस्म' कितने प्रलोभन क्यों न देते नज़र आयें