सोमवार, 14 सितंबर 2020

हिन्दी दिवस पर एक प्रेम पत्र।

तुम्हारे स्पर्श में 'स्वर' है और निगाहों में 'व्यंजन'। तुम पास होती हो तो मैं भाषित होता हूँ।

तुमसे ही अलंकृत होते है यह स्वर और यह व्यंजन।रस छंद अलंकार पढ लूँ या तुम्हारा सानिध्य पा लूँ ,एक ही बात है।

अपलक देखती हो जब गद्य रचित हो जाता है और पलकें तितली बनती है जब तब काव्य बह निकलता है।

सोचता हूँ ,मैं शिरोरेखा हो जाऊं और तुम उस पर झूलती एक शीर्षक मेरे जीवन का।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

अलसाई सुबह

 सुस्त सी सुबह

ठहरा सा मौसम


अलसाई चादर

औंधी तकिया


घड़ी की टिक टिक

आंखों में चुभती सुई


अदरक में डूबी चाय

सहमा सिमटा अखबार


मन मौसम मिज़ाज

कुछ यूँ है आज।



मंगलवार, 8 सितंबर 2020

बदलते फ़लक

 बुलबुल रोज़ कहाँ गाती

शजर की नरम छांव मे


वसन्त नही ठहरता

सदा के लिए


फूल खिलने के मौसम

होते है कभी कभी


उल्लास का आलिंगन

यूँ फिर कहाँ


दोस्ती कब ठहरी है

ताउम्र


इतना गर नही जानता

फिर वो ज़िन्दगी कहाँ जानता।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

बालकनी और स्ट्रीट लैंप

 बालकनी अमूमन घर की वो जगह होती है, जो सभी को बहुत पसंद होती है। एक तो बालकनी खुद ही लटक कर आगे टंगी होती है घर के ,ऊपर से उस पर और आगे लटक कर टाइटैनिक के हीरो जैसा मजा लेने का सुख ही अलग होता है।

बालकनी से चारों ओर भरपूर नज़र जाती है। किसी को आते या जाते देखना हो तो दूर तलक आंखे चिपक सा जाती है उस के साथ और न देखना हो तो नज़रंदाज़ करना भी बहुत आसान होता है।

बालकनी का दिल और दायरा भी बहुत बड़ा होता है।जिस भी कमरे या बरामदे के सामने यह बनी होती है वहां उतने ही लोग बड़े मजे से आ जाते है जितने उस कमरे के अंदर आ सकते हैं या कभी कभी उससे भी ज्यादा।

मोहल्ले की बालकनियाँ आपस मे मिलकर इंद्रधनुष सा भी खिला जाती है अक्सर।

घरों के बीच की जमीनी दूरी भले ही ज्यादा हो पर बालकनी के रास्ते होकर यह दूरी लगभग शून्य सी हो जाती है और ऐसा लगता है जैसे बिल्डिंग भी लहरा कर एक दूसरे को आगोश में लेने को तत्पर रहती है।

अब अगर स्ट्रीट लैम्प भी बालकनी के सामने हो तो लगता है जैसे गंगा नदी के घाट पर पांव पसारे बैठे हों नदी में और तैरता हुआ एक जलता दिया वहीं आकर टिक गया हो।

"अलग अलग रोशनी के मायने भी अलग अलग होते हैं

"मोहब्बत के किस्सों में बालकनी वैसे अक्सर आखिर में उदास ही हुई है।"

रविवार, 23 अगस्त 2020

तरंगे मोबाइल की....

 एयरपोर्ट लाउन्ज में बैठा देख रहा हूँ , जिसे देखो वो मोबाइल पर बातें करने में व्यस्त है। किसी के कान तारों से उलझे है तो कोई बैटरी बैंक को पूजा के नारियल की तरह हाथ मे संभाले हुए चलता जा रहा है।

मुझे तो सभी मोबाइल से निकलती बातें पतंगों की डोर की तरह ऊपर हवा में लहराती दिखाई पड़ रही हैं। मोबाइल से निकलती सारी तरंगे, बातों की ,एक दूसरे को काटती हुई, तर ऊपर चढ़ती हुई, आपस मे उलझती हुई आंखों के सामने से गुजर रही हैं।

अभी एक मोबाइल से 'मिस यू' की डोर निकल कर अपने प्रेमिका की ओर जा ही रही थी कि बीच मे करीब से निकली एक दूसरी डोर बॉस को जी सर जी सर कहती गुजरी तो वो मिस यू वाली डोर बीच रास्ते मे टूटते टूटते बची। हल्का सा लोच आया ही था कि संयत प्रेमी ने ठुनका मार कर अपनी डोर फिर प्रेमिका की ओर तान दी। 

इसी बीच प्रणाम भैया कहती एक तीसरी डोर आकर उन दोनों डोर में रक्षा बंधन के धागे की तरह आकर उलझी ही थी कि जी सर जी सर वाली डोर बैटरी के अभाव में कन्ने से कट गई।

सच मे तो पूरा गुच्छा सा है डोरों का ,आपस मे एकदम गुत्थम गुथ्थ, बस किसी तरह ऊपर वाले डोर हौले से अलग कर देख सुन पा रहा हूँ।

अभी एक चमकती तोतली सी डोर एकदम से ऊपर से आई ,उसे देख बाकी सभी डोरों ने उसे रास्ता दे दिया। उस डोर पर तोतले से लफ्ज़ झूल रहे थे जो मम्मा मम्मा बोल भी रहे थे और नाच नाच कर टाटा भी कर रहे थे, उस डोर पर उस तरफ पतंग की तरह उनकी मां बंधी थी शायद और इधर बच्चे की अंगुली थामे उसकी नानी बैठी थी जिनकी पलकें वाइपर की तरह उनकी आंखों के आंसू पोछती जा रही थी।

इन हवाओं में क्या क्या घुल जाता , कितने एहसास, कितने जज्बात और न जाने कितने हालात।

"लफ़्ज़ों को अगर इजाज़त मिल जाये इन हवाओं की कैद से बाहर आने को तो न जाने कितने सैलाब उमड़ पड़ें।"

फिर तो इनकी कैद ही बेहतर , ज़िन्दगी के लिए।

बुधवार, 19 अगस्त 2020

सिगरेट.....

अंगुलियों के गुलेल पर टिकी सिगरेट कश दर कश सिमट कर राख हुई जा रही थी। लंबे से एक कश ने फिर उगलती सांस के साथ एक छल्ला बनाया ,और वह छल्ला लम्हा लम्हा बड़ा होता गया ,इतना बड़ा हुआ कि उस छल्ले के भीतर से सारी दुनिया नज़र आने लगी । फिर वह छल्ला अचानक से सारी दिशाओं में घुल सा गया।

वक्त बीतता नही है, इन्ही दिशाओं में घुलता रहता है।

सिगरेट के छोर पर टिका लाल गोला ,आग का ,जब दमकता है अचानक से ,तो निष्ठुर लोहा भी पिघल कर लावा बन जाता है और बह जाता है आंखों से।

सिगरेट कितनी मासूम होती है ,होंठो पर टिकी रहने की ख्वाहिश में खाक होती जाती है ।

मासूम सा ख्याल फिर आ गया उनका , खाक होने को।

#रातबारहबजे

शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

पन्द्रह अगस्त.....

 जी आई सी वाला पंद्रह अगस्त

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स्कूल कभी बिना यूनिफार्म के गये हों ,ऐसा याद नही पड़ता। दो या तीन ही सेट थे खाकी निकर और सफेद शर्ट के। स्कूल चूंकि जुलाई में ही नये सेशन में खुलते थे तो तभी नई ड्रेस बनने का अवसर होता था परंतु जुलाई में बनी नई ड्रेस कभी जुलाई में नही पहनते थे ,पुरानी से ही काम चला लेते थे और नई ड्रेस को पंद्रह अगस्त पर पहनने के लिये बचाकर रखे रहते थे।

वो चुस्त टेरीकॉट की खाकी निकर और टेरिलीन की सफेद चमकती शर्ट और काली चमकती बेल्ट एक हफ्ते पहले से ही मुआयना कर उसकी दुरुस्ती से इत्मीनान कर मुतमईन हो लेते थे।

जूते तो हर साल नए नही मिलते थे क्योंकि पैरों का साइज ज्यादा जल्दी बदलता नही था। ( साइज की बात करें तो निकर और शर्ट का साइज भी दो तीन क्लास में मेरा एक ही रहता था)  पुराने जूतों की एक रात पहले ही जमकर खुद ही पॉलिश कर चमका लेता था। किसी से सुना था कि पॉलिश के बाद उस पर लहसुन रगड़ने से और ग्लॉसी फिनिश आ जाती है तो वह भी कर देता था, कुछ चमक बढ़ तो जाती थी।

पंद्रह अगस्त की सुबह प्रभात फेरी के लिए स्कूल 6 बजे ही पहुंचना रहता था। कतार में सबसे आगे और हमारी कतार से कुछ आगे हमारे मास्साब पी टी वाले एकदम खिलाड़ी वाली ड्रेस में चलते थे। "उनकी फ़िटनेस मुझे बहुत प्रभावित करती थी।" 

नारे लगाते ,जिंदाबाद बोलते, नेहरू गांधी को अमर करते उस समय जो जज़्बा रहता था कि लगता था बॉर्डर पर भेज देते तो तुरंत सर्जिकल स्ट्राइक कर आते।

प्रभातफेरी में अगर रास्ते मे दूसरे स्कूल के बच्चों की लाइन आती दिख जाती तो जोश और भी बढ़ जाता था और जवाबी कव्वाली वाले अंदाज़ में नारों में गर्मी आ जाती थी।

एन सी सी और स्काउट वाले बच्चों की अलग कतार होती थी और उनमें एक अलग दम्भ भी दिखता था। उनका यह दम्भ भी मुझे बहुत विचलित परंतु आकर्षित करता था। उसी समय से फौजियों और सिविलियन का अंतर मुझे समझ आने लगा था। "अनुशासन ने मुझे हमेशा ही बहुत लुभाया है।"

आधे शहर का चक्कर लगाते हुए स्कूल लौटते थे। मेरा मन करता था कि प्रभातफेरी का रास्ता कुछ यूँ हो जाये कि मेरा घर भी रास्ते मे आ जाये जिससे घर मोहल्ले वालों को भी अपनी नई ड्रेस में अपना जोश सामूहिक रूप से दिखा सकूँ, पर वो कभी हुआ नही। "रास्तों की दिशाओं पर अपना हक कहाँ होता है, तब नहीं पता था।"

फिर प्रिंसिपल सर द्वारा झंडारोहण ,उनका सैलूट करना झंडे को देखते हुए बहुत अच्छा लगता था। हारमोनियम पर राष्ट्र गान जब बजाते थे संगीत वाले मास्साब तो उस दिन संगीत विषय ही सबसे श्रेष्ठ लगता था और विज्ञान, गणित, अंग्रेजी आदि के मास्साब लोग अजीब से अनपढ़ और व्यर्थ लगते थे।

बच्चों के भाषण, कविताएं भी होती थी।  एक बार मैंने भी कविता सुनाई थी क्लास 6 में , खूब रट कर गया था घर से पर वहां  सुनाते समय लाइन्स आपस मे ऊपर नीचे हो गई थीं, लेकिन कोई जान नही पाया होगा क्योंकि ताली तो खूब बजी थी या हो सकता ताली बिना सुने समझे मेरी मासूम शक्ल देख बजा दी होगी ,जैसे यहां कविता लिखता हूँ गलत सही,फिर भी लोग खूब वाह कर ही देते हैं।

फिर स्टाफ रूम में कतार से सब बच्चे  गुजरते थे और एक बड़ी सी मेज पर बड़ी सी ट्रे में रखे बांसी कागज के लिफाफे में बन्द चार मोतीचूर के लड्डू उठा कर आ जाते थे।  उन लड्डुओं में चाशनी और घी खूब होता था क्योंकि हथेलियाँ पूरी गीली हो जाती थी।

वापसी में पूरे रास्ते जगह जगह चूना पड़ी सड़कें और लाउड स्पीकर पर देशभक्ति वाले गाने  गूंजते सुनाई पड़ते थे।

तब एक बात खुसुर पुसुर खूब होती थी कि सुभाष चन्द्र बोस अभी भी जीवित हैं, इस पर बच्चे खूब गढ़ी हुई कहानियां सुनाते थे।


#पंद्रहअगस्त

शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

खलिश ....

नींद का क्या है जब आएगी तब आएगी,
ख्वाब तो उनके तस्व्वुर का पलकों पे है।

जान का क्या है जब जाएगी तब जाएगी,
खयाल तो एक शाम उनका होने का है।

उसूलों की बात जब होगी तब होगी,
रिवाज़ तो अभी मोहब्बत निभाने का है।

नाम उनकी जुबां पे जब होगा तब होगा,
हिचकी मेरे ख़्याल से रुकती तो होगी।

खुदा का ज़िक्र जब होगा तब होगा,
इबादत में बस मुराद उनकी ही होगी।

गुफ़्तगू उनसे जब हो न जाने कब हो,
अभी सिलसिले दरमियां निगाहों के हैं।

तसदीक मोहब्बत की ही होगी जब होगी,
लबों पे किस्से अभी तलक गुनाहों के है।

© अमित

(पिछली पोस्ट को विस्तार देते हुए)

मंगलवार, 14 जुलाई 2020

रसीदी टिकट....



उसकी हरेक धड़कन सुनता गया और उसकी हथेली पर रसीदी टिकट रखकर दस्तख़त कर दिया।

ताकि सनद रहे और वक़्त ज़रूरत काम आए।

जमाना ही अब लेन देन का हो चला है।

बुधवार, 1 जुलाई 2020

मंजिल.....



मकान ऊँचा था ,
इंसान इतराया,
वक्त भी बौना लगा ।

वक्त रीता ,
रीता रेत भी ,
आसमान मुस्कुराया ।

वक्त फिसल गया,
हाथ छूट गया,
इंसान बौना रह गया ।

सीमेंट रेत सरिया,
खुद मजबूत नहीं होते,
वक्त ही निभाता इन्हें ।

वक्त गर मजबूत ,
झोपड़ी को भी हासिल हुनर ,
पनाह का महलों को।

©अमित

सैलाब .....

बारिश
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बादल जब सागर का समर्पण संजोते संजोते थक जाते हैं और हवाएं भी साथ नही देती तो बारिश बन फना हो जाते हैं।

आँसू
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लम्हे जब घूंट घूंट तन्हाई पीते रहते हैं और यादें भी साथ नही देतीं तो आंसू बन घुल जाते हैं।

सैलाब
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जब बारिश और आंसू साथ साथ आ जाये तो सैलाब आता है।

शुक्रवार, 26 जून 2020

एक लघु कथा।

"सिवइयाँ और लीजिये। यह सूखी वाली लीजिये कम मीठी है। दही बड़े दो से कम क्या खाना, मीठी चटनी से लीजिये। नॉनवेज तो आपने छोड़ रखा है ,नही तो कबाब बहुत शानदार बने है खास आपके जायके वाले।"

यह सब कहते हुए खान साहब ने खूब तबियत से अपने दोस्त को ईद के जायके में उतार दिया था।

जब खान साहब के दोस्त चलने को हुए तो खान साहब ने कहा,"भाभी बच्चे नही आये है,उनके लिए सिवइयाँ लेते जाइये। कौन सी गाड़ी है बताइये नीचे भेज कर रखवा दूं।"

उनके दोस्त ने कहा,"नीचे जो गाड़ी खड़ी है पेड़ के पास ,अरे आगे स्वास्तिक बना है, बोनट पर ,लाल सिंदूर से ,वही वाली है। कल ही तो ली है नई गाड़ी ,आज सीधे मंदिर से ही तो आ रहा हूँ, यह स्वास्तिक वहीं पुजारी जी ने बनाया है।"

सिवइयों की सूत से गुंथे है चाँद सितारे और स्वास्तिक आपस में। जितना अलग करोगे इन्हें ,उतना और गुंथा हुआ पाओगे।

#मीठीईद

बेबाक लड़की..."

बेबाक ही तो थी ,
वह दो चोटी वाली ।
रास्ते के पत्थर को ,
खेलती फुटबॉल सा ।
बारिश में दे देती ,
छाता किसी भी ,
अनजान आदमी को ।
बच्चों के झगडे में ,
सरपंच थी वह ।
पापा की अपने ,
दवा थी वह ,
और माँ की तो दुआ ।
उसके होते छत पर ,
लूट न सका ,
कटी पतंग कोई ।
और आज ,
वो खुद ,
एक कटी पतंग ।
थी अब एक ,
वो विधवा ,
कच्ची उम्र की ।

रविवार, 21 जून 2020

भीगा मौसम....

भीगा मौसम है
ज़िक्र तो होगा फिर

सोंधी हो गई मिट्टी अब
इत्र तो महकेगा फिर

ऐसी बारिश का वादा था
ऐसी बारिश में इरादा था

प्यार किया है जब
अक्स तो उभरेगा फिर।

गुरुवार, 21 मई 2020

बड़ा मंगल....

लखनऊ का मिजाज़
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आज ज्येष्ठ माह का प्रथम मंगल है। यूँ तो प्रत्येक मंगलवार को हनुमान जी का दिन होता है, उन्हें स्मरण करने और उनकी कृपा के पात्र बनने के लिए , परन्तु ज्येष्ठ माह के सारे मंगलवार विशेष होते है, ऐसी मान्यता है।

विद्वान लोग, आचार्य, ज्योतिषाचार्य, गणितज्ञ, वेदज्ञ इन समस्त मान्यताओं, ग्रह नक्षत्रों, दिन काल के विषय मे जानते है और उससे हम सभी को अवगत कराते रहते है।

मान्यताएं आस्था का function होती है और आस्था नितांत मौलिक और व्यक्तिगत domain का विषय होता है, उस पर जब तक सामाजिक रूप से किसी दूसरे की स्वतंत्रता में बाधा न हो रही हो तब तक वाद विवाद अथवा तर्क कुतर्क नही करना चाहिए।

धार्मिक विश्लेषण में अगर न भी उलझा जाए तो आज के दिन और पूरे ज्येष्ठ माह में जिस उमंग ,उत्साह ,स्नेह और उदारता से यहां लखनऊ के लोग भंडारा करते है , वो सच मे प्रशंसीय और अनुकरणीय होता है।

पूरे लखनऊ शहर में , क्या गली और क्या मुख्य मार्ग , सभी जगह कदम कदम पे इन भंडारों के दृश्य नजर आ जाते। पूड़ी , कद्दू की सब्जी और नुक्ती यह मुख्य और न्यूनतम व्यंजन है जो खिलाया जाता , इसके अतिरिक्त अब मीठा शर्बत, कोल्ड ड्रिंक और आइस क्रीम भी प्रचलन में आ गया है।

महिलाएं भी इन भंडारों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है और इस भयंकर गर्मी में , पसीने से चुहचुहाते हुए भी चेहरे पर मुस्कान लपेटे दोनों हाथों से खिलाने में मगन दिखाई पड़ती हैं।

टीका टिप्पणी के उद्देश्य से कुछ लोग ऐसे आयोजन को लेकर साफ सफाई की बात, खाना बनाने के तौर तरीके को लेकर, बहुत पास पास भंडारे को लेकर और न जाने क्या क्या आपत्ति करते है और  फिर करेंगे।

ऐसे लोगो के लिए बस इतना कहना है कि जो ऐसे आयोजन करते है , उनके बारे में दो मिनट सोचिए कि वह किसी सफलता से प्रेरित हो या किसी सफलता की कामना में या निस्वार्थ भाव से यह सब करते है। उनके लिए तो हमे कृतज्ञ होना चाहिए कि वे ऐसा कर रहे हैं।

"आप जो आज स्वस्थ सफल और खुश है न , यह जान लीजिये और मान भी लीजिये कि आपके शुभचिंतकों ने , माता पिता ने भी न जाने कितने अवसरों पर आपके भविष्य के लिए कितनी प्रार्थना, मनौतियां और व्रत किये होंगे।"

"बचपन मे गणित में अक्सर माना कि मूलधन क है , यह मान कर गणना प्रारम्भ करते थे और अंत में काल्पनिक क का मान ज्ञात कर लेते थे" बस यही मान लेना ईश्वर को , मान लेना ख़ुदा को, मान लेना किसी अपने को, मान लेना किसी की चाहत को , मान लेना किसी की मोहब्बत को , आखिर में उस माने हुए काल्पनिक तथ्य का मूल्य और अस्तित्व ज्ञात भी करा देता है और सिद्ध भी कर देता है।

......और मनोरथ जो कोई लावै,
       सोई अमित जीवन फल पावै।

#बड़ामंगल

बुधवार, 20 मई 2020

पगडंडी ......

पगडंडियों पर चलने में एक अलग अनुभूति होती है। पगडंडियाँ अपनी राह में आने वाले पेड़ पौधे ,घास फूस, झाड़ी ,नदी नाले ,जंगल  इत्यादि को कभी रौंदती नही बल्कि उन सबके अस्तित्व को बचाते हुए आगे बढ़ती जाती है। पगडंडियों पर कभी भीड़ नही होती , कभी रास्ते रुकते या बन्द नही होते।

पगडंडियाँ तो बस आने जाने से ही अपने आप बन जाती है जबकि सड़के बनाने में विध्वंस भी शामिल होता है।

"दिलों के भीतर भी रास्ते तो बहुत सारे होते हैं , जिन्हें भीड़ रौंदती रहती है पर पगडंडियाँ बहुत कम और वह भी अक्सर अधूरी होती है और जो प्यार में होते हैं वो इन्ही अधूरी पगडंडियों पर चल कर उन्हें पूरा करते हैं।"

वक्त के साथ पगडंडियाँ गुम भी हो जाती है पर मंजिलों को जोड़ने में बनाई गई भव्य सड़कों में इन पगडंडियों की रूहें शामिल रहती हैं।

"एक अधूरी सी पगडंडी पर कभी अकस्मात पांव पड़ गये थे और वह सफर आज भी जारी है।"

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

नश्तर...




BCG
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1980-85 से पहले जन्मे लोगों की बांह का अगर मुआयना किया जाए तो सभी की बांह में ऊपर की ओर तीन निशान (चिलबिल की तरह) ∆ त्रिभुज के तीन कोने की तरह पाये जाएंगे।  यह BCG का जो टीका लगाया जाता था ,उसी का निशान होता है। टीका लगाए जाते समय तो उसके निशान बस तीन बिंदु की शक्ल में करीब करीब होते थे ।पर बाद में आयु बढ़ने के साथ साथ यह आपस मे सोशल डिस्टेन्स बनाते हुए दूर दूर हो जाते हैं। जितनी स्वस्थ बांहे ,उतनी दूर दूर यह निशान पाये जाते हैं।

लड़कियों को इस टीके के निशान के कारण स्लीव लेस ड्रेस पहनने में उलझन होती थी और इसलिये ऐसी ड्रेस पहनना अवॉयड करती थीं। पुरानी फिल्मों की हीरोइन अगर स्लीवलेस पहने हों तो शॉट ऐसे लिए जाते थे कि यह टीके वाली बाँह सामने न दिखाई पड़े।

इस समस्या को ध्यान में रखते हुए अब यह टीके जन्म के तुरंत बाद बच्चों के हिप पर लगाये जाने लगे।

अभी चर्चा चल रही है कि covid 19 से प्रतिरक्षा हेतु यह BCG का टीका दुबारा लगाया जाए।

अब जिसके जहां पहले लगा है ,उसी पर दुबारा यह टीका लगाया जाएगा या सबके ही अब नई प्रचलित जगह पर,राम जाने।

टीका लगने के बाद चलने फिरने में चाल गड़बड़ाई तो लोग समझेंगे कोरोना में बाहर पुलिस वाले से हेलो बोलकर आया है। 😊

एक टीका बचपन मे स्कूल में लगाया जाता था ,चेचक वाला। लाइन में लग कर सब बच्चे आगे बढ़ते रहते थे। यह टीका बाँह पर नही arm पर बीच मे लगाया जाता था। एक लेड पेन ऐसी चीज़ बस स्किन पर रख कर उसे 30 डिग्री घुमा देते थे। कचक से होता था ,दो नन्हे छेद बन जाते थे। किसी किसी का यह टीका लगाए जाने के बाद उठ जाता था। कहते थे उठ गया मतलब अगर उसे टीका न लगता तो चेचक हो ही जाती।

मेरा कभी नही उठा। उस समय उसे नश्तर कहते थे ।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

और हेयर कटिंग हो गई.....

बड़े बालों से हमे हमेशा ऊब रही। अब इधर कोई चारा न था और लंबे बालों में बहुत उलझन हो रही थी। यहां बहुत सारी पति प्रेमी स्त्रियों (दुर्लभ प्रजाति) ने अपने अपने पति की कटिंग कर डालने की बात बताई और कुछ ने सुझाव भी यही दिया।

अब हमारा भी प्रेरित होना लगभग तय ही हो रहा था। आज फिर मन कड़ा करके हमने भी निवेदन कर ही डाला कि प्रिये ,  मेरे बालों को अपने नाजुक हाथों से संवार दो। मैंने साजो सामान के तौर पर अपनी शेविंग किट की छोटी कैंची, उनकी सिलाई मशीन की बड़ी कैंची, उनका कंघा (मेरे पास कंघा नही है, कभी इस्तेमाल नही करता) उन्हें सौंप दिया।

 एक पुरानी चादर  के बीचों बीच एक बड़ा सा गोला काट कर उसमें अपना सिर घुसा कर अपने चारों ओर चादर ओढ़ लिया। अगर हेलमेट लगा लेते तो चन्द्र यात्री ही लगते। खैर।

अब डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर बैठ कर सामने एक आईना रख लिया जिसमे सारी कार्यवाही मुझे दिखती रहे।

इन्होंने मेरे पीछे खड़े होकर कटिंग करना शुरू किया तो मेरा सिर बार बार नीचे झुक जा रहा था। उन्होंने मेरा सिर ऊपर करने के लिये मेरा एक कान अपनी मुट्ठी में यूँ पकड़ लिया जैसे वो कार के गियर शिफ्ट लीवर की मुठिया हो। अब उसी कान को पकड़े पकड़े मेरा सिर हर मनचाही दिशा में घुमाती रही और बड़ी कैंची से कचर कचर बाल काटती रही।

बीच बीच मे यह भी सुनने को मिलता रहा कि हिलाइये नही, कैंची एकदम गर्दन के पास है, आपके सिर में फ़ियास बहुत,आप रोज़ नहाते नही जैसे, बाल में धूल कितनी भरी। इससे ज्यादा सॉफ्ट और साफ बाल तो चेरी (इनकी ससुराल में  बहुत पहले पली एक प्यारी सी पामेरियन )के थे।

जैसे ही मैं आइने में देखने की कोशिश करता कि कैसी कटिंग हो रही ,मेरा सिर ऊपर कर दिया जाता कि अब आखिरी में एक साथ ही देखिएगा।(एकदम आखिरी सुन डर बहुत लग रहा था)

बीच मे मैंने मोबाइल से सेल्फी लेने की कोशिश की तो वार्निंग भी मिलती रही  कि यह सब फेसबुक पर न डालना है न कुछ लिखना है।

सब होने के बाद बोलीं ,उठिए अब ,हो गया।

चौंक कर आंख खोली तो सामने उन्हें खड़ा पाया, बोल रही थीं, उठिए अब खाना लग गया। पक्की  गहरी नींद में थे और डरावना सपना टूट गया।

घबराकर आईना देखा जुल्फें जस की तस लहरा रही हैं। 😊

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

लॉक डाउन के किस्से......

हाउस कीपिंग के कुछ टिप्स
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१.घर की धूल धक्कड़ की सफाई,झाड़ू पोछा को हमेशा हाउस कीपिंग बोलिये। पिज़्ज़ा टाइप फीलिंग आती भले ही आप चिल्ला खा रहे हों।
२.झाड़ू लगाते समय साथ मे हमेशा डस्ट पैन और डस्ट बिन रखिये। छोटे छोटे टुकड़े में झाड़ू लगाइए और तुरन्त कूड़ा उठाकर डस्ट बिन भरते चलिए। ऐसा करने से ढेरों कूड़ा एक साथ बुहारना नही पड़ेगा। सफाई ज्यादा अच्छी होगी और जल्दी होगी। एक कमरे का कूड़ा दूसरे कमरे में दखल नही दे पाएगा।
३.डस्टिंग हमेशा झाड़ू से पहले करिये जिससे डस्टिंग करने में कोई आइटम शो पीस टाइप टूट टाट कर गिर जाए तो झाड़ू बुहारने में उठ जाए।
४. पोछा वाईपर में ही कपड़ा फंसा कर लगाए। खड़े खड़े पोछा लगाना सरल होता है। बैठ कर पोछा लगाने में मोबिलिटी कम होती है।
५. पोछा लगाने में समय उतना ही खर्च कीजिये जितना कामवाली समय लगाती है नही तो सुनने को मिल सकता कि इत्ती जल्दी कैसे हो गया,कोई कमरा छूट गया क्या।
६. पोछा लगाते समय कमरा बन्द रखिये और थोड़ी देर जमीन पर पसर कर आराम कर लीजिए। पोछा लगाने का मन न हो तो खाली फिनायल या लाइज़ोल छिड़क कर पोछ दीजिये। "खुशबू अच्छे अच्छे राज़ दबा देती है।"
७.झाड़ू पोछे के दौरान बीच बीच मे कमर पर हाथ जरूर रखिये थकान दिखाने के उद्देश्य से। पूछने पर दर्द का अभिनय जरूर कीजिये।
८. इस काम मे जोश कभी न दिखाइए न ही कभी तारीफ सुन कर मुदित होइये।
९.बॉस का फोन आये तो बोलिये , होल्ड करिये सर,अभी हाथ मे झाड़ू बाल्टी होल्ड किये है।
१०.झाड़ू पोछे का काम फिजिकल व्यायाम समझ कर करिये। साथ मे म्यूजिक चला लीजिये तो ज़िन्दगी आसान हो जाएगी।

विशेष : बर्तन मांजने का प्रस्ताव या इच्छा जाहिर की जाए उस पक्ष से तो कभी स्वीकार न करें। यह काम सबसे मुश्किल है। इस काम के लिए उनकी तारीफ करते रहिए, कोशिश कीजिये कि बर्तन कम से कम जूठे करें आप, सुखी रहेंगे।

जनहित में जारी।

गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

व्यंग्य.....

आजकल व्यंग लिखने का फैशन है। फैशन कोई भी हो तुरंत कर लेना चाहिए। सूट करे न करे कोई फ़िक्र नही करनी चाहिए। जैसे सेलेब्रिटीज़ रात में भी धूप का चश्मा लगाये रहते हैं ,हमको भी इस फैशन का शौक हुआ। कल चश्मा लगा कर रात एक शादी में गए,वहां कार से उतरते समय सड़क पर कुछ दिख ही नही रहा था ,अचानक नीचे सड़क पर हिफाजत से की गई हाजत पर पांव धंस गया तो थोड़ी देर घास पर और फिर थोड़ा स्वागत में बिछी कालीन पर 'मून वाक' किया तब जाकर आगे बढ़ पाये। इस स्थिति में यही बेस्ट सॉल्युशन होता है।

तो बात व्यंग लिखने की थी। व्यंग तो हो जाता है अपने आप, बस एहसास की जरूरत होती है। सुबह की चाय पीना शुरू ही किया था कि आवाज़ आई, कैसी बनी है । बोला मैंने ,बहुत अच्छी ,एकदम शानदार, आवाज़ में थोड़ा दम ज्यादा दिखा दिया। उधर से आवाज़ आई , अपने आप बना कर पी लिया कीजिये ,ठीक से बता भी नही सकते । मैंने तो हास्य की कोशिश की थी हो गया व्यंग।

"हास्य की प्रतिध्वनि अगर व्यंग हो तो खतरनाक साबित होती है।"
 वो पढ़ा था न विज्ञान में कि ध्वनि की तीव्रता से कांच टूट जाते हैं ,कुछ वैसे ही टूटता है फिर सब।

आईना देखा सुबह सुबह ,अचानक से अपना चेहरा ही नही अच्छा लगा। कई बार रगड़ कर देखा वैसा का वैसे ही निस्तेज काला धब्बेदार। रात को लगाया हुआ पतंजलि जेल और फेयर एंड लवली क्रीम का दाम याद आया और हो गया व्यंग। "as is where is basis" के सिद्धांत को मानकर मन ही मन स्वयं पर संतोष किया।

नहा धोकर तैयार होने के उपक्रम में पैरों में जीन्स फंसा ऊपर खींची, ऊपर आते आते पेट के नीचे रुक गई गोया चढ़ाई पर गियर बदले बिना ऊपर नही चढ़ने वाली। हो गया व्यंग्य। बमुश्किल बेल्ट कस कर लपेटी और साँस रोक कर बक्कल बाँधा , इत्मिनान की साँस ली और फिर छोड़ी। सांस छोड़ते ही बक्कल बेल्ट का साथ छोड़ गया। हो गया व्यंग्य।

नाश्ते में चने की घुघरी थी ,मेरी पसंद। खाते ही पहले कौर में एक चना दधीचि की हड्डी जैसा निकला , कड़क की आवाज़ आई दांतो  से , नानी की भी नानिया रही होंगी याद आ गया और हो गया व्यंग्य।

अब कार स्टार्ट कर निकलने वाला ही था कि देखा एक पहिया तो जमीन से चिपटा पड़ा है एकदम फ्रेंच किस करने के अंदाज़ में। अब कोशिश कर रहा हूँ दोनों को अलग करने की और यह करने में मेरे गले में बंधी टाई ज़मीन पर खिलौने वाला सांप बन आगे पीछे डोल रही है।

हो गया व्यंग्य।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

कतार यादों की .....

खेत की सूखी मेड़ पर चला जा रहा था। पांव थक चुके थे। अचानक से पांव के नीचे मेड़ की मिट्टी टूट सी गई । सख्त मेड़ भुरभुरी हो गई थी वहां, थके पांव को अचानक आराम सा आ गया और तुम्हारी याद आ गई।

धूप में एक अलग खुशबू होती है और यह खुशबू तब महकती है जब छांव मिलती है। पीपल की छांव में सुलग रही थी कोई धूप बत्ती और तुम्हारी याद आ गई।

कंकरीले रास्ते पर साइकिल चला रहा था। चलाते वक्त दोनों पहिये एक ही लकीर पर न चल पाए , थोड़ा लड़खड़ा सा गया था मैं और तुम्हारी याद आ गई।

टिफिन में बंद मुड़ी हुई रोटियां सीधी कर बारी बारी खाता गया , फिर एक रोटी बच गई और तुम्हारी याद आ गई।

"यादें" डोमिनोज़ सी कतार में लगी होती है , बिखरती हैं  तो आखिर तक पहुंच कर ही ठहरती हैं।


तेरे नाम....

लिख देता हूँ तुमको रोज़
खुद को पढ़ पाने के लिए

नींद में बो देता हूँ तुमको
कुछ ख्वाब उगाने के लिए

दर्द दर्द पे बिछाता हूँ तुमको
मरहम की ठंड पाने के लिए

पूछता जब कोई हासिल क्या ज़िन्दगी में
नाम लिख के तेरा बस बता जाता हूँ मैं।


रविवार, 12 अप्रैल 2020

तेवर.....

हवाई जहाज
हवा में नही
बादल में तैरते हैं।

नाव
पानी मे नहीं
लहरों पे चलती है।

ठोकर
पाँव में नही
कदमो में लगती है।

चोट
दिल को नही
अहम को लगती है।

ज़िक्र
तेरा नही
तेरे तेवर का होता है।

*इश्क
तुझसे नही
तेरे तेवर से है।*

( आसमान पर कुछ लफ्ज़ बिखेर दिए हैं। जब तक उतरूंगा छप चुके होंगे धरती पर)

समय 17.20 (सिंगापुर)
*****14.50(लखनऊ)

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

सिंगापुर....

आज यहां दस दिन हो गए आये हुए। यह भी कोई देश है, न कोई शोर न हल्ला गुल्ला। सड़क पर हॉर्न कोई बजाता ही नही, क्या शो के लिए भोंपू लगा रखा है स्टीयरिंग पर।

सड़क भी पार करते है तो चींटियों की तरह कतार में। अरे भई आदमी हो झुंड में चलो, हाथ देकर किधर से भी निकल जाओ किसी के सामने से।

सड़क में और कांच में कोई फर्क ही नही, पतंजलि वाला न कोई गोबर ,न गोमूत्र ,न कोई गाय, न भैस ,न कुत्ता सड़क पर। यह बिना बछिया दान किये बैकुंठ तो जाने से रहे। चलो इसके चलते बैकुंठ में हम लोगों की सीट तो पक्की है।

पेड़ पौधे इतने उगा रखें है जैसे जंगल मे रहते हों। फ्लाई ओवर के खंभों पर वर्टिकल गार्डन चिपका रखा है। यह नही कि उसी पुल के नीचे फल, सब्जी का डेरा जमा दें। इन लोगों को अक्ल जरा भी नही कि आम पब्लिक प्लेस पर कब्जा कैसे करते हैं।

जान न पहचान , मिलने पर यूँ हँस कर हलो बोल देते है लगता है हम इनके रिश्तेदार ठहरे। एक हम लोग है कि जान पहचान वाले को भी देख कर कन्नी काट जाते है।

आपसे आगे जाने वाला बन्दा लिफ्ट हो , मॉल हो, रेस्तरां हो,आपके लिए डोर खोले रुक जाएगा।  अरे मजा तो तब आता जब वो भड़ाक से दूसरे के मुंह पर दरवाज़ा छोड़ दे।

पुलिस इतने दिनों में दिखी ही नही। पता चला सब अंडर कवर रहते हैं ,मतलब किस भेस में भगवान मिल जाये पता नही।

मैं तो अभी सड़क के किनारे खड़ा माथे पर आई पसीने की बूंद भी नीचे छिड़कने से डर रहा कहीं इनका शीशा मैला न हो जाए।

देशभक्ति का जज़्बा इतना कि बारहवीं की पढ़ाई के बाद लड़कों के लिए दो साल की मिलट्री ट्रेनिंग अनिवार्य है। जिसे देखो वही एकदम फिट फाट दिखता।

न कोई दंगा न कोई फसाद , रोड जाम, न चक्का जाम।यहां के लोगो का और पत्रकारों का ,मीडिया का मनोरंजन कैसे होता होगा। सब के सब एकदम बोर है। कोई इनोवेशन नही। क्या तरक्की करेगा यह देश।

बेटे के अपार्टमेंट में नीचे एंट्री पर कांच का डोर लगा है। वह अपने आप बन्द हो जाता, या तो कार्ड हो आपके पास नही ,तो वही डायलर है उससे फ्लैट नंबर डायल करो, बेटा अपने मोबाइल पर  कॉल अटेंड करेगा,कहीं भी हो, और डोर एक बटन मोबाइल पर ही दबा कर खोल देगा।

अब जो मजा नाम लेकर , चिल्ला कर दरवाजा खुलवाने में है या घण्टी बजाने में है, वो लुत्फ तो मिस हो गया न।

टैप वाटर ही ड्रिंकिंग वाटर है। उसी से नहाओ धोओ वही पियो ,छी छी, न आरओ न फ़िल्टर , कित्ता पिछड़ा देश है।

अभी अभी केला खाने का मन हुआ पर टाल गये, एक बार देख तो लें, यहां के लोग छिलके सहित खाते कैसे हैं केला ,क्योंकि कूड़ा देखने को तरस गये हम तो कहीं भी।

जल्दी लौटते हैं ,यहां रह गए तो बीमार होना तय।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

यूं ही बस

तस्व्वुर में चूमता रहा खत तेरे यूँ,
सराबों में जैसे ढूंढे अपना अक्स कोई,
हथेलियों पे मेरे निशां तेरे लब के जो है,
वुज़ू जब भी करता है चूम लेता हूँ।


सराबों - illusion , mirage
वुज़ू    -  नमाज़ अता करने से पहले हाथ, पैर धोना

जले हुए खत

काजल से कतरे
तैरते हुए
हवा में
गोया
जले पंख
हो तितली के।

पर ये
तो खत
थे मेरे
जला कर
इश्तहार
कर दिये
तुमने।

#राखएकखतकी

मौसम

बादलों की खुशमिजाजी
यूँ ही नही होती

बेमौसम बारिश
यूँ ही नही होती

जुल्फें उड़ी होंगी
आंखे मिची होंगी

हवाओं में खुशबू
यूँ ही नही होती

कहीं कोई इश्क
मुकम्मल हुआ है
बीती रात

इतनी मासूम सुबह
यूँ ही नही होती।

 #ऑसममौसम

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

तुम्हारा चाँद हमारा चाँद

चाँद वही, बादल भी वही,हरे रंग सारे वही,तितलियाँ,कोयल की कूक, दूब की नरमी वही।

एक दूसरे से मिलने पर आँखों के इशारे वही, मुस्कुराते होंठ भी वही।

हवा सुकून देती वैसे ही,पसीने की बूंद का लुढ़कना भी वही।

देशों के बीच दूरी कुछ नही ,धरती की सतह पर महज फासला है कुछ आड़ी बेड़ी रेखाओं का।

"फासले फर्क नही करते, फर्क ही फासले कर देते हैं शायद।"


शुक्रवार, 27 मार्च 2020

"लॉक डाउन....."

लॉक डाउन
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लॉक डाउन होंठों पे क्यों,
लबों पे हँसी आने दो,
लफ़्ज़ों को आपस मे,
 घुल जाने दो।

लॉक डाउन निगाहों में क्यों,
नज़रों में शोखी आने दो,
नज़र से नज़र मिलाने दो,
काजल को बादल में घुल जाने दो।

लॉक डाउन बातों में क्यों,
कुछ सुनो कुछ सुनाने दो,
कानों में मिश्री घुल जाने दो,
बातों को दिल तक जाने दो।

लॉक डाउन रिश्तों में क्यों,
जी को जी भर रो लेने दो,
रिश्तों को आंसुओं से धुल जाने दो,
रिश्ते ही जीवन है इन्हें जी जाने दो।


बुधवार, 18 मार्च 2020

"काश......"

लफ्ज़ मेरे वो,
कुछ खास न थे,
वो ठिठके जब,
ठहर तुम ही गये होते।

अश्क थामे रहा ,
लबों पे ,तबस्सुम से,
निगाहें मिला लेते गर तुम,
दो चार ढल तो गये होते।


रविवार, 15 मार्च 2020

" मचान लबों का ...."



पन्नों में दबे गुलाब जब तब महक उठे,
सीने की धौकनी से उसे जब भी साँसे मिली।

एक शायर कसमसा रहा था अरसे से किताब में,
तेरे लबों का मचान पा वो आसमान छू गया।

"बारिश लबों पे ....."



मुस्कुराये जरा क्या वो जब,
लबों पे उनके बारिश हो गई।
बारिश का एक कतरा ठहरा जब,
लब उनके फिर इंद्रधनुषी हो गये।
लबों के हाशिये पे ठहरे भीगे लफ्ज़ ,
एक अनकही कहानी पूरी कह गये।

"वायरस...."


कोविड 19

ध्यान रहे ,कहीं यहां वायरस न हो। इस बात का एहतियात बरता जा रहा सब जगह। अब वायरस दिखता तो है नही , परन्तु यह मान कर कि वो कहीं भी हो सकता है , उसके होने से बचने के उपाय किये जा रहे।

ईश्वर भी कहीं दिखते नही। अगर हम बस इतना सा मान लें कि  कहीं हमारे आसपास ईश्वर न हो और सब देख रहे हों तो शायद हम गलत काम भूल से भी न करें।

#एक #विचार।