रविवार, 29 जुलाई 2012

" इंतज़ार.........."


खबर जब से हुई,
आने की उनकी ,
खलबली सी मची क्यूँ है |
ऐसा तो पहले कभी न था ,
एक अच्छी सी बयार चली क्यूँ हैं |
वो आयें ख्वाहिश उनकी ,
दीदार हो जाएँ हसरत अपनी,
पर सबमें बेचैनी इतनी बढ़ी क्यूँ हैं |
चाहने वाले हज़ारों उनको,
फेहरिस्त में भी उनकी,
किस्से हज़ारों |
कतार में उनकी,
मैं सबसे पीछे,
फिर मुझमें इतनी,
खलिश सी क्यूँ हैं |
ये ख्याल था उनका,
जो मीठी सी फुहार पड़ी यूँ है |

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

" संबंध अवैध होते है, संतान नहीं........"



रोहित शेखर को अंततः अपने पिता का प्रमाण मिल गया | उचित बात है,परन्तु पिछले ३३ वर्षों में उसने कितनी त्रासदी सही होगी ,वह और उसकी माँ ही जानती होंगी | समाज तो उसे जीता जागता एक गाली का पर्याय ही मान रहा था बस, पर अब जब तथ्यों की पुष्टि हो गई तब सब उनके साथ खड़े दिख रहे हैं |

ऐसा क्यों होता है | पर पुरुष अथवा पर स्त्री से संबंध, वह भी इस हद तक , कि न चाहते हुए भी संतान का जन्म हो जाए | ऐसी घटनाओं का विश्लेषण किया जाना चाहिए | अधिकतर जब पुरुष अत्यंत महत्वपूर्ण एवं प्रतिष्ठित पद पर आसीन होता है और साथ ही साथ पब्लिक लाइफ में भी होता है, जहां उसे विभिन्न वर्गों के लोगों से अक्सर मिलना जुलना होता है तब अक्सर ऐसे पुरुषों से प्रभावित हो कर महिलाएं उनके संपर्क में आती हैं और मित्रता , घनिष्ठता और सामीप्य इस कदर बढ़ जाता है कि शायद कदम रुक नहीं पाते | यहाँ तक तो सब ठीक है , सबको स्वतंत्रता है अपना जीवन जीने की , परन्तु  यह ध्यान अवश्य होना चाहिए कि इसका परिणाम ऐसा न हो कि अनचाही संतान का जन्म हो जाए और उसे जीवन भर झेलना पड़े | अधिकतर इसकी जिम्मेदारी महिलाओं पर ही होती है पर कभी कभी कुछ महिलायें मन ही मन नामी गिरामी पुरुषों से संसर्ग कर उनके बच्चे को जन्म भी देना चाहती हैं | इसमें दो स्थितियां होती हैं पहली यह कि, वह जानती हैं कि उनके संबंध को समाज मान्यता नहीं देगा परन्तु वह इतना अधिक भावनात्मक और मानसिक रूप से स्वयं  को उस पुरुष से जोड़ लेती हैं कि उसके बच्चे को अपने गर्भ में धारण करना चाहती हैं , दूसरी स्थिति वह होती है जब संबंध तो बन जाते हैं पर समय बीतने के साथ पुरुष उसे महत्त्व देना कम करने लगता है , तब वह महिला प्रतिशोध के तौर पर उसके बच्चे को जन्म देना चाहती है और सोचती है कि जब मेरी लोक लाज समाप्त हो गई तब मैं उस पुरुष को भी समाज के सामने नंगा क्यों न कर दूं | इसमें ब्लैक मेलिंग की भावना भी होती है |

जितने भी इस तरह के प्रकरण हुए हैं सबमे पुरुष किसी महत्त्व पूर्ण पोजीशन वाला ही रहा है | होता तो इसके विपरीत भी है कि ऊंचे परिवार या प्रतिष्ठा वाली महिला का किसी सामान्य पुरुष से संबंध हो जाए परन्तु ऐसी किसी घटना की जानकारी पूरी तरह से समाज को नहीं हो पाती और न ही कभी कोई ईशू बनता है | हाँ ! अधिकतर ऐसे परिवार वाले उस साधारण से पुरुष की ह्त्या अवश्य करा देते हैं |

स्त्री पुरुष के संसर्ग से यदि गर्भ धारण की स्थिति बन गई , संसर्ग चाहे नैतिक हो या अनैतिक , फिर संतान की उत्पत्ति तो होनी ही है | संतानोपत्ति की प्रक्रिया में बाईलॉजिकली इस बात का कोई असर नहीं होता कि संसर्ग स्वेच्छा से हुआ है या बलपूर्वक | बच्चे का जन्म १०० प्रतिशत स्वभाविक रूप से हो जाता है | प्रत्येक स्थिति में मातृत्व की भावना एक सामान ही होती है | सारी नीति और अनीति संसर्ग तक ही विवेचित होती है | ईश्वर की नज़र में जब बच्चे ने जन्म ले ही लिया तब वह उसकी माँ के वक्ष में पूरा मातृत्व उड़ेल देता है |

रोहित शेखर के मामले में जितना दोष उसके पिता का है उससे कहीं अधिक दोष उसकी माँ का भी है , आखिर ऐसी स्थिति क्यों उत्पन्न हुई | स्त्री पुरुष के संबंध और संतान की उत्पत्ति दो पूरी तरह से भिन्न विषय होने चाहिए | दोनों को आपस में मिला कर देखने से ही ऐसी स्थितियां पैदा होती हैं , जो उत्पन्न संतान के विषाद का कारण बनती हैं | यह भी सच है कि अगर एन डी  तिवारी की जगह कोई मामूली सा कांग्रेस का कार्यकर्त्ता होता तब शायद रोहित की माँ उस मामूली से आदमी का नाम कभी न लेती और रोहित से कह  देती, तुम्हारा  बाप तुम्हारे बचपन में ही मर गया था ।

"पर जो भी हो संबंध तो अवैध हो सकते हैं परन्तु संताने कभी नहीं |"

रविवार, 22 जुलाई 2012

"एक सावन ऐसा भी हो..........."



आओ सजनी सजा दूँ तुझे,
हाथों में मेहँदी लगा दूँ तुझे,

उलझी जुल्फें सवांर दूँ,
कान पे लट निकाल दूँ ,

मूँदे रखना ज़रा नयन अपने,
कजरारी पलकें निखार दूँ ,

लगाऊं कुमकुम माथे पर,
सिन्दूर से मांग संवार दूँ ,

ये गाल में बनते गड्ढे तेरे,
डिठौना इन पे वार दूँ ,

आज बन जाऊं मनिहार तेरा,
तू लाज शर्म सब छोड़ दे ,

लचकाऊ तेरी गोरी कलाइयां ,
हरी हरी चूड़ियाँ उनमे डाल दूँ ,

लब थाम ले साँसे रोक ले,
लबों पे लाली तो लगा दूँ ज़रा,

पायल पहनाऊं अपने हाथों से ,
पर बोल उनके निकाल दूँ ,

जब सजा लूँ तुझे ,
फिर जी भर देखूं तुझे ,

और तुझ पे इतराते हुए,
अपने बाहों की माला तुझ पे डाल दूँ ,

फिर झुलाऊं तुझे अपनी बाहों में ,
और यूं ही जीवन तुझ पे वार दूँ ।

                                             "एक सावन ऐसा भी हो "

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

" कैसे भूल जाऊं ..तुम्हारा जन्मदिन....."


जितना अधिक स्नेह उतनी अधिक अपेक्षा , जितना ज्यादा प्यार दुलार उतना ही ज्यादा भरोसा प्रतिप्यार का | ऐसा ही होता है दो लोगों के बीच प्यार और विश्वास का सम्बन्ध शायद | सामान्यतः तो प्यार और स्नेह का लेन देन चलता रहता है, पर जीवन के बहुत लम्बे सफ़र में ये लेन देन सफ़र के दौरान दूसरे तमाम लोगों के शामिल होते रहने से ज़रा घटता बढ़ता और बदलता भी रहता है | जो स्वभाविक भी है | अमूमन प्यार के बदले दूसरा व्यक्ति प्यार की ही अपेक्षा रखता है | पर कभी कभी वह यह भी चाहता है कि उसे प्यार करने वाला कोई गलती ऐसी करे, जो उससे शिकायत करने का सबब बने और वह उससे उलाहना भरे अंदाज़ में उसकी गलती बताते हुए भीतर ही भीतर खुश हो सके | यह भाव बच्चों में भी होता है कि अगर उन्होंने किसी ख़ास चीज़ की फरमाइश की है , तब वे बस एक बार ही बोलेंगे फिर चाहेंगे कि आप भूल जाये और वे आपको याद भी नहीं आने देंगे| फिर किसी मौके पर बड़ी सादगी से भोले बनते हुए निर्णय सुना देंगे कि आप लोग मुझे भूल ही जाते हैं | इसमें उनको ख़ुशी उस असहजता में मिलती है ,जो भूलने पर आप के अन्दर उत्पन्न होती है ।

पत्नियां भी कभी कभी ऐसे अवसर तलाशती रहती है और ऐसी स्थिति को निर्मित करने का पूरा प्रयास करती हैं | ख़ास कर जिस माह उनका जन्मदिन होगा , उस माह वह किसी के भी जन्म दिन के विषय में बात ही नहीं करती हैं और न ही किसी अन्य को गिफ्ट लेने देने का प्रसंग छेड़ती हैं | जिससे की किसी भी तरह से उनके पति के मन में जन्म दिन से रिलेटेड कोई ख्याल ही न उत्पन्न हो | कभी कोई ज़िक्र आयेगा भी तो पूरा प्रयास कर टाल जायेंगी और बस इंतज़ार करती रहेंगी कि बस वह तारीख निकल जाए फिर खबर लें अपने मियाँ की |

कुछ ऐसा ही चल रहा था इस माह मेरे यहाँ भी | मैं भी बिलकुल कुछ ऐसा ही दिखावा कर रहा था कि जैसे मुझे दूर दूर तक कुछ याद नहीं है | ( पर उन्हें कौन बताये कि मैंने तो अपने दिल पर उनकी तारीख का टैटू बनवाया हुआ है ) वह मन ही मन सोच रहे हैं कि इस बार मैं भूलूँ बस, फिर वो जी भर कर कह सकें ,अब आपको मेरा जन्म दिन क्यों याद रहने वाला |

पर ऐसा शायद कभी मुमकिन नहीं होगा | शिकायत के मौके तो बहुत दूंगा , वादा रहा | पर जन्मदिन भूल कर , कभी नहीं |

जन्म दिन मुबारक 'निवेदिता' | 

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

" जीवन के मोड़ , डिफरेंशियल और परिवार....."



साइकिल के आगे पीछे के दोनों पहिये एक सीध में होने के कारण उसे मोड़ पर घुमाने पर कोई समस्या नहीं होती | परन्तु चार पहिये के किसी भी वाहन को जब सीधी दिशा में चलाना हो तब तो सभी पहियों की गति एक समान होती है पर जब मुड़ना होता है तब उसके अगल बगल के पहियों की गति भिन्न हो जाती है | कारण बड़ा सरल और स्पष्ट है कि मोड़ पर मोड़ के भीतरी ओर स्थित पहियों को मोड़ के बाहर की ओर स्थित पहियों से कम दूरी तय करनी पड़ती है | अब अगर दोनों ओर के पहियों की गति समान होगी तब बाहरी पहियों को स्किड करना पड़ेगा, क्योंकि एक ही समय में दोनों पहियों को भिन्न भिन्न दूरी तय करनी पड़ती है और एक ही गति से तय करने पर पहियों का स्किड करना निश्चित है | अब इससे बचने का उपाय यह है कि कोई ऐसी डिवाइस हो जिससे मोड़ पर दोनों अगल बगल के पहियों को भिन्न भिन्न दूरी तय करने पर समान समय लगे अर्थात फिर दोनों पहियों की गति भिन्न भिन्न हो | इसी के लिए डिफरेंशियल का प्रयोग करते हैं | भिन्न भिन्न दूरी को एक समान समय में पूरा करने में डिफरेंशियल मदद करता है और मोड़ पर हम अपनी कार बहुत इत्मीनान से चला पाते हैं | जिन रास्तों पर बहुत खतरनाक मोड़ होते हैं ,यथा पहाड़ी रास्तों पर , वहां आगे पीछे दोनों पहियों में डिफरेंशियल की मदद ली जाती है और उसे ही 'फोर व्हील ड्राइव' कहते हैं | जहां डिफरेंशियल का प्रयोग नहीं करते , वहां 'स्प्लिट शैफ्ट' का प्रयोग करते हैं | जैसे रिक्शे में पीछे के दोनों पहिये को जोड़ने वाली शैफ्ट स्प्लिट अर्थात दो टुकड़ों में बटी होती है , जिससे घुमाव वाले रास्ते पर दोनों पहियों की गति भिन्न हो पाती है |

एक परिवार के न्यूनतम अवयव पति और पत्नी होते हैं | दोनों को बराबर का दर्ज़ा हासिल है , अतः दोनों कभी एक दूसरे के पीछे नहीं चलते  ( ब्याह के मंडप को छोड़ कर ) अपितु साथ साथ सदैव अगल बगल चलते हैं  | जब तक जीवन के रास्ते सरल और सीधे होते हैं दोनों की गति एक समान होती है और किसी प्रकार की स्किडिंग का ख़तरा नहीं होता | पर आगे आने वाले दिनों में जीवन में अक्सर घुमाव और मुश्किल मोड़ भी आते हैं | इन मोड़ दार रास्तों के केंद्र कभी पति की ओर और कभी पत्नी की ओर होते हैं | ऐसे में एक समान गति से चलते रहने पर परिवार की स्किडिंग तय होती है | ऐसे में दोनों की गति में भिन्नता प्रदान करने अर्थात डिफरेंशियल का कार्य उस दंपत्ति के बच्चे ही करते हैं  और उसी डिफरेंशियल की वजह से परिवार उस मोड़ से सफलतापूर्वक बाहर निकल आता है | जहां डिफरेंशियल का अभाव हो वहां जीवन को बिना स्किडिंग के चलाने के लिए दोनों पहियों (पति /पत्नी ) को घुमाव दार रास्तों पर अगल बगल के स्थान पर आगे पीछे हो जाना चाहिए या फिर दोनों के बीच की शैफ्ट स्प्लिट होनी चाहिए , तब वे अगल बगल भी चल सकते हैं । ऐसी परिस्थिति में पति पत्नी के अलावा किसी अन्य  का डिफरेंशियल के रूप में होना अत्यंत अनिवार्य है । 

यह सब अनजाने में इतनी सरलता से हो जाता है कि किसी का ध्यान भी इस ओर नहीं जाता और जीवन चलता रहता है उसी 'डिफरेंशियल' के सहारे |

" यह लेखक के नितांत व्यक्तिगत विचार हैं "

शनिवार, 14 जुलाई 2012

" ख़ुशबू बिखर जाए उनकी......."



वो मुस्कुरा दें बस इतनी सी चाह है ,

अपने आंसुओ से बचने की कहाँ कोई राह है |

वो पलकें उठा दे बस इतनी सी चाह है ,

खुली आँखों से सपने देखने की यही एक राह है |

वो लब खोल दे, दो बोल बोल दें , बस इतनी सी चाह है ,

सन्नाटे के शोर से बचने की यही एक राह है |

प्यार न सही दुश्मनी ही सही,

वो करें जो भी दिल से करें , बस इतनी सी चाह है ,

अपने दिल को रोकने की कहाँ कोई राह है |

ख़ुशबू बिखर जाए उनकी मेरे जीवन में ,

बस इतनी सी चाह है ,

फूल दामन में भर लूँ ऐसी कहाँ कोई राह है |

बुधवार, 11 जुलाई 2012

"नेट लैग " ...यह "जेट लैग" का बाप है .......|


पौ फटने को है | रात भर की फटी आँखें अब मुंदने को है | फटी फटी आँखों से देख रहा हूँ सारी दुनिया सो रही है | बरसात हो रही है पर झींगुर तक मौन है | मेंढक भी साइलेंट मोड पर है | पूरे मोहल्ले में शमशानी सन्नाटा है और मैं रात भर नेट पर खटर पटर करने के बाद अब सोने के मोड में आ रहा हूँ | अच्छा शौक लग गया यह है | अब जब सब उठेंगे तब मैं सोता मिलूँगा या उठ भी जाऊंगा, डर के मारे, तो भी दिल दिमाग तो सोता ही रहेगा | 

थोड़ी देर बाद गर्म चाय आएगी , मुझे कई बार फब्तियां सुनने को मिलेंगी , रात भर नेट पर करते क्या रहते हैं , अरे ब्लॉग व्लाग तो हम भी लिखते हैं , दिन में एक दो घंटे नेट पर बैठे ,हो गया , आप रात भर क्या करते हैं | 'फेस बुक' पर सबको घूम घूम कर 'लाइक' करते रहेंगे बस | अरे कभी हिसाब लगाया , कितने 'लाइक' आपने किये और कितनों ने आपको किया | ( मै मन ही मन सोचता हूँ , चाहने में भी गणित और हिसाब किताब , यह मुझसे नहीं होने वाला ) |  मैं चुप चाप चाय उठाउंगा , जो ( चाय ) अब तक मलाई के नीचे अपना यौवन छुपा चुकी होगी , उसके यौवन को उद्घाटित करता हुआ एक ही घूँट में निपटा दूँगा  | अब काम तो सारे दिनचर्या वाले करने ही होते हैं, पर वो सारे काम डाँट डपट के बैक ग्राउंड म्युज़िक के साथ ही होंगे |

बारिश के मौसम में बिजली कुछ ज्यादा ही आती जाती रहती है , उस पर कमेन्ट मिलते हैं कि जब सारी रात नेट पर रहेंगे, फिर तो आफिस में सोते होंगे | काम धाम वहां कुछ करते नहीं होंगे, तब बिजली क्या ख़ाक आएगी | अब कौन समझाए, बिजली का आना जाना हमारे काम करने या न करने से बिलकुल जुदा है | अरे ! बिजली की अपनी मर्जी , आये न आये | ( बिजली जितनी देर बंद रहती है , विभाग को फायदा ही होता है , दस रुपये का माल हम लोग तीन रुपये में बेचते हैं , उसमे से भी ६०   प्रतिशत चोरी में जाती है , अरे न रहे बिजली न हो चोरी ) | 

रात भर नेट पर रहने से बाइलोजिकल क्लाक तो डिस्टर्ब होती है , वह एक अलग बात है, पर असल बात यह है कि आपकी क्लाक आपकी घर वाली से १८० डिग्री फेज़ डिफ़रेंस में आ जाती है | वही घातक है | दो चार दिन संयम बरत कर वह अंतर कम कर भी लें पर लत तो लत हैं न , कहाँ छूटती है , फिर चिपक लिए नेट से रात भर तो फिर हो गया "नेट लैग" और यह "नेट लैग " ख़त्म करने का उपाय केवल इतना ही है कि " कभी वो भी जगें रात भर " और यह होने वाला नहीं है | 

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

" लत तो छोटे फाँट की ही रही .........."



जहां तक याद है मैंने बचपन में लिखने की शुरुआत रेलवे के सरकारी कागज़ ,जो एक बार प्रयुक्त हो चुके होते थे और एक ओर सादे होते थे,से बने रजिस्टर पर की थी | पिता जी बड़े मनोयोग से उस रजिस्टर को सुई धागे से सिल देते थे और हम लोग उन पर अपना अपना नाम लिख रजिस्टर आपस में बाँट लेते थे | रजिस्टर सरकारी जरूर होता था, फिर भी हिदायत रहती थी कि, पन्ना बर्बाद नहीं करना है | पिता जी को इम्प्रेस करने के लिए मैं बहुत छोटा छोटा छोटा लिखता था , जिससे कि रजिस्टर ज्यादा दिन चल जाए और जल्दी से दुबारा मांगना न पड़े | यहीं से शुरुआत हुई, छोटे फाँट की| छोटा यानी महीन लिखने से एक ही पन्ने में २/३ पन्ने का काम हो जाता था | दिमाग में अब यह बात घर करने लगी थी छोटा फाँट मतलब बचत |

लेकिन धीरे धीरे इसके मायने बड़े होते गए | खाना खाते समय मैं माँ से कहता , मुझे छोटे छोटे कौर बनाकर खिलाओ , वह जल्दी के कारण और अधिक खिलाने के प्रयास में बड़े बड़े कौर खिलाना चाहती थीं पर मैं शायद अधिक नहीं खाना चाहता था बल्कि अधिक देर तक खाना चाहता था उनके हाथों से | फिर लत सी लग गई छोटे फाँट के कौर की | पिता जी खुद तो गन्ना खाने के बहुत शौकीन रहे और हम लोगों को अपने साथ गन्ने के छोटे छोटे गुल्ले बना कर देते रहते थे और हम लोग बड़े चाव से उस रस में डूबे रहते थे | हम भाइयों में आपस में सबसे छोटे गुल्ले के लिए लड़ाई सी होती थी क्योंकि गन्ने के छोटे से गुल्ले को खाने में ताकत कम लगती थी और रस पूरा होता था | यहाँ फिर लत लग गई छोटे फाँट की |

ज़िन्दगी में खुश होने की वजह भी बहुत छोटी छोटी रही और छोटी छोटी सी बातों पर ही मन दुखी भी होता रहा था | जब कभी रोये भी तो, कभी बुक्का फाड़ कर नहीं रोये | आंसू भी निकले तो नन्ही नन्ही बूदों के समान, जो मिलकर कभी आपस में मेरे गाल पर एक लकीर भी न खीच सके | यहाँ आंसुओं ने भी छोटे छोटे फाँट का ही साथ पकड़ लिया था | जेब में जब भी पैसे हुए , वे चंद सिक्के ही थे और उनकी खनक जब जेब में होती थी मन ही मन खुद को रईस समझता रहा | बड़े फाँट के रुपये ज़िन्दगी को कभी रास नहीं आये | 

पता नहीं क्यों बचपन से ही हमेशा चाहा कि , जो भी मुझसे मिले उसे खुश कर सकूँ या उसके चेहरे पर मुस्कराहट ला सकूँ | हँसी भी पसंद आई तो वह छोटी सी मुस्कान ही रही, जो किसी के होंठ पर बस खिल सी जाए | खिलखिलाहट या अट्ठहास में पता नहीं क्यों, कभी सच्चाई नहीं दिखी | यानी हँसी भी पसंद आई तो वह छोटे फाँट की ही पसंद आई | खैर ।

मेरी एक पोस्ट पर श्रीमती अजीत गुप्ता जी ने एवं श्री दीपक बाबा जी ने आज लिखा था , थोड़ा फाँट साइज़ बड़ा कर लें , मैंने लिखा ," कंट्रोल के साथ प्लस दबाएँ ,फाँट बड़ा हो जाएगा |"  जीवन में भी अगर कुछ प्लस करना है अर्थात धन संपदा , वैभव , ज्ञान का भण्डार बढ़ाना है तब थोडा कंट्रोल करें , अपना आपा न खोये , अन-कंट्रोल्ड तरीके से अर्जन न करें , वांछित वस्तु का आकार बड़ा होता  जाएगा | जीवन का दर्शन भी शायद इतना सा ही है। ( प्लस तो सब करना चाहते हैं , बस कंट्रोल नहीं है )

"काश ! मनुष्य की इच्छाओं के फाँट छोटे होते जाएँ और कर्मों के फाँट बड़े , तब शायद सब कुछ साफ़ साफ़ नज़र आने लगेगा सभी को |"

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

" माउस " से दिल तक ......."



पहले जब कम्प्यूटर का प्रयोग नहीं होता था तब कवि या लेखक अपनी कलम से कागज़ पर लिखने के लिए स्याही का प्रयोग करते थे | परन्तु सच तो यह होता था कि  लिखते समय उनका ह्रदय भावों की अतिरेकता में पसीजता रहता था और वे अपनी कलम को उसी ह्रदय में डुबो डुबो विषय वस्तु के कैनवस पर इबारतें उकेर दिया करते थे | उसी कलम के सहारे अक्सर दूसरों के दिल में बहुत गहरी पैठ बना लेते थे |

आज कलम का स्थान 'माउस' ने ले लिया है | महत्व पूर्ण तो 'की बोर्ड' भी है परन्तु कलम की नोक तो 'माउस' ही है | वह जहां अपनी नोक ( कर्सर ) रखता है , 'की बोर्ड' वहीँ असरकारी होता है | आज के लेखक / कवि 'माउस' की सवारी करते हैं | माउस की सवारी तो गणेश जी भी करते है ,जो उन्हें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सैर कराता है ,वही 'माउस'  अब अपने सवार को पूरे विश्व की सैर पल मात्र में करा देता है |

किसी भी तरह की रचना करते समय रचनाकार के मन या मस्तिष्क में कोई न कोई व्यक्ति अवश्य विद्दमान होता है , भले ही उसका उस विषय से सम्बन्ध हो या न हो, परन्तु प्रेरक के रूप में या माडल के रूप में या पाठक के रूप में सदैव उपस्थित रहता है और वह व्यक्ति लेखन की शैली को प्रभावित करता है | लिखते समय बस यह लगता है कि 'माउस' सीधे उस व्यक्ति के दिल पर 'क्लिक' कर रहा है | 

परन्तु कभी कभी लेखनी / माउस उदास या मौन भी हो जाती है | ऐसा भावों की न्यूनता में या कभी अतिरेकता में भी हो जाता है | ऐसे ही  'माउस' के बारे में कुछ भाव यूं प्रकट हुए ( जो सभी के साथ होता होगा ) :

१. आज 'माउस' की सवारी का दिल नहीं कर रहा है | पर क्या करें , कोई इंतज़ार यहाँ भी तो करता होगा |

२.'माउस' मायूस है |

३.'माउस' मिस कर रहा है |

४.' माउस' मसोस कर रह गया |

५.'माउस' मनहूस क्यों है |

६.'माउस' मस्त हुआ |

७.'माउस' ने मुंह खोला और पासवर्ड (दिल का ) लीक हो गया |

८.'माउस' मौन है |

९.'माउस' महान है |

१०.'माउस' है कि मानता नहीं |

"अब तो हर कोई लिखने वाला बस यही कहना चाहता है अगर आपको मुझसे प्यार है तो मेरे 'माउस' से भी वही प्यार करें |" 

                                                  " love me and love my mouse "


बुधवार, 4 जुलाई 2012

" गलबहियां कपड़ों की ......"



वाशिंग मशीन में आज कपडे गोल गोल नाच रहे थे और निम्न विचार मेरे मन में : 


वाशिंग मशीन में सब कपडे आपस में कितने प्यार से गलबहियां करते हैं और उन्माद में नाचते रहते हैं | जबकि वे सब जानते हैं कि अंत में उन्हें निचोड़ा भी जाएगा और दर्द भी होगा | जिससे जिस्म पर सलवटें भी पड़ेंगी परन्तु दाग छुडाने को वे इतनी पीड़ा भी सहने को तैयार रहते हैं | किसी कपडे का किसी दूसरे से कोई बैर नहीं | जींस अपनी दोनों बाहें फैलाए समेट लेती है शर्ट को , शर्ट के बटन में मोजा किलोल करता रहता है | तौलिया अपना बड़प्पन दिखाते हुए रुमाल को अपने आगोश में भर लेती है | "वीआईपीफ्रेंची" टाइटेनिक की तरह  कभी एक ओर से कभी दूसरी ओर से डूबने उतराने के प्रयास में बड़ा सुन्दर दृश्य प्रस्तुत करता है | सभी कपड़ों में न किसी धर्म का बैर न किसी सम्प्रदाय का , न कोई लिंग भेद न कोई वर्ण भेद | सब आपस में मिल कर एक दूसरे का दाग छुड़ाने में मददगार ही साबित होते हैं | यहाँ तो जो कमजोर वर्ण का होता है वही सब पर अपना रंग छोड़ देता है | यहाँ दबंग बे असर होता है |

धोबी के यहाँ तो सभी वर्गों और धर्मों के कपडे सामूहिक रूप से एक साथ धुले जाते हैं ,कहीं कोई भेदभाव नहीं ।कोई भी वस्त्र किसी भी वस्त्र के साथ जुगलबंदी कर लेता होगा धुलने ,सूखने और निचुड़ने में  |

"जब कपडे आपस में कोई बैर , भेद नहीं करते और साथ साथ पीड़ा सह कर  बेदाग़ होने को तत्पर रहते हैं ,तब उन्हें पहनने वाले उनकी तरह व्यवहार क्यों नहीं कर सकते !"


सोमवार, 2 जुलाई 2012

"कार ड्राइविंग और आप........."





प्रत्येक व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व ,अपनी जीवन शैली या कहें अपना एक फिक्स्ड एटीट्यूड होता है | उसके बारे में जानने के लिए लोगों ने समय के साथ अनेक विधाएं विकसित कर लीं हैं ,जैसे हैण्ड राइटिंग / हस्ताक्षर का अध्ययन  , फेस रीडिंग ,टैरो कार्ड ,चलने फिरने या बात करने का तरीका ,इन सब से काफी कुछ मालूम चल भी जाता है किसी के बारे में, और कभी कभी एकदम मिथ्या भी साबित होता है |

सोने की मुद्रा और चाय पीने के अंदाज़ से भी काफी कुछ झलक मिल जाती है किसी के व्यक्तित्व के बारे में |

वास्तव में इस प्रकार के अध्ययन का आधार 'रैंडम सर्वे' में मिले आंकड़ों पर टिका होता है | पाए गए निष्कर्षों को जेनरेलाइज कर दिया जाता है बस |

कार चलाना महज ड्राइविंग नहीं | कार चलाते समय आप कार से बात करते हैं ,अपने आगे पीछे के ट्रैफिक से बात करते हैं | अन्य चालकों से आपका संवाद होता रहता है ,कभी आँखों आँखों में और कभी इशारों में | अब आप एक 'लाइव मशीन' से कैसे बर्ताव करते हैं ,उससे भी आपके व्यक्तित्व की झलक मिलती है | बस उसी पर चर्चा करने का दिल हो गया और बन गई यह पोस्ट :

१.अपनी कार की सफाई का विशेष ध्यान रखते हैं | भले ही स्वयं सफाई करनी पड़े , धूल धूसरित कार चलाना एकदम पसंद नहीं  : जीवन में अनुशासित व्यक्ति |

२.कार के भीतर परफ्यूम जरूर हो ,भले म्युज़िक सिस्टम न हो : रोमांटिक व्यक्ति |

३.म्युज़िक सिस्टम जरूर हो, भले गाडी में स्टेपनी न हो : आत्मकेंद्रित व्यक्ति |

४.कार स्टार्ट करने से पहले कार के नीचे झाँक कर देखना कि कहीं कोई कुत्ते या बिल्ली का बच्चा तो नहीं बैठा है : आवश्यकता से अधिक सावधानी बरतने वाला |

५. कार बैक करते समय रियर व्यू मिरर में न देखकर बल्कि पीछे गर्दन घुमा कर बैक करना :अपने पर भरोसा कम, दूसरों पर ज्यादा |

६.कार फर्स्ट गियर के बजाय सीधे सेकण्ड गियर से उठाना :आत्मविश्वास की अधिकता , ऐसा व्यक्ति सीढियां भी एक एक छोड़ कर चढ़ता होगा |

७.अनायास हार्न बजाना : हीन भावना से ग्रस्त व्यक्ति , दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की चाह |

८.गति और दूरी के अनुपात का ज्ञान न होने के कारण बार बार ब्रेक लगाना :पुअर प्लानर |

९.अधिकतर एक ही हाथ से स्टीयरिंग पकड़ कर कार चलाना : आत्म विश्वास से भरपूर |

१०.टर्निंग इंडिकेटर भी आन हो और हाथ से भी इशारा हो  रहा हो :ड्राइवर महिला हो सकती है  |

११.उतरते समय अकस्मात दरवाजा खोल देना : कल्पना शील व्यक्ति , अपने में खोया हुआ |

१२. रास्ता कंकरीला / खराब होने पर टायर का दर्द दिल पर महसूस करने वाला : परिवार के प्रति अगाध प्रेम करने वाला |

१३.इंजन हौले से स्टार्ट करना और धीरे धीरे कार आगे बढाते हुए गति में लाना : प्यार करने में एक्सपर्ट |

१४.कार में जरा भी खरोंच या डेंट लगा ,तुरंत ठीक करा लिया : अपनी पत्नी / पति से  बहुत प्यार करने वाला /वाली |

१५.नंबर प्लेट पर रजिस्ट्रेशन नंबर यूनीक होना : दुनिया से अलग दिखने की चाह |  

१६.पीछे आने वाली गाडी को पास न देना : जिद्दी और दूसरों की मदद न करने वाला |

१७.रात में लो बीम का प्रयोग करने वाला : दूसरों की असुविधा को समझने वाला |

१८. पेट्रोल लेते समय हमेशा टंकी फुल कराना : समय का महत्त्व समझने वाला , अच्छा प्लानर |

१९.फुटकर में पेट्रोल लेने वाला : अपने जीवन के प्रति तनिक कम आश्वस्त |

२०.पेट्रोल के साथ साथ पहियों में हवा का ध्यान भी रखने वाला : हर छोटी छोटी चीजों का महत्त्व  समझने वाला |


" ड्राइविंग और सेफ़  ड्राइविंग में बहुत फर्क होता है थोड़ा सोचने की बात है  ,कम उम्र में बच्चे  ड्राइविंग सीख तो सकते हैं परन्तु रेफ्लेक्सेज़ उम्र के ही साथ बनते हैं ।"


" कुछ महिलायें भी अत्यंत कुशल ड्राइवर होती हैं ।" ( यह कथन मैंने बाद में जोड़ा है  )