'मूर्ख दिवस' से तो बचता रहा,
पर तमाम रातें मूर्ख बनता रहा,
उनकी एक झलक की खातिर,
छत पे नंगे पाँव टहलता रहा,
कवि बना और बना कभी शायर,
खुद को दीवाना समझता रहा,
वो खेलते रहे मुझसे नाखूनों से,
और मै ज़ख्म देख हंसता रहा,
कितनी रातें, तारे कितने,
मेरे सफों पे,
उतरे कितने चाँद,
कभी सुर्ख कभी स्याह,
लफ़्ज़ों के बाबत ,
बस कर दिया,
एक दिन,
मेरे नाम |
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" मूर्ख दिवस "
" कोई भी मूर्ख नहीं होता ,बस चाहत में वो तो स्वयं मूर्ख बन अपने 'प्यार' को खुश देखना चाहता है ,अगर उसके 'प्यार ' को उसी में ख़ुशी मिलती है ...."