शुक्रवार, 11 मार्च 2011

"रिश्तों के खंडहर"

अरे ! ये तो मेरे अपने हैं ,
पर क्यों अब हम,
उन्हें मीठे नहीं लगते |
रिश्तों की इमारत से,
हमने तो कोई पाया नहीं खींचा ,
हाँ अनुपात ज़रूर एक,
एक का कर लिया था |
पर शायद यह इमारत,
उनकी सपनों  की इमारत ,
का एलिवेशन बिगाड़ रही थी ,
सो बड़े प्यार से,
अपने हिस्से के पाए ,
उन्होंने खिसका लिए |
और अब जब,
हमारे रिश्तों की ,
इमारत ढही ,
तो वह भी,
उनकी ही तरफ ढही |
मेरे पाए अब भी,
जस के तस हैं ,
पर वह कहते हैं ,
यह इमारत तो,
खँडहर हो गई |
मैं कहता हूँ ,
ढही  इमारत ,
के खंडहर भी ,
ख़ूबसूरत और आकर्षक ,
लगतें है ,
अगर देखने वाला ,
उनमें बची साँसों को ,
महसूस कर पाए |  
पर शायद उन्हें तो ,
फितरत है ,
हर रोज ,
नई इमारतों की ,
और ऊब से गए है ,
ढोते ढोते बासी ,
रिश्तो को ।

22 टिप्‍पणियां:

  1. जो स्नेह की नींव को हिलाए , पलड़ा उनकी तरफ का ही तो हल्का होगा ..
    सुन्दर भावाभिव्यक्ति !

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  2. ढही इमारत ,
    के खंडहर भी ,
    ख़ूबसूरत और आकर्षक ,
    लगतें है ,
    अगर देखने वाला ,
    उनमें बची साँसों को ,
    महसूस कर पाए |
    aakhiri dam tak saanson mein zindagi hoti hai , bas ek sparsh kee zarurat hai!

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  3. दिल को छू लेने वाली बेहतरीन रचना| धन्यवाद|

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  4. जब पुरानें में अपनापन नहीं दिखा तो नये का भरोसा कौन करे।

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  5. ढही इमारत ,
    के खंडहर भी ,
    ख़ूबसूरत और आकर्षक ,
    लगतें है ,
    अगर देखने वाला ,
    उनमें बची साँसों को ,
    महसूस कर पाए |

    खूब लिख है जी.
    मै तो कहता हूँ कि-
    अब भी बची हैं साँसे रिश्तों के खंडहर में
    मन से तो कोई देखे.रिश्तों के खंडहर में..............

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  6. पर शायद उन्हें तो ,
    फितरत है ,
    हर रोज ,
    नई इमारतों की ,
    और ऊब से गए है ,
    ढोते ढोते बासी ,
    रिश्तो को ।

    बहुत सुंदर ...प्रासंगिक विचार हैं आपकी इस रचना में....

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  7. पर शायद यह इमारत,
    उनकी सपनों की इमारत ,
    का एलिवेशन बिगाड़ रही थी ,
    सो बड़े प्यार से,
    अपने हिस्से के पाए ,
    उन्होंने खिसका लिए |......

    नई उपमाओं की सुन्दर कविता के लिए बधाई...

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  8. सच है रिश्तों का बोझ आसान नही होता ढोना ... बहुत बड़ा दिल चाहिए निभाने के लिए ....

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  9. Too bad that i cannot appreciate his beautiful creation in hindi.My hats are off to you.

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  10. सही कहा आपने....

    रिश्तों की इमारत से,
    हमने तो कोई पाया नहीं खींचा ,
    हाँ अनुपात ज़रूर एक,
    एक का कर लिया था |
    पर शायद यह इमारत,
    उनकी सपनों की इमारत ,
    का एलिवेशन बिगाड़ रही थी ,
    सो बड़े प्यार से,
    अपने हिस्से के पाए ,
    उन्होंने खिसका लिए |
    हमारे रिश्तों की ,
    इमारत ढही ,
    तो वह भी,
    उनकी ही तरफ ढही |
    मेरे पाए अब भी,
    जस के तस हैं ,


    ज़िन्दगी में कई बार ऐसा ही होता है..
    जब तक आप रिश्तों को बनाने या सहेजने में लगे रहें..तभी तक !!
    थोड़ी देर के लिए आप अपनी जगह स्थिर हो जाए तो रिश्तों के सारे अनुपात डगमगाने लगते हैं....आज भी लोग पुराने खंडहरों को शौक से देखने जाते हैं...और उनके भीतर वही खूबसूरती और रंगीनी पाते हैं कि थोड़ी देर के लिए बहरी दुनिया से दूर उसी समय में पहुँच जाते हैं....इंसानी रिश्ते भी ऐसे ही हैं.....लेकिन नए रिश्ते बनाने मेंलोग पुराने रिश्तों कि अहमियत भूल जाते हैं.....बहुत सुन्दर लिखा आपने..कुछ सोचने पर मजबूर करती आपकी रचना...सभी की ज़िन्दगी में ऐसे कुछ लोग होते ही हैं...आपने फिर से पुराने खूबसूरत खंडहरों में पहुंचा दिया..जहाँ साँसें तो हैं लेकिन तस्वीरें गायब हैं....बहुत ही सुन्दर रचना....!!

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