बुधवार, 9 मार्च 2011

"इच्छा मॄत्यु" बनाम "शापित जीवन"

               ईश्वर या प्रकृति की सबसे असाधारण रचना यदि कोई है तो वह मनुष्य का जीवन ही है ,परन्तु चूँकि यह घटना ( बच्चे का जन्म ) सदियों से बहुत सरलता से होती आ रही सो अत्यंत साधारण सी लगती है |यह सत्य भी है और स्वभाविक भी ,कि प्रत्येक व्यक्ति सर्व प्रथम स्वयं से प्यार करता है ,अपने जीवन से प्यार करता है ,उसे खुद का होना अच्छा लगता है,उसके बाद ही किसी अन्य को वह चाह पाता है | बचपन से यदि किसी ने उसे प्यार किया होगा या प्यार दिया होगा तो निश्चित तौर पर पहले उस प्यार करने वाले व्यक्ति ने पहले खुद को उसके  होने पर चाहा होगा ,तभी उससे प्यार किया होगा |चाहे वह माँ-बाप ही क्यों ना हो |
              होश सँभालते ही या थोड़ा सा समझदार होते ही हर बच्चा अपनी जिंदगी को एक मनचाहे कलेवर में बुन लेता है ,अपने आस पास के वातावरण से भावनाओं को चुनकर ,उनसे अपनी एक काल्पनिक दुनिया बना डालता है |जो जितना भावुक होता है उसकी दुनिया उतनी ही सरल और सच्ची परन्तु अ-वास्तविक हो जाती है |अब वह धीरे धीरे अपने होने या ना-होने पर  अपने आसपास के लोगों के जीवन में अंतर ढूंढता है और यह समझने कि कोशिश करता है कि जिनके साथ वह है, उसकी ज़िन्दगी में उसका कितना महत्व है |
              यदि उसे अपेक्षित प्यार ,महत्त्व या व्यवहार नहीं मिलता है तब ,यहीं से आरम्भ होता है ,जीवन का विकल्प यानी प्रति-जीवन ,या जिस भी स्वरुप में वह है ,वहां से वह मुक्ति पाना चाहता है |जिसका अंतिम परिणाम है मृत्यु |बचपन से लेकर जीवन के अंत तक प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अनेक बार ऐसे क्षण आते हैं कि वह तत्काल उस स्थिति से निकल भागना चाहता है ,जिसमें वह होता है |कई बार वह मृत्यु को अपनाने को तैयार भी हो जाता है |अरुणा की जो स्थिति आज है ,जिस घटना की वजह से है ,उस घटना के दौरान उसने ईश्वर से जार जार यह प्रार्थना की होगी कि उसे उस शर्मनाक घटना से पहले मौत आ जाए |यानी कि इच्छा मृत्यु के लिए वह पिछले ३५ वर्षों से बाट जोह रही है |यह सच है कि जीवन -मृत्यु की अवधि निर्धारण करने का अधिकार मनुष्य को नहीं है और इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने उसके खिलाफ फैसला दिया भी ,परन्तु प्रश्न यह है कि जितनी संवेदना हमारा समाज ,कोर्ट या मीडिया घटना हो जाने के बाद दिखाता है ,पहले से क्यों ऐसी व्यवस्था बनाने पर बल नहीं दे पाता कि ऐसी घटनाओं की पुनरावृति ना हो |
                पशु और मनुष्य में ईश्वर ने केवल एक अंतर दिया है और वह है विवेक का ,समझ का |पशुवत व्यवहार मिलने के बाद मनुष्य अपना जीवन शापित समझने लगता है और वह खुद से घृणा करने लगता है ,अर्थात वह मूलतः अपने अस्तित्व का ही विरोधी हो जाता है , तभी वह आत्महत्या या इच्छा मृत्यु के विषय में सोचने को विवश होता है | कहने के लिए तो यह बहुत अच्छा है की उसे जीवन से पलायन नहीं करना चाहिए ,परन्तु एक शापित जीवन जीने वाले का दर्द कोई नहीं समझ सकता |इस तरह की घटनाएँ   जैसे  रैगिंग के दौरान ,ससुराल में लड़की के साथ दुर्व्यवहार  (दहेज़ ना मिलने के कारण ) अथवा बलात्कार की घटनाएँ  ,यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि आखिर कौन सी दुनिया की हमने ख्वाहिश की थी और कहाँ यह सभ्यता हमें ले जा रही है |
                 एक अच्छे समाज की परिकल्पना के लिए हमें अपना नैतिक स्तर अत्यंत ऊँचा करना पडेगा और इसकी अवहेलना करने वालों के लिए कठोरतम दंड का प्राविधान करना ही पड़ेगा |

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपसे सहमत हूँ, मानसिक कष्ट शरीर को भी ढकेलने लगता है अंधकार में।

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  2. सचमुच स्थिति बड़ी तकलीफ हो जाती है... विचारणीय बात

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  3. सहमत हूँ ....कठोरतम दंड भी कम होगा इन अपराधियों के लिए ! शुभकामनायें !!!

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  4. एक अच्छे समाज की परिकल्पना के लिए हमें अपना नैतिक स्तर अत्यंत ऊँचा करना पडेगा और इसकी अवहेलना करने वालों के लिए कठोरतम दंड का प्राविधान करना ही पड़ेगा |
    सही कहा है आपने। सहमत हूं।

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  5. इच्छा मृत्यु और आत्महत्या में अंतर है। एक में शरीर है तो दूसरे में परिस्थितियां॥

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  6. इंसान के भीतर का पशु ,कब जाग उठे इसका कोई ठिकाना नहीं .या तो अपना विवेक या कठोर दंड- ऐसा दंड जो देखनेवाले को भी दहला दे तभी समाधान की आशा की जा सकती है .

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