सोमवार, 7 मार्च 2011

"हाँ,उस दिन"

आँखें थी मृग सरीखी, 
चितवन चकोर सी, 
नाजुक कलाइयाँ, 
लच  जाती थी कभी, 
कभी खाती थी बल, 
और खिल उठी थी, 
कई बार सुनहरी चूड़ियों में |
निहारता रहा था तुम्हे मै, 
पर मूँद ली थी  पलकें तुमने,
यह मौन निमंत्रण ही था , 
तम्हारा,
आलिंगन का |
पता नहीं क्यों,
तुम्हारा स्पर्श सदा लगा यूँ,  
जैसे तुमने  कुछ कहा हो,
चुपके  से | 
और कहा था  कुछ जब, 
तो लगा था  जैसे, 
तुमने छुआ हो मुझे,
अपनी सांसो से | 
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और बस अब,
बात इत्ती सी, 
कि कर रहा  हूँ याद, 
तुम्हारी बातों को, 
और गुम  सा हो रहा  हूँ,
तुम्हारे ही स्पर्श के एहसासों  में | 






8 टिप्‍पणियां:

  1. "पता नहीं क्यों,
    तुम्हारा स्पर्श सदा लगा यूँ,
    जैसे तुमने कुछ कहा हो,
    चुपके से |"
    kai baar sparsh hi sabkuchh kah jata hai..
    shabdon ki zaroorat hi nahin hoti..!!
    behad khoobsoorat !!

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  2. और बस अब,
    बात इत्ती सी,
    कि कर रहा हूँ याद,
    तुम्हारी बातों को,
    और गुम सा हो रहा हूँ,
    तुम्हारे ही स्पर्श के एहसासों में ...

    प्रेम के गहरे एकसास में डूब कर कुछ कुछ ऐसा ही महसूस होता है ....नाज़ुक लम्हों से लिखी रचना .

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  3. अहा, इतना स्निग्ध व्यवहार न देखा था शब्दों का।

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