मेरा जन्म अवश्य लखनऊ में हुआ पर जन्म के पश्चात से सारा जीवन फैज़ाबाद में ही बीता। पापा वहीं पोस्टेड हुए और फिर वहीं बस गए।
फैज़ाबाद एक साफ सुथरा शांत और अप्रगतिशील शहर हुआ करता था। कारण 123 किमी की दूरी पर लखनऊ स्थित होने से वहां विकास न हो सका।
लगभग सभी प्रकार की जरूरतें और मनोरंजन लखनऊ आकर लोग पूरा कर लेते थे। ट्रेन और बस से वेल कनेक्टेड था बहुत पहले से। एक ट्रेन सियालदह एक्सप्रेस बहुत ही सुविधजनक थी। सुबह 6 बजे बैठो और बस 9 बजे लखनऊ। शाम को लखनऊ से 630 बजे बैठो और 930 बजे फैज़ाबाद।
लोग सिनेमा देखने लखनऊ जाया करते थे। हम भी 'ब्लू लैगून' देखने आए थे एक बार।😊 अंग्रेजी फ़िल्म फैज़ाबाद में नही लगती थीं।
चूंकि पापा रेलवे में थे तो ट्रेन तो घर की बात थी। फर्स्ट क्लास में बैठ जाते थे और सारे टीटी चाचा जी हुआ करते थे।(अब तो यह फर्स्ट क्लास होता ही नही,खतम कर दिया गया। ) तिफाक से हम और हमारे बड़े भाई थोड़ा पढ़ने लिखने में अच्छे थे तो रेल महकमे में लोग इसी बात से जानते थे। खैर।
तब तमाम रिश्तेदार अक्सर घर मे आया करते थे। उस समय आजकल की तरह कोई किसी के आने पर तुरन्त उसके वापस जाने का प्लान नही पूछता था। अब कोई आया है तो कम से कम एक हफ्ता तो रुकना लाजिमी था।
खासकर बुआ फूफा आते थे या नाना जी आते थे, मौसी मौसा, मामा मामी ,बड़े पापा यही लोग आते थे। इन लोगो के आने पर अयोध्या घूमने का प्लान जरूर बनता था।
अब इन लोगों को अयोध्या लेकर जाने की जिम्मेदारी मेरी होती थी। इतनी बार अयोध्या गया हूँ कि वहां की गली गली से वाकिफ था। इतना तो वहां के पंडा भी नही घूमते थे उस समय वहां।
मेरा एक दोस्त अखिलेश भी वही से था। उसके घर भी जाना होता था। कैंची सायकिल चलाते हुए अयोध्या तक हो आते थे।😊
मेरे नाना जी कभी अयोध्या को अयोध्या नही कहते थे, हमेशा अजोध्या जी कहते थे और जब भी घर आते थे उनका वहां जाना निश्चित था। वहां से वो दोने में बेसन के लड्डू का प्रसाद लाते थे। उसी दोने में कोने पर गाढ़े लाल रंग का टीका लगा होता था,उसे हम लोग अपने माथे पर लगा लिया करते थे। नाना जी सुल्तानपुर से आते थे , सुल्तानपुर को वो सुल्तापुर बोलते थे।
अयोध्या में जहां विवाद था वहां हमेशा कीर्तन होता रहता था। कनक भवन , जन्मभूमि ,सीता रसोई, राम की पैड़ी , मानस मंदिर, तुलसी उद्यान सब जगहों पर सैकड़ों बार तो गया ही हूं।
1993 में जब ट्रांसफर होकर उत्तरकाशी गया तो लोग यह जानकर कि मैं फैज़ाबाद से हूँ यानी अयोध्या वाला फैज़ाबाद तो लोग पैर छूने लगते थे मेरा। ताजी ताजी 1992 की घटना का असर था वह।
जितनी आस्था बाहर देखने को मिली अयोध्या के प्रति ,स्थानीय लोग उतना महत्व नही देते दिखते थे।
फिर समय ने करवट बदला और आज स्थिति सामने है।
आस्था का सम्मान हो रहा है। बहुत अच्छा है। फैज़ाबाद अयोध्या का स्थानीय स्तर पर विकास भी हो जाएगा अब ऐसी आशा दिख तो रही है।
।। जय श्री राम।।
अति सुन्दर
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