यूँ तो अगर प्रतिदिन हिंदी और अंग्रेजी के राष्ट्रीय संस्करण के कोई भी दो समाचार पत्र पढ़ लिए जाएँ तो अद्दतन समुचित जानकारियां मिल जाती है फिर भी कुछ साप्ताहिक ,पाक्षिक और मासिक पत्रिकाएं समाचार पत्रों से अलग जानकारियां रोचक ढंग से उपलब्ध कराती हैं । अतः उन्हें भी पढ़ लेने का मन हो जाता है । पत्रिकाएं लेते समय सदा इस बात का ध्यान रहता है कि उस पत्रिका में किस तरह के समाचार और घटनाओं को प्रमुखता दी जाती है ।
कुछ पत्रिकाएं कादम्बिनी , नवनीत ,रीडर्स डाइजेस्ट जैसी होती हैं जिन्हे लेते समय यह विश्वास होता है कि इसमें कोई ऐसा प्रसंग नहीं छपा होगा जिसे सबके सामने पढ़ने में कोई असहजता हो । उसी श्रेणी में पहले इण्डिया टुडे पत्रिका का स्थान भी था । लगभग सारी खबरें राजनीति ,शिक्षा ,साहित्य,सिनेमा और खेलकूद से जुडी होती थीं । इसे पढ़ने में यह लाभ था कि अगर कभी समाचारपत्र में कोई समाचार पढ़ने से छूट गया हो तब भी वह समाचार इस पत्रिका में अवश्य मिल जाता था ।
इलेट्रानिक मीडिया के प्रमुख रूप से स्थापित हो जाने के बाद अब लोगों की रूचि पत्रिकाएं पढ़ने में कम हुई लगती हैं । पत्रिकाएं भी बाजार में अब नाना प्रकार की छपने लगी हैं । पता नहीं इतने कम सर्कुलेशन में उनका व्यवसाय चल कैसे पाता है । शायद इस प्रतिस्पर्धा से इण्डिया टुडे ग्रुप भी प्रभावित हुआ । अपनी गिरती लोकप्रियता के कारण होने वाली हानि की भरपाई करने के लिए उसने अब ऐसे विषयों को प्रमुखता देना प्रारम्भ कर दिया जो इस पत्रिका के लिए पहले अप्रासंगिक हुआ करते थे ।
इण्डिया टुडे के वर्त्तमान अंक में पत्रिका द्वारा जो सर्वे प्रकाशित किया गया है वह बेहद फूहड़ ,अश्लील और अनावश्यक है । इस प्रकार के विषय बेहद संजीदे होते हैं । इनके प्रस्तुतीकरण के लिए भाषा और चित्र बहुत गम्भीर और स्तरीय होने चाहिए । ऐसे प्रस्तुतीकरण के कारण इस पत्रिका के पाठकों की संख्या में कमी ही आने वाली है । इसमें प्रस्तुत तथ्य और जानकारियों से अधिक जानकारियां तो कालेज के समय में हम लोग जो सस्ती पत्रिकाएं किराए पर लाकर पढ़ते थे उनमे मिल जाया करती थीं , जबकि वह बेहद फूहड़ पत्रिका होती थीं ।
पत्रिकाओं को अपना क्षेत्र ,दायरा और पाठक वर्ग निश्चित रखना चाहिए । उन्ही के अनुसार विषयों का चयन होना चाहिए । अंग्रेजी भाषा की 'रीडर्स डाइजेस्ट' लगातार पढ़ते हुए मुझे लगभग पचीस वर्षों से अधिक हो गए और सभी अंक आज भी सुरक्षित हैं । उनमें भी सभी तरह के विषयों पर चर्चा होती है परन्तु भाषा अश्लील कभी नहीं होने पाती ।
'साहित्य समाज का दर्पण होता है ' इस विषय पर बचपन में अनेक बार निबंध लिखने को मिला था । अब यह कैसा साहित्य परोसा जा रहा है समाज के लिए ,अथवा समाज ही ऐसा हो गया है ,समझ से परे है । लोगों का यह मत हो सकता है कि उठाये गए विषय से अधिक बहुत कुछ तो आज कल इंटरनेट पर भी उपलब्ध है । परन्तु पश्चिम की ओर अगर देखें तो वहाँ भी 'टाइम' और 'प्लेबॉय' जैसी पत्रिकाओं में बहुत स्पष्ट अंतर दिखाई पड़ता है ।
पत्रिका के प्रकाशन से जुड़े लोग इस प्रकार के सर्वों से निष्कर्ष क्या निकालना चाहते हैं ,यह कभी स्पष्ट नहीं करते , इसीलिए यह और भी घातक हो जाता है । संवेदनशील विषयों को अंत में अथवा प्रारम्भ में ही निष्कर्ष अवश्य दे दिया जाना चाहिए और ऐसे विषयों को स्थान देने के लिए तो पत्रिकाएं और भी हैं । इसे तो फिलहाल साधारण ही बने रहने दिया जाए ।
क्या कहें ..... जाने किस दिशा में जा रहे हैं .....?
जवाब देंहटाएंव्रजनाएं टूट रही हैं, पश्चिम की सड़ांध भारत को भी प्रभावित कर रही है. ऐसे में सेक्स अब खुले में चर्चा करने का विषय हो गया. बाजारवाद से प्रभावित होकर धन कमाने की लिप्सा प्रबल हो रही है. …। बढ़िया आलेख
जवाब देंहटाएंसच.......बहुत ही irritating और hurting है.....ये पहली बार नहीं कई बार हुआ है...बुक स्टाल पर भी बड़ा embarrassing लगता है....
जवाब देंहटाएंकादम्बिनी , नवनीत ,रीडर्स डाइजेस्ट और अहा! ज़िन्दगी ही घर मंगाने की हिम्मत कर पाते हैं..
सादर
अनु
इस विषय पर सर्वे India Today कम से कम पिछले 5-7 वर्षों से निकाल रही है| लोग पढ़ रहे है, पत्रिका बिना विरोध बिक रही है, इसलिए सिलसिला जारी है|
जवाब देंहटाएंबाजार लुभाने के प्रयास में सामाजिकता को चटपटा बनाने का क्रम।
जवाब देंहटाएंऔर इन सर्वे की हकीकत क्या है ये भी कौन जाने ..
जवाब देंहटाएंसाहित्य समाज का दर्पण है...इसे भी उसी स्पिरिट में लीजिये...इंडिया टुडे प्रति वर्ष एक अंक ऐसा ही निकालता है... बाज़ार संस्कृति पर हावी है...
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