" खरोचें................."
खरोचें आ गईं ,
जिस्म पे मेरे,
ललक में ,
खुशबू पाने की ।
खुशबूज़दा ,
कुछ यूँ हुए ,
कि काँटों को ,
ही मसलते रहे ।
लहू जब ,
रिसने लगा ,
जिस्म से,
समझे यही दस्तूर है ।
खरोचें नहीं दस्तख़त हैं,
ख़ुशबू के उनकी ,
नही उनका,
कोई कसूर है।
वाह ... क्या अंदाज़ है ... जय हो !
जवाब देंहटाएंक्या बात है..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया ...
जवाब देंहटाएंवो नहीं सुनता उसे जल जाना होता हैं। प्यार दीवाना होता हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा भाव पूर्ण रचना,,,अमित जी ,,,
जवाब देंहटाएंRecent post: रंग गुलाल है यारो,
क्या बात भाई .... बहुत चोट खाए लगते हैं हुज़ूर |
जवाब देंहटाएंकभी कभी पता ही नहीं चलता है कि काँटों से खेल रहे हैं...गहन अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति,आभार.महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंगहन अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंदिनांक 11/03/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
गज़ब का दर्द है रचना में.
जवाब देंहटाएंसार्थक और सुंदर रचना .....
जवाब देंहटाएंआप भी पधारो स्वागत है ...
http://pankajkrsah.blogspot.com
bhavpurn- atiutam-***
जवाब देंहटाएंदर्द को बहुत संवेदना के साथ प्रस्तुत किया आपने ..मगर दर्द किसी भी सूरत में हो दर्द खूबसूरत नहीं हो सकता ...
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