शनिवार, 9 मार्च 2013

" खरोचें................."


खरोचें आ गईं ,
जिस्म पे मेरे,
ललक में ,
खुशबू पाने की ।

खुशबूज़दा ,
कुछ यूँ हुए ,
कि काँटों को ,
ही मसलते रहे ।

लहू जब ,
रिसने लगा ,
जिस्म से,
समझे यही दस्तूर है ।

खरोचें नहीं दस्तख़त हैं,
ख़ुशबू के उनकी ,
नही उनका,
कोई कसूर है।

14 टिप्‍पणियां:

  1. वो नहीं सुनता उसे जल जाना होता हैं। प्यार दीवाना होता हैं।

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  2. क्या बात भाई .... बहुत चोट खाए लगते हैं हुज़ूर |

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  3. कभी कभी पता ही नहीं चलता है कि काँटों से खेल रहे हैं...गहन अभिव्यक्ति...

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  4. बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति,आभार.महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  5. दिनांक 11/03/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  6. सार्थक और सुंदर रचना .....
    आप भी पधारो स्वागत है ...
    http://pankajkrsah.blogspot.com

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  7. दर्द को बहुत संवेदना के साथ प्रस्तुत किया आपने ..मगर दर्द किसी भी सूरत में हो दर्द खूबसूरत नहीं हो सकता ...

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