शायद याद हो तुम्हें,
बादलों की झीनी सी परत,
उसके पीछे से,
लुका छुपी,
करता चाँद,
जैसे दुपट्टे के पीछे से,
चांदनी छिटकाता था,
चेहरा तुम्हारा,
अक्सर |
हवा तेज़ थी बहुत,
उस दिन,
या बादलों में ही,
होड़ सी थी,
छू लेने को,
उस चाँद को,
या शायद,
दुपट्टा बस,
लिपट जाना चाहता था,
अक्स बन तुम्हारा,
मै इंतज़ार करता,
रहा था,
रहा था,
रुकने का,
हवा का,
क़ि,
शायद बादल थमें,
और देख सकूं चांद को,
और दुपट्टा भी,
ठहर जाए तनिक देर को,
और नज़र भर देख लूं,
अपनी नज़र को,
पर तुम लपेटे,
दुपट्टे को,
अपने चेहरे पे,
ग़ुम सी हो गई थीं,
अँधेरे में,
क्योंकि,
वो चाँद भी,
ओट पा गया था,
घने बादलों का |
और तुम भूल सा,
गईं थी,
झटकना जुल्फों को,
जो माथे पे,
जब भी आये,
तो बस,
बन ही गए,
तुम्हारा नकाब !!!!!
very romantic.....
जवाब देंहटाएंसमय ठहरना तब हो पाता,
जवाब देंहटाएंअगर जरा वह रुक जातीं।
आह! बहुत खूबसूरत अहसासो को पिरोया है।
जवाब देंहटाएंरूमानी एहसास की रचना
जवाब देंहटाएंसुन्दर
उफ़ येजालिम दुपट्टा :).बेहद रोमांटिक कविता.
जवाब देंहटाएंबहुत ही प्यारी रचना....
जवाब देंहटाएंehsaso ko jaga diya mere bhavpurn rachna....................
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है सर!
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दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
कल 24/10/2011 को आपकी कोई पोस्ट!
नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद
झलक दिखा के कर गई दीवाना , मगर थी कौन ये तो जाना ?
जवाब देंहटाएं<3
जवाब देंहटाएं:-)