तुम्हारी बातें,
सब याद हैं मुझे |
लगता है तुम्हे,
कि,
कि,
कुछ भूला भूला सा,
कुछ गुम गुम सा,
रहता हूँ,
मै |
सच यह,
होता नहीं,
तुम्हारी कही अनकही,
सब सुन लेता हूँ,
पर,
कहते हैं ना,
ज़ख्मों को,
छेड़ो तो,
सूखते नहीं कभी |
इसी ना छेड़ने को,
चुप्पी समझ लो,
मेरी |
.
.
.
.
.
वक्त शायद बीते,
और,
नई परत,
आए रुख की,
रुखसार पे,
रुखसार पे,
उनके,
काश !
ऐसा हो,
ऐसा हो,
फिर,
नामुमकिन ही होगा,
उनके लिए,
चुप करा पाना,
मुझे |
.
.
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Bahut hi khubsurat......
जवाब देंहटाएंशब्दश : सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंखूबसूरत रचना।
जवाब देंहटाएं.
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वक्त शायद बीते,
और,
नई परत,
आए रुख की,
रुखसार पे,
उनके,
काश !
ऐसा हो,
फिर,
नामुमकिन ही होगा,
उनके लिए,
चुप करा पाना,
मुझे |
... bahut hi badhiyaa
चार बार पढ़ी रचना फिर भी प्रतिक्रिया के लिए शब्द नहीं ढूंढ पाई हूँ
जवाब देंहटाएंअद्भुत भाव हैं.
Mere Shabd
जवाब देंहटाएंपर,
कहते हैं ना,
ज़ख्मों को,
छेड़ो तो,
सूखते नहीं कभी......
Bhaut hi pyari pantiya hai....
सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना ....
जवाब देंहटाएंखुबसूरत शब्दों से सजी रचना....
जवाब देंहटाएंआपके ब्लॉग का परिचय एक खूबसूरत कविता है ... स्वेटर उधेड़ने का रूपक खूब जंचा ....
जवाब देंहटाएंपरंतु रुख़सार पर नई परतें झुर्रियों के रुप में न आएं, खुदा खैर करे :)
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की ११०० वीं बुलेटिन, एक और एक ग्यारह सौ - ११०० वीं बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंअनुभूति-प्रवण रचना !
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