रविवार, 18 अगस्त 2013

" बुक-मार्क…… "


पुस्तक पढने का शौक तो बहुत पुराना है । बस रफ़्तार और कंसंट्रेशन घटता बढ़ता रहता है ,उस पुस्तक में अभिरुचि के अनुसार । मुझे तो पुस्तक पढ़ते समय उसमें रखा 'बुकमार्क' भी अत्यंत उपयोगी लगता है । एक एक कर के पन्ने पढ़ते जाओ और 'बुकमार्क' खिसकाते जाओ । लगता है जैसे पुस्तक में परोसे व्यंजन को खाने के लिए 'बुकमार्क' छुरी-कांटे का काम करता है । 'बुकमार्क' न हो तो सब पन्ने आपस में गड्ड -मड्ड हो जाते हैं  ,बिलकुल वैसे ही जैसे बिना छुरी-कांटे के डोसा खाया जाये तो सीधा सा पूरी-सब्जी बन जाता है ।

पुस्तक पढने का क्रम कितनी भी बार टूट जाए पर 'बुकमार्क' लगे होने पर भरोसा रहता है कि पुनः पढ़ना प्रारम्भ करने पर पुस्तक के पन्ने आपस में भ्रम नहीं उत्पन्न कर पायेंगे । 

यदि किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा पढ़ी जा रही पुस्तक हाथ में आ जाए और उस पुस्तक में कहीं पन्नो के मध्य 'बुकमार्क' लगा हो तब यह ध्यान रखना पड़ता है कि दूसरे व्यक्ति के द्वारा लगाया गया 'बुकमार्क' अपने स्थान से न हटने पाए । यदि 'बुकमार्क' न लगा हो तब यह तय नहीं हो पाता कि उस पुस्तक को कोई अन्य पढ़ भी रहा है अथवा नहीं ।  

प्रतेक व्यक्ति का जीवन भी एक पुस्तक की ही भांति होता है । वह नित नए पन्ने लिखता है जो उसके जीवन में जुड़ता जाता है । जिसे उसके आसपास के और उसके समाज के लोग पढ़ते जाते हैं । इस पुस्तक की विशेष बात यह होती है कि इसे लिखने वाला भी स्वयं इस पुस्तक को पढता रहता है । परन्तु इस पुस्तक के पन्ने हज़ारों -लाखों की संख्या में होते हैं क्योंकि व्यक्ति के जीवन में प्रत्येक क्षण तमाम घटनाएं घटित होती रहती हैं और प्रत्येक घटना पर एक नया पन्ना जुड़ता रहता है । इस पुस्तक को पढने में इसे स्वयं लिखने वाला भी अक्सर गलती कर जाता है । इसमें गलती न होने देने के लिए इस जीवन रुपी पुस्तक के लिए भी एक 'बुकमार्क' की आवश्यकता होती है । 

और यह 'बुकमार्क' उसके जीवन का 'हमसफ़र' ही हो सकता है अर्थात दोनों एक दूसरे के जीवन के 'बुकमार्क' होते हैं । जैसे बचपन में हम लोग दो पुस्तकों को अगल बगल रख कर उनके प्रत्येक पन्नों को क्रमवार एक दूसरे के बीच  (बुकमार्क की तरह) रखते चले जाते थे और बाद में दोनों पुस्तको को  दोनों हाथों में ले कर उन पन्नों को क्रमवार छोड़ते थे तब बड़ा सुन्दर दृश्य उत्पन्न होता था ।बस वैसे ही जीवन में अगर हमसफ़र के प्यार का 'बुकमार्क' लग जाए तो जीवन भी महक /चहक उठता है और संवरा संवरा सा लगने लगता है ।     

अगर लोग अपने हमसफ़र को बस कुछ यूं ही अपने अपने जीवन रुपी पुस्तक का 'बुकमार्क' बना लें फिर कभी भी उन पुस्तकों को पढने में कोई भी पन्ने आपस में भ्रम नहीं उत्पन्न करेंगे और प्रत्येक नया पन्ना बहुत साफगोई से उनकी जीवन रुपी पुस्तको में जुड़ता चला जाएगा । 

बस इसीलिए 'उनको' हमने तो अपनी ज़िन्दगी का 'बुकमार्क' बना रखा है  । अब वह जब चाहे ,जहां चाहें , मेरे पन्नों को बंद कर दें बस वँही ठहर जाऊँगा और जब यही 'बुकमार्क' जीवन के अंतिम पन्ने पर लग जाएगा तो शायद सम्पूर्ण भी हो जाऊँगा । 



8 टिप्‍पणियां:

  1. Waah! What a thought....adbhut vichar hai Amitji:-)

    Der saber apke is vichar ko bhi poetic karne ka prayas karunga...Gustaakhi maaf kijiyega...:-)

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  2. आपने सायास लगाया ,यहाँ तो अनायास लग गया है !

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