तलब लगी ,
जब कभी उनकी ,
भर जी निहारा किये ,
अफ़सोस ,
इल्म न करा पाए ,
मोहब्बत का अपनी,
पर एहसास ,
तो एहसास है ,
एक दिन होना ही था ,
अचानक उस शाम यूँ ही ,
अक्स सा उभरा उनका ,
खिड़की पर जब ,
लगा सरेशाम ,
चाँद सा ,
उग आया हो कोई ,
काली जुल्फें ,
संवारती थी ,
गोरी खनकती कलाईयाँ
नज़रें मिली ,
जब उनकी ,
कंघी की ओट से ,
लगा कंघी में ,
अरझे हों जैसे ,
जुगनू कई ,
होंठों में बुदबुदाया मै ,
'रेयरेस्ट ऑफ द रेयर'
वाकया है यह तो ,
फिर तो 'मृत्यु दंड'
तुम्हारी निगाहों के लिए ,
आवाज़ उधर से आई ,
और वो खिड़की ,
बंद हो गई ,
सदा के लिए '
शायद वह भी थे सजा-याफ्ता 'उम्रकैद' की ।
क्या बात है !
जवाब देंहटाएंसहानुभूति :)
बहुत ही सुन्दर बेहतरीन प्रस्तुती,धन्यबाद।
जवाब देंहटाएंफिर तो 'मृत्यु दंड'
जवाब देंहटाएंतुम्हारी निगाहों के लिए ,
आवाज़ उधर से आई
और वो खिड़की ,
बंद हो गई ,
सदा के लिए '
बहुत सुन्दर.
बहुत खूब :):)
जवाब देंहटाएंखूब .... उस मन की पीड़ा की अभियक्ति यूँ भी ....
जवाब देंहटाएंअफ़सोस ,
जवाब देंहटाएंइल्म न करा पाए ,
मोहब्बत का अपनी,
सुंदर सृजन ! बेहतरीन रचना !!
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क्या बात है...
जवाब देंहटाएंअहा, बड़ा कोमल। आप कैद रहें, वही भला।
जवाब देंहटाएंकोमल ह्रदय से भावपूर्ण रचना...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
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