"शब्द भीतर रहते हैं तो सालते रहते हैं, मुक्त होते हैं तो साहित्य बनते हैं"। मन की बाते लिखना पुराना स्वेटर उधेड़ना जैसा है,उधेड़ना तो अच्छा भी लगता है और आसान भी, पर उधेड़े हुए मन को दुबारा बुनना बहुत मुश्किल शायद...।
तितली सी
लरजती वो
मछली सी
मचलती वो
ग़ज़ल सी
तबस्सुम थी
आंखे थी कश्ती वो
पलकें मस्तूल सी
आ बैठे वो पास जब
रोशनी हो जुगनू सी।
Bahut khoob sir
उम्दा प्रस्तुति
Bahut khoob sir
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