शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

"रुख" से "रुखसार" तक.......


तुम,
तुम्हारी बातें,
सब याद हैं मुझे |
लगता है तुम्हे,
कि, 
कुछ भूला भूला सा,
कुछ गुम गुम सा, 
रहता हूँ, 
मै |
सच यह, 
होता नहीं,
तुम्हारी कही अनकही, 
सब सुन लेता हूँ, 
पर, 
कहते हैं ना, 
ज़ख्मों को, 
छेड़ो तो,
सूखते नहीं कभी |
इसी ना छेड़ने को, 
चुप्पी  समझ लो, 
मेरी  |
.
.
.
.
.
वक्त शायद बीते,
और,
नई परत, 
आए रुख की,
रुखसार पे,
उनके,
काश !
ऐसा हो,
फिर, 
नामुमकिन ही होगा,
उनके लिए, 
चुप करा पाना, 
मुझे |
.
.
.
.

13 टिप्‍पणियां:

  1. .
    .
    वक्त शायद बीते,
    और,
    नई परत,
    आए रुख की,
    रुखसार पे,
    उनके,
    काश !
    ऐसा हो,
    फिर,
    नामुमकिन ही होगा,
    उनके लिए,
    चुप करा पाना,
    मुझे |
    ... bahut hi badhiyaa

    जवाब देंहटाएं
  2. चार बार पढ़ी रचना फिर भी प्रतिक्रिया के लिए शब्द नहीं ढूंढ पाई हूँ
    अद्भुत भाव हैं.

    जवाब देंहटाएं
  3. Mere Shabd

    पर,
    कहते हैं ना,
    ज़ख्मों को,
    छेड़ो तो,
    सूखते नहीं कभी......

    Bhaut hi pyari pantiya hai....

    जवाब देंहटाएं
  4. आपके ब्लॉग का परिचय एक खूबसूरत कविता है ... स्वेटर उधेड़ने का रूपक खूब जंचा ....

    जवाब देंहटाएं
  5. परंतु रुख़सार पर नई परतें झुर्रियों के रुप में न आएं, खुदा खैर करे :)

    जवाब देंहटाएं
  6. ब्लॉग बुलेटिन की ११०० वीं बुलेटिन, एक और एक ग्यारह सौ - ११०० वीं बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

    जवाब देंहटाएं