हमारे बाबा जी हुक्का पीते थे ,जिसमे नीचे पानी भरा होता है और ऊपर चिलम में तम्बाकू होती है। उसे अक्सर धोने का और फिर तम्बाकू भर कर माचिस से सुलगाने का काम हम लोगों का हुआ करता था।
हम और हमारे बड़े भाई , निर्देशन इन्ही भाईसाहब का रहता था,ने कई बार उस हुक्के पर अनुभव आजमाया था।
उसकी गुड़गुड़ाहट और फिर सफेद रंग का धुंआ मुंह से निकालने में अलग ही मजा आता था।
उनकी छोड़ी हुई अधजली बीड़ी (बालक छाप और पहलवान छाप)भी पी थी कई बार। एक बार खांसी आ गई तो पकड़ लिया ,नारकोटिक्स वालों ने नही, हमारे बेटों की दादी अम्मा ने, फिर चप्पल से मार खाई थी।
"न मार खाते तो आज हम भी उसी 'क्रूज़' पर होते।"
#सत्य_के_साथ_प्रयोग
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअहा मेरे दादा जी के हुक्के की कथा भी मिलती जुलती है। पर लडकियों को ये हुक्का छूने ,मांजने और चमकाने की सख्त मनाही हुआ करती थी।और चप्पल कथा आनंदित कर गई 🙂
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