विद्या माँ की कसम
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बचपन मे ,या लगभग जब तक पढ़ाई की ,यहां तक कि इंजीनियरिंग कॉलेज तक ,जब कोई कागज,कॉपी,किताब जमीन पर गिर जाती थी तो उसे तुरंत उठा कर चूम कर माथे से लगा कर मेज पर रख लेते थे। यह स्वभावतः अपने आप बिना कुछ सोचे और तत्काल हो जाता था।
बातचीत में अक्सर किसी बात पर जोर देने या अपनी बात का विश्वास दिलाने के लिए जब भी कसम खाई ,विद्या माँ की ही कसम खाई।
विद्या माँ के प्रति सम्मान और उनके अपमान से उपजे कोप से भय का प्रतीक होता था ,यह कसम खाना और कॉपी किताब को चूमना। 😊
विद्या माँ की जय।
बहुत ही भावपूर्ण स्मृतियों को ताज़ा करता लेख अमित जी। विद्या माँ की झूठी कसम से कंपित मन की स्थिति उन दिनों किसी बड़े अपराध की अनुभूति कराती थी। अनायास स्कूली दिनों में झांक गया मन। सस्नेह शुभकामनाएं।
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