बाएं हाथ में लट्टू पकड़ कर वह दाहिने हाथ से उस लट्टू पर लत्ती लपेट रहा था । लट्टू सफ़ेद डोरी (लत्ती) में यूं लिपटा जा रहा था ,जैसे शर्माते हुए जल्दी जल्दी अपना बदन ढक रहा हो,सफ़ेद धारीदार कपड़ों में । पूरा लपेटने के बाद उसने दाहिने हाथ में लत्ती का थोड़ा सा सिरा पकड़ा और अपने हाथ को पीछे खींचते हुए लट्टू को जमीं पर पटक दिया । अब लट्टू नाच रहा था ,ज़मीन पर , गोल गोल एकदम भन्नाते हुए । जब नाचना बंद हुआ ,लट्टू थक कर लुढ़क चुका था ज़मीन पर वो भी एकदम निर्वस्त्र ।
घर से निकलते समय रोज़, वह यह सोच घबराती थी कि चौराहे पर पहुँचते पहुँचते घर से चौराहे के बीच, फिर न जाने कितनी जोड़ी निगाहें उसके बदन पर खींचेंगी, अक्षांश- देशांतर की रेखाएं और लपेटेंगी नज़रों की लत्ती उसके बदन पर चारों ओर ,फिर वे निगाहें मन ही मन खींचेंगी उस लत्ती को जोर से, और महसूस करती रहेंगी , उसका नाचना, गोल गोल ,वह भी बिना कपड़ों के । जब तक वो रास्ता पार होगा ,वह ढुलक कर गिर चुकी होगी अपनी खुद की ही निगाहों में । लट्टू के पास तो वार करने के लिए छोटी सी लोहे की कील भी थी ,पर उसके पास तो वह भी नहीं ।
ओह!!!
जवाब देंहटाएंमार्मिक लेखन....
अदभुद कल्पनाशीलता अमित जी....
सादर.
उफ़.....
जवाब देंहटाएंअमित जी....
जवाब देंहटाएंसच...
मार्मिक...
लट्टू तो अपनी धुरी पर नाचता है..बहुत गहरी कल्पना और साम्य।
जवाब देंहटाएंबहुत ही गहन भाव लिए हुए ...यह प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंकील होती भी तो उसी को चुभोती रहती..
जवाब देंहटाएंगजब!
जवाब देंहटाएंमार्मिक...
जवाब देंहटाएंवाह! क्या बात कही आपने.
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