गुरुवार, 19 सितंबर 2024

नक्षत्र ने कहा।

तुम एक पहाड़ हो मेरे लिए।

जिसकी पीठ से लिपट मुझे थोड़ी देर सिसकना था। इन सिसकियों में कुछ ठण्डी आहें शामिल थी जिन्हें आंसुओं से गर्म करना था ताकि वे चाहतों के समन्दर में गिरने से पहले ही उड़ जाए।

मैं आंसूओं को बादल बनाना चाहती थी उसके लिए मैंने तुम्हारी पीठ चुनी तुम मेरे जीवन के पहले वो शख्स थे जिसकी रीढ़ की हड्डी झुकी हुई नही थी इसलिए मन में कहीं एक गहरी आश्वस्ति थी कि तुम्हारे आलम्बन से मेरी गति पर कोई प्रभाव नही पड़ेगा तुम्हारा पास अपेक्षाओं का शुष्क जंगल भी नही था इसलिए मैंने मन के अरण्य की कतर ब्योंत कर एक साफ रास्ता तुम तलक आने का बनाया। 

अमूमन पीठ का आलम्बन पलायन की ध्वनि देता है या फिर इसमें किसी को रोके जाने का आग्रह शामिल हुआ दिखता है मगर तुम्हारे साथ दोनो बातें नही थी। 

तुम्हारी पीठ चट्टान की तरह दृढ़ मगर ग्लेशियर की तरह ठण्डी थी मेरे कान के पहले स्पर्श ने ये साफ तौर पर जान लिया था कि तुम्हारे अंदर की दुनिया बेहद साफ़ सुथरी किस्म की है वहां राग के झूले नही पड़े थे वहां बस कुछ विभाजन थे और उन विभाजन के जरिए अलग अलग हिस्सों में तनाव,ख़ुशी और तटस्थता को एक साथ देखा जा सकता था।

तुम्हारे अंदर दाखिल होते वक्त मुझे पता चला कि जीवन में प्लस और माइनस के अलावा भी एक चुम्बकीय क्षेत्र होता है जिसकी सघनता में दिशाबोध तय करना सबसे मुश्किल काम होता है तुमसे जुड़कर मैं समय का बोध भूल गई थी संयोगवश ऊर्जा का एक ऐसा परिपथ बना कि यात्रा युगबोध से मुक्त हो गई नि:सन्देह वो कुछ पल मेरे जीवन के सबसे अधिक चैतन्य क्षण है जिनमें मैं पूरी तरह होश में थी।

तुम पहाड़ थे तो मैं एक आवारा नदी मुझे शिखर से नीचे उतरना ही था सो एकदिन बिना इच्छा के भी मैं घाटी में उतर आई मगर मगर मेरी नमी अभी भी तुम्हारी पीठ पर टंगी है इनदिनों जब मैं यादों की गर्मी में झुलस कर एकदम शुष्क हो गई हूँ तो मैं चाहती हूँ तुम मेरी नमी को बारिशों के हाथों भेज दो मैं रोज़ बादलों से तुम्हारे खत के बारें में पूछती हूँ इस दौर के बादल बड़े मसखरे है वो कहते है उनके पास बिन पते की चिट्ठियां है उनमें से खुद का खत छाँट लो! अब तुम्ही बताओं जब तुम्हारी लिखावट पलकों के ऊपर दर्ज है मैं कैसे पता करूँ कि कौन सा खत मेरे लिए है?

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