गुरुवार, 8 सितंबर 2011

"..और वो सयानी हो गई"

बात करते करते, 
अब वो नहीं लपेटती, 
कोना चुन्नी का, 
अपनी उँगलियों में | 
ना ही कुरेदती है, 
मिटटी ज़मीं की, 
पैर के अंगूठे से | 
आँख भी नहीं मीचती अब, 
कमरख खाते खाते | 
ना ही खेलती है, 
जूस ताक,
चियों से इमली के |
अब वो झगडा भी, 
नहीं करती,
हारने पे,
लूडो के खेल में |
ना ही उचक के, 
देखती है, 
खिड़की से बाहर,
आते जाते लोगों को |
पहले अक्सर,
खोल देती थी, 
मौक़ा पा,
बछड़े को खूटें से,
और पीने देती थी, 
उसे भर पेट दूध माँ का | 
पर अब उसे यह भी, 
नहीं अच्छा लगता | 
उसने शायद, 
जान लिया है, 
पढ़ना नज़रों को, 
लोगों की |
हाँ !! बस निहारती है, 
आसमान एकटक,
अक्सर, 
और मुस्कुरा उठती है, 
देख परिंदों को |

"शायद ज़िन्दगी की उलझनों ने उसकी शैतानियाँ कम कर दीं,
और लोग समझते हैं, अब वो सयानी हो गई है |" 

21 टिप्‍पणियां:

  1. सही लिखा है आपने ..उसे हमने पहले ही परिपक्कव बनाना चाह और आज हम उसकी शैतानियों से महरूम हैं .....कहाँ गया वह बालपन और कहाँ गयी वह शरारतें अब सब सोचने को मजबूर करता है ...!

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  2. जब आँखें बोलने लगती हैं, सयानापन आने लगता है।

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  3. बहुत सुंदर अमित जी. बचपन घुमा लाये आप. "ना ही खेलती है,जूस ताक,चियों से इमली के "..
    इमली के चियो को तो मैं भूल ही गया था. शायद उनकी जगह किसी और ने ले ली हैं अब. भीतर तक कही टीस भर गई आपकी यह कविता. वक्त को इस तरह बदलते देख हैरान हूँ.

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  4. सयाने तो बच्चे ही होते हैं जो जीवन को भरपूर जीना जानते हैं , लेकिन अफ़सोस बढती उम्र के साथ ये स्वछंदता और ये बचपन दोनों कहीं खो जाते हैं और हमारे युवा भी उलझनों भरी उस राह में व्यस्त हो जाते हैं।

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  5. umra ke saath saath , logon ko padhte hue kitna begana ho jata hai khud se aadmi aur samajhdaar kaha jane lagta hai...

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  6. बेहद गहरे अर्थों को समेटती खूबसूरत और संवेदनशील रचना....

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  7. बचपन और सयानेपन के बीच की पगडंडी का बहुत ही खूबसूरत चित्रण किया है।

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  8. सही कह रही है आपकी रचना... ऐसी बहुत सी मजबूरियां और जिम्मेदारियां होती हैं इन्सान की जो उसे समय से पहले बड़ा और परिपक्व बना देती हैं... मार्मिक रचना

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  9. बहुत सुंदर अमित sir बचपन घुमा लाये आप. "ना ही खेलती है,जूस ताक,चियों से इमली के "..
    इमली के चियो को तो मैं भूल ही गया था. शायद उनकी जगह किसी और ने ले ली हैं अब.

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  10. अब शायद वह बचपना भी नहीं रहा। आज के बच्चों को कमरख का भी ज्ञान शायद ही हो। बढिया अभिव्यक्ति के लिए बधाई॥

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  11. समझदार होने के क्रम में हम हर दिन खुद से बेगाने होते जाते हैं ...
    सुन्दर कविता !

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  12. बहुत खूबसूरती से एक लड़की के एहसासों को शब्दों में पिरोया है आपने

    बधाई

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  13. कभी -कभी लगता है कि सयानापन न ही आए तो अच्छा है

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  14. बहुत सही कहा आपने
    "शायद ज़िन्दगी की उलझनों ने उसकी शैतानियाँ कम कर दीं,
    और लोग समझते हैं, अब वो सयानी हो गई है |"

    ज़िन्दगी की उलझने जब इंसान की हंसी और स्वछंदता चुरा लेती है , तो सब उसे सयाना समझने लगते हैं | यथार्थ है !!

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  15. बहुत सच कहा है। बहुत सुंदर भाव अभिव्यक्ति॰

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