रविवार, 23 अगस्त 2020

तरंगे मोबाइल की....

 एयरपोर्ट लाउन्ज में बैठा देख रहा हूँ , जिसे देखो वो मोबाइल पर बातें करने में व्यस्त है। किसी के कान तारों से उलझे है तो कोई बैटरी बैंक को पूजा के नारियल की तरह हाथ मे संभाले हुए चलता जा रहा है।

मुझे तो सभी मोबाइल से निकलती बातें पतंगों की डोर की तरह ऊपर हवा में लहराती दिखाई पड़ रही हैं। मोबाइल से निकलती सारी तरंगे, बातों की ,एक दूसरे को काटती हुई, तर ऊपर चढ़ती हुई, आपस मे उलझती हुई आंखों के सामने से गुजर रही हैं।

अभी एक मोबाइल से 'मिस यू' की डोर निकल कर अपने प्रेमिका की ओर जा ही रही थी कि बीच मे करीब से निकली एक दूसरी डोर बॉस को जी सर जी सर कहती गुजरी तो वो मिस यू वाली डोर बीच रास्ते मे टूटते टूटते बची। हल्का सा लोच आया ही था कि संयत प्रेमी ने ठुनका मार कर अपनी डोर फिर प्रेमिका की ओर तान दी। 

इसी बीच प्रणाम भैया कहती एक तीसरी डोर आकर उन दोनों डोर में रक्षा बंधन के धागे की तरह आकर उलझी ही थी कि जी सर जी सर वाली डोर बैटरी के अभाव में कन्ने से कट गई।

सच मे तो पूरा गुच्छा सा है डोरों का ,आपस मे एकदम गुत्थम गुथ्थ, बस किसी तरह ऊपर वाले डोर हौले से अलग कर देख सुन पा रहा हूँ।

अभी एक चमकती तोतली सी डोर एकदम से ऊपर से आई ,उसे देख बाकी सभी डोरों ने उसे रास्ता दे दिया। उस डोर पर तोतले से लफ्ज़ झूल रहे थे जो मम्मा मम्मा बोल भी रहे थे और नाच नाच कर टाटा भी कर रहे थे, उस डोर पर उस तरफ पतंग की तरह उनकी मां बंधी थी शायद और इधर बच्चे की अंगुली थामे उसकी नानी बैठी थी जिनकी पलकें वाइपर की तरह उनकी आंखों के आंसू पोछती जा रही थी।

इन हवाओं में क्या क्या घुल जाता , कितने एहसास, कितने जज्बात और न जाने कितने हालात।

"लफ़्ज़ों को अगर इजाज़त मिल जाये इन हवाओं की कैद से बाहर आने को तो न जाने कितने सैलाब उमड़ पड़ें।"

फिर तो इनकी कैद ही बेहतर , ज़िन्दगी के लिए।

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