'बादल' जब सागर का समर्पण संजोते संजोते थक जाते हैं और हवाएं भी साथ नही देती तो 'बारिश' बन फना हो जाते हैं।
लफ़्ज़ों का समर्पण संजोते संजोते आंखें थक जाती हैं और पिघल कर पैमाना बन जाती हैं।
लम्हों का समर्पण संजोते संजोते काल खंड फना हो जाते हैं।
समर्पित हों जाना सरल है, किसी का समर्पण स्वीकार कर निभाना मुश्किल।
रात और सुबह की गुत्थम गुत्थी में अक्सर रातें हार जाती हैं।
यथार्थ से स्वप्न कब जीत सका है।
कड़ी धूप के आगे बारिश कितनी ठहरती भी भला। चली गई मायूस होकर कहीं।
धूप में मासूमियत नही होती , यह कहाँ पता था बारिश को।
पुरानी खूब पढ़ी हुई किताब के पन्ने अक्सर पलटने पर एक जगह आ कर रुक जाते है, शायद वहाँ अक्सर ही बुकमार्क लगाया गया रहा होगा।
कुछ बारिशें भी ज़िन्दगी में बुकमार्क की तरह होती हैं। पुराने पन्ने पलटने पर आज भी तरबतर कर जाती हैं।
यूँ ही तसव्वुर में एक नज़्म मचलते मचलते कान में गुनगुना गई कुछ। आंखे खोल कर देखा तो सिरहाने एक बारिश पसरी मिली।
पसरी हुई बारिश की गोद मे सिमटने का लुत्फ ही कुछ और होता है।
पर बारिश का होना और होकर गुजर जाना कुछ यूँ होता है जैसे कभी महक उठे कहीं और किसी रूह की चहलकदमी का अंदेसा हो जाये।
वो पसरी हुई बारिश पनाह पा गई है अब आंखों में , जब देखो तब बरस जाती है।
बारिश हल्की हल्की सी हो तो उससे बचने के लिये आँखों पर हथेली रख लेते हैं।
थोड़ा बारिश और तेज़ होती है तो सिर पर हथेली रख लेते है उससे बचने को।
और बहुत तेज़ जब हो ही जाये बारिश तो फिर दोनों हथेली ऊपर कर भीगने का ही दिल करता है।
"बारिश मोहब्बत की दूसरी स्पेलिंग ही तो है।"
बारिश में नदी किनारे यह समझ नही आ रहा था कि बादल बरस कर नदी से मिल रहा है या नदी बारिश की बूंदों के सहारे बादल से मिलने की गुहार लगा रही है।
"परस्पर प्रेम में प्रवाह की दिशा और गति का आकलन सम्भव नही होता।"
दो दिलों के दरमियानी फ़ासले दिनों,महीनों,सालों के हों तो भी तय हो जाते हैं पर अगर यह फ़ासले मौसमों के हो जायें तो फिर तय नही हो पाते।
बारिशों का मौसम खतम न हो जाये , हो सके तो फासले तय कर लेना।
"....क्योंकि मौसमों की दहलीज पर ही किस्से फ़ना होते है अक्सर।"
गर आसमान के कोने दिखते तो उन्हें खींच चारों ओर से जमीन पर खूंटे से बांध कर एक तम्बू बना लेता।
फिर अपनी खुद की एक बारिश होती और बादल भी।
पर बादल और बारिश किसी एक के कहाँ होते है।
फुहार सी बारिश बहुत शानदार होती है, तन नही भीगता इसमें पर मन भीग जाता है।
झिसिर झिसिर बारिश होती है ,लगातार पानी गिरता है इसमें मन ऊब जाता है।
तड़पड़ तड़पड़ बारिश होती है आवाज के साथ और जल्दी ही खत्म, इसमें न मन भीगता है और न तन।
एक बारिश होती है मूसलाधार यानी मोटी मोटी बारिश , इसमें मन मे किसानों के लिए हर्ष होता है कि उनकी मुराद पूरी हो रही।
प्रकृति की इस व्यवस्था में कभी कभी जब उथल पुथल होती है तब बारिश बनने से पहले ही बादल फट जाते हैं। जैसे मन फट जाता है न किसी के व्यवहार से और फिर अंत की कामना होती है वैसा ही दुःख और प्रलय आता है बादल के फटने से।
बारिश में इतनी विभिन्नताएं है और उसको नापते है मिलीमीटर में। इतनी छोटी इकाई से इतने व्यापक स्वरूप का आभास और एहसास इस मिलीमीटर से बनता नही।
"बारिश और मोहब्बत का कोई भी पैमाना न्यूमेरिकल
वैल्यू में नही हो सकता।"
वैल्यू में नही हो सकता।"
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर जी की १२७ वीं पुण्यतिथि “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति ।
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