शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

" लालटेन सी ज़िन्दगी ......"


जलाता हूँ रोज़ ,
थोड़ा थोड़ा खुद को ,
रोशनी तो होती है ,
पर इर्द गिर्द ,
जमा कालिख भी होती है ,

मन मैला होता है जब ,
मांजता हूँ पोंछता हूँ ,
धीरे से बुझी बाती को बढाता हूँ ,
फिर से जलाने के लिए ,

पहले रोशनी अधिक ,
और कालिख कम थी ,
अब कालिख के आगे ,
रोशनी नम है ,

अब बाती बुझने को है ,
एक दिन भभक कर ,
रोशनी जब होगी खूब ,
ज़िन्दगी फिर तुझे ,
कालिख के नाम कर दूंगा ।

15 टिप्‍पणियां:

  1. रोशनी बँधी काँच से, प्रेरित तेल से। सुन्दर भाव

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  2. नमस्कार आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (13-10-2013) के चर्चामंच - 1397 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति
    और हमारी तरफ से दशहरा की हार्दिक शुभकामनायें

    How to remove auto "Read more" option from new blog template

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  4. बेहद अच्छी लगी कविता।

    आपको सपरिवार विजय दशमी की हार्दिक शुभ कामनाएँ।

    सादर

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  5. बहुत सुंदर...वाकई लालटेन सुंदर बिंब बन उभरा है मनोभावों को व्‍यक्‍त करने के लि‍ए

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  6. सुन्दर बिम्ब और सुगठित शब्दों में भाव तरह उभर कर आये हैं.
    बहुत सुन्दर.

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