जलाता हूँ रोज़ ,
थोड़ा थोड़ा खुद को ,
रोशनी तो होती है ,
पर इर्द गिर्द ,
जमा कालिख भी होती है ,
मन मैला होता है जब ,
मांजता हूँ पोंछता हूँ ,
धीरे से बुझी बाती को बढाता हूँ ,
फिर से जलाने के लिए ,
पहले रोशनी अधिक ,
और कालिख कम थी ,
अब कालिख के आगे ,
रोशनी नम है ,
अब बाती बुझने को है ,
एक दिन भभक कर ,
रोशनी जब होगी खूब ,
ज़िन्दगी फिर तुझे ,
कालिख के नाम कर दूंगा ।
नहुत सुंदर रचना |
जवाब देंहटाएंमेरी नई रचना :- मेरी चाहत
मन की सफाई होती रहे यूँ ही !
जवाब देंहटाएंबढ़िया !
अच्छी लगी यह रचना।
जवाब देंहटाएंरोशनी बँधी काँच से, प्रेरित तेल से। सुन्दर भाव
जवाब देंहटाएंभावो का सुन्दर समायोजन......
जवाब देंहटाएंकल 13/10/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंऔर हमारी तरफ से दशहरा की हार्दिक शुभकामनायें
How to remove auto "Read more" option from new blog template
sundar rachana ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर. निःशब्द
जवाब देंहटाएंबेहद अच्छी लगी कविता।
जवाब देंहटाएंआपको सपरिवार विजय दशमी की हार्दिक शुभ कामनाएँ।
सादर
बहुत सुंदर...वाकई लालटेन सुंदर बिंब बन उभरा है मनोभावों को व्यक्त करने के लिए
जवाब देंहटाएंसुन्दर बिम्ब और सुगठित शब्दों में भाव तरह उभर कर आये हैं.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर.