बुधवार, 29 जून 2011

"गैस लाइटर" बनाम "माचिस"

               बड़ी साधारण सी बात है कि,लोग गैस के चूल्हे को लाइटर से जलाते हैं और माचिस का प्रयोग लगभग नहीं ही करते हैं | जो कि पूरी तरह से गलत है |
               लाइटर से गैस जलाने के लिए पहले आप गैस को नॉब से खोल लेते हैं ,गैस निकलना शुरू हो जाती है ,फिर आप लाइटर से खट खट करना शुरू करते हैं | आदर्श परिस्थिति में लाइटर को एक ही बार यानी पहली बार में ही स्पार्क दे देना चाहिए ,जिससे गैस तुरंत जल जाये | पर होता क्या है ,अधिकतर लाइटर एक बार में स्पार्क नहीं देता ,आप बार बार खट खट करते हैं | इस बीच  गैस तो निकल ही रही होती है,वह चूल्हे के बर्नर के ऊपर एकत्र होती रहती है | यदि लाइटर तनिक भी देर से स्पार्क देता है ,तब तक काफी अधिक गैस की मात्रा का एक प्रोफाइल  सा बन चुका होता है ,जो स्पार्क मिलने पर आग चारों ओर फैला  सकता  है और काफी घातक हो सकता है ,विशेष कर बच्चे नुकसान उठा सकते हैं | अब देखिये माचिस से जब आप गैस जलाते हैं ,उस स्थिति में पहले आप माचिस की तीली जला लेते हैं ,अब चूँकि बर्नर के मुंह पर आग मौजूद है ,जैसे ही आप गैस खोलते है ,थोड़ी सी भी मात्रा  होने पर  गैस जलना शुरू कर देती है | गैस का एकत्र हो पाने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता | दुर्घटना की सम्भावना शून्य हो जाती है | हाँ ,माचिस का व्यय थोडा अवश्य बढ़ जाता है |
                यह सिद्धांत जीवन के अनेक क्षेत्रों में लागू होता है | समस्याओं को एकत्र होने का मौका देकर ,फिर जब हम समाधान का लाइटर जलाते हैं ,तब तक समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी होती है ,और ब्लास्ट हो जाता है | यदि हम ज्यों कोई समस्या आये तुरंत ही उसका समाधान शुरू कर दें, तब इस स्थिति से उबरा जा सकता है ।
               जब कहीं धरना प्रदर्शन ,रैली इत्यादि होती है,शासन का रवैया रहता है कि उसे कोई  तवज्जो मत दो । धीरे धीरे जब भीड़ विशाल रूप ले लेती है,तब प्रशासन का स्पार्क रूपी 'आपरेशन कन्ट्रोल' शुरु होता है और परिणति स्वरूप रामलीला मैदान या भट्टा-परसौल जैसी स्थिति हो जाती है । यदि प्रशासन या पब्लिक डीलिंग विभाग के लोग इस बात को गौर कर जनता के एकत्र होने से पहले ही उनकी समस्याओं के निदान की बात शुरु कर दें ,फ़िर तो  विस्फ़ोटक स्थिति से बचा जा सकता है ।
              रेलवे  की लाइन हो,गैस  की लाइन हो,पासपोर्ट  की हो,कहीं दाखिले की हो ,काउन्टर तब खुलते हैं ,जब भीड़ अनियंत्रित हो चुकी होती है । पहले आदमी के आने से पहले ही यदि काउन्टर खुला मिले ,तब ना कभी भगदड़ होगी ना कभी रोष होगा |
             कैसा भी कार्य हो, या कितना भी कार्य हो ,बस करना शुरू कर दें ,बिना उसका  परिमाण देखे ,समस्त कार्य धीरे धीरे सहजता से स्वयं पूर्ण हो जायेंगे और आपको अत्यंत आनंद की अनुभूति होगी | और यदि आपने कार्य को इकठ्ठा होने दिया फिर तो दिमाग का विस्फोट होना तय ही है |
                            
                                   "कार्य से पहले कर्ता हो ,बस इत्ती सी बात है |"
   
                    

मंगलवार, 28 जून 2011

"मुद्रा" के फ़ेर में यूँ बदलती "मुद्राएँ"......

             मेरे एक कलीग बड़ी शान्ति से किसी सोच में डूबे थे,वैसे सोच में तो अक्सर वे  डूबे रहते हैं  ,मगर आज  कुछ ज्यादा ही गंभीर से दिख रहे थे | मैंने पूछ ही लिया क्या बात है ,इतनी गंभीर मुद्रा में क्यों बैठे हैं | वे बोले, यार मुद्रा  की स्थिति ही कुछ ऐसी हो गई है कि मुद्रा अपने आप गंभीर हो गई है | यहाँ बताता चलूँ  कि,पिछले ७-८ माह से वो सम्बद्ध पद पर तैनात है | सो मनभावन मुद्रा के दर्शन नहीं  हो पा  रहें  हैं ,स्वभाविक  है कि फिर उनकी  मुद्रा तो गंभीर होनी  ही है |
             कितनी हास्यास्पद सी  बात है कि व्यक्ति  की मुद्रा का सम्बन्ध सीधे सीधे उसकी  मुद्रा से  हो चला  है | चेहरे के हावभाव से उसकी आंतरिक मुद्रा की स्थिति एकदम स्पष्ट दिखाई पड़ती है | अगर आप बहुत प्रसन्न मुद्रा में कार्यालय में कार्य करते हैं ,और आप ईमानदार भी हैं ,फिर भी आपकी प्रसन्न मुद्रा देख कोई कतई मानने को तैयार नहीं होता कि  आप  तो अपने कार्य से ही प्रसन्न हैं और सदैव प्रसन्न ही रहते हैं , और उस मुद्रा  को  मुद्रा-राक्षस ही मानते हैं |
              दूसरा सच यह भी है कि मुद्रा  की फिराक में लोग अपनी मुद्रा भी झट बदल लेते हैं | निरीह भाव से अपने को ऐसे प्रस्तुत करते हैं कि मुद्रा  देने वाला दया खा के उन्हें  दे ही  देता है जैसे  ,नहीं दिया तो कहीं यह मर ही न जाये | उसके बाद वो साहब ऐसी डींगे मारेंगे ,विभिन्न मुद्राओं में ,जैसे उनसे अधिक अक्लमंद और तीसमार खां कोई है ही नहीं | ऐसे ही लोगों की  मुद्रा  उनके खुद के घर में भी रोज़ बदलती रहती है | जिस दिन मुद्रा  जेब में ,उस दिन बीबी की  मुद्रा भी खुजाराहो की मूर्ति सी, और जिस दिन जेब मुद्रा-विहीन ,उस दिन उसी   बीबी की मुद्रा राक्षस सी | ऐसे लोगों के बच्चें भी अपने बाप की मुद्रा की तारीफ़ करते नहीं थकते और बस मनाते   रहते हैं कि,  ऐसे ही मुद्रा की तह लगती रहे और वे जीवन भर  आनंद की मुद्राओं में गोते  लगाते  रहें | लेकिन शायद उन्हें यह नहीं पता कि ऐसी मुद्रा  जब करवट  बदलती है तो  मुद्रा  का धारक भी सारी मुद्राएँ भूल जाता है और उसकी खुद की मुद्रा पर मुद्रा-स्फीति का संकट छाने लगता है |
                 मजे की बात यह है कि, ऐसे ही लोग जब अनैतिक धन या मुद्रा के विषय में चर्चा करते हैं या अपनी राय देते हैं तब उनकी खुद की मुद्रा स्वामी विवेकानन्द जैसी हो जाती है । और बेचारा   सरल व्यक्ति ऐसे लोगों की मुद्रा से प्रभावित हो अपनी मुद्रा उन्हें सौंप आता है ।

         " आकर्षक मुद्राएँ सदैव घातक ही होती हैं ,चाहे वो अनैतिक मुद्रा  की हो ,या फिर अनैतिक मुद्रा वाली हो" |    

रविवार, 26 जून 2011

'scalar' से ' vector' तक, एक नए 'अंदाज़' में....

,
              'वेक्टर' और 'स्केलर' में सरल सा अंतर है कि, जिस राशि या परिमाण में दिशा का भी बोध अथवा महत्त्व हो ,उसे वेक्टर quantity और जिस में दिशा का महत्त्व या बोध ना हो ,उसे स्केलर quantity की श्रेणी में रखते हैं | यह तो हुई फिजिक्स की बात | 
              आम ज़िदगी में भी यही अंतर अक्सर देखने को मिलता है | कोई अपना जीवन बस यूँ ही जिए चला जा रहा है ,तो उसका पूरा जीवन ही स्केलर हो गया ,हाँ अगर उसका कोई लक्ष्य है ,फिर वो वेक्टर है | बच्चों की पढ़ाई ,शिक्षा अगर निरुद्देश्य हो रही है तो वो स्केलर ही है | अतः 'शिक्षा पद्धति' को वेक्टर quantity बनाना चाहिए | प्रायः बचपन तो सभी का स्केलर ही होता है और होना भी चाहिए अगर किसी का बचपन वेक्टर है तो भी यह गंभीर बात है , बचपन तो बस बचपन होना चाहिए , लक्ष्यहीन दिशाहीन और चिन्ताहीन | परन्तु  जो गरीब हैं ,अनाथ हैं ,जो  बचपन  से ही भूख के लिए संघर्ष करना शुरू कर देतें हैं ,उनका बचपन तो तभी से वेक्टर हो जाता हैं ,बस उन्हें भूख मिटाने  की दिशा की और चलने कि सुध रहती है |परन्तु यही गरीब बच्चा बड़ा होकर स्केलर हो इधर उधर मारा फिरता है ,दिशाहीन |
                अमीरों और सम्पन्नों की ज़िन्दगी स्केलर से वेक्टर होती रहती है और गरीबों की वेक्टर से स्केलर | अब धर्म की बात करें तो यह सच है सभी धर्म वेक्टर हैं ,परन्तु पूजा पाठ के तौर तरीके ,या धर्मगुरुओं की बातें सब स्केलर हैं एकदम दिशाहीन है | 
                जब हम स्वतन्त्र नहीं थे ,देश गुलाम था ,तब हमारा पूरा देश ही स्केलर था ,अंग्रेजों के हाथ में लुढ़क रहा था | हम आजाद हुए ,दिशा मिली | देश हमारा वेक्टर की श्रेणी में आना शुरू हुआ ,पर देश के नेता ,जो अपने मकसद में तो वेक्टर हैं लेकिन पूरे देश को दिशाहीन  करते हुए उसे स्केलर बनाने पर तुले हुए हैं | इस देश में रोग ,महामारी ,बेरोज़गारी बड़ी तेज़ी से वेक्टर होती जा रही है ,उसे स्केलर बनाने पर बल दिया जाना चाहिए |
                अन्ना और रामदेव का मुद्दा भी बड़ी आसानी से वेक्टर से स्केलर में बदल दिया गया | आम आदमी जब तक समझ पाता है तब तक देर हो चुकी  होती है |
                 प्यार , इश्क ,रोमांस में भी यह अंतर बखूबी किया जा सकता है | किसी को आपने देखा या उससे मुलाक़ात हुई ,वो अच्छा लगा | तमाम लोग मिलते रहते हैं ,बस किसी से  मिलना, बात करना, मन को भा गया, और फिर सिलसिला चल निकला  ,मगर  अभी यह रोमांस है और किसी से भी हो सकता है ,अतः अभी यह स्केलर  है | हाँ, रोमांस इतना बढ़ गया कि अब उसके बिना रह पाना मुश्किल ,सारा दिन बस उसी दिशा में ,निश्चित रूप से उसी के बारे में सोचना शुरू कर दिया ,अब यह प्यार कहलायेगा और वेक्टर की श्रेणी में रखना पडेगा | अर्थात रोमांस स्केलर है, और प्यार वेक्टर |
                परन्तु जीवन का अंत तो निश्चित है ,उसकी अंतिम दिशा और दशा तो पूरी तरह से सर्वविदित है , अतः सम्पूर्ण जीवन तो अंततः वेक्टर ही है | 
                "जन्म scalar है , और मृत्यु vector" | इसीलिए प्रत्येक कार्य का प्रारम्भ स्केलर और अंत वेक्टर ही होना चाहिए | 

बुधवार, 22 जून 2011

"बेतरतीब सी ज़िन्दगी "

                                           मन 
        
                                                                           भी 

                                                                                                               कभी 
                   ऐसे 
                                                                  
                                                                                     ही 
                                           अरझ 
                                                                                                                      जाए 
                                                            तो
क्या 
                                     करें 
                                                                                                    कभी 
                                                                                                                                     यहाँ 
कभी 
                                          वहां  

दिल

                                                                        बोले
                          कुछ

कर

                                                                                                        जाऊं 
                                            कुछ

होता 
                                                                                     गया 
                                                      
                                                                                                                       
                                                                                                             कुछ  
                        
                                           ज़िन्दगी

                                                                                                             बेतरतीब

सी
                                                                            ना
                                     
                                     कोई
                                                                                                                  सिरा 
ना
                                                                                                                                      कोई
                                                छोर

ये 

                                 कैसा

                                                                                                        चक्रव्यूह 

                                                             
प्रभु !

                                                                                            सम्मान 

                                        के 

                                                                               बदले


                        भी
  

                                                                                         नेह 

                                     
    नहीं
                                         याद
                                                        
                                                                                     नहीं

                                                                                                                 प्यार
                         नहीं
                                                         रिश्ते 
                                   
                                                                                                   नहीं.........

शायद 

                                                                                                                       यही 

                                                     मेरा

                                                                                      प्रारब्ध !!!!!!! 


मंगलवार, 21 जून 2011

"उनके ....मन...में"

तासीर

ही

थी,

मोहब्बत में

मेरी,

कि,

सुना

है

भाने लगा

हूँ,

मै

उन्हें

 अब,

नज़रें चुराते थे

जो पहले,

चुरा के नज़र

देखतें है

अब,

आखिर यकीं

गहरा हुआ, 

अधूरा इश्क

पूरा हुआ,

सिफारिश की

उन्हीं  की

नज़रों ने,

दिल से उनके

कि संजों लें

मुझे

वे 

अब 

अपने

मन

 में |

रविवार, 19 जून 2011

"आज फ़ादर्स डे है......"

             अजीब दुनिया हो गई है ये | जो उत्पत्ति का कारण है ,जिसके बिना शायद दुनिया में कदम भी ना रख पाते और जो हर पल, हर क्षण स्मरणीय है ,उन्हें  याद करने के लिए एक दिन मुक़र्रर कर दिया गया 'फादर्स डे' के नाम पर | शायद लोग इतने ज्यादा मेकेनिकल होते जा रहे हैं, और इसी विज्ञानी शैली में जीते जीते भावना शून्य होते जा रहे हैं, इसी लिए इतने निकट संबंधों को याद करने के लिए तमाम तरह के दिन ईजाद कर लिए गए हैं, जैसे मदर्स डे ,ब्रदर्स डे,सिस्टर्स डे, और ना जाने क्या क्या |
              मैं तो  शायद ही कभी वो क्षण होगा जब उन्हें  याद न करता हूँ | बहुत सारी पुरानी बात याद करूँ ,तो सब शीशे की तरह साफ़ साफ़ नज़र आता है ,कितने महत्वाकांक्षी रहे वे  हमेशा | समाज में सदा सबसे अलग दिखने की चाह ,शिक्षा को बहुत अधिक महत्त्व देना ,सीमित आय में रहते हुए भी कभी संकुचित ना महसूस करना,और ना कभी हम लोगों को महसूस होने देना | सदा सपने देखे, अपनी क्षमता से बहुत बड़े बड़े ,और आश्चर्य ,कि वे पूरे भी हुए | कैसे होते गए ,सिर्फ ईश्वर ही जानते होंगे | quality of life को बहुत महत्त्व दिया और आज भी देते हैं ,जीवन शैली उच्च कोटि की  रखते हुए समाज में स्वयं को स्तम्भ की तरह स्थापित किया | उनसे हजार गुना आर्थिक एवं समाजिक  रूप से मै बेहतर होते हुए भी उनके सरीखे खुद को कहीं नहीं देख  पा रहा हूँ | परिवार के रिश्ते निभाना हो ,या समाज में किसी की सहायता करनी हो ,आर्थिक ना सही ,परन्तु अपनी मौजूदगी से ही लगभग सभी की मदद की |
                एक रोचक घटना याद आ रही है,वे मुझे अंग्रेजी पढ़ा रहे थे ,कक्षा 3 या ५ की बात होगी,  (मैंने कक्षा ४ नहीं पढ़ा है,कहते हैं मै बहुत मेधावी था ,सीधे ३ से ५ में दाखिला हो गया था और उसी का परिणाम है कि, तभी से तीन - पांच के फेर में पड़ गया हूँ ,निकल ही नहीं पा रहा हूँ ) शब्दों के विलोम पूछ रहे थे ,मै भी फटाफट बताये जा रहा था ,अचानक उन्होंने कहा ugly ,मैने  झट से बोला 'पिछली' | मैंने अपने अनुसार सही ही कहा था ,मुझे ugly का अर्थ पता ही नहीं था ,पर शायद वे समझे ,मै शैतानी कर रहा हूँ ,फिर क्या था ,जो जोर दार झन्नाटे वाला थप्पड़ पडा कि आज भी मुझे याद है ,पर मै आज भी कहूँगा ,वो मेरी गलती नहीं थी|
                 दूसरी घटना है , मुझे एकबार वो साईकिल पर आगे बिठा कर बाजार से घर लौट रहे थे ,जब मै घर पर उतरा तो एक पैर में बुरी तरह झुनझुनी चढ़ी हुई थी ,जब पाँव नीचे रखा तो देखा एक पैर की चप्पल गायब थी | झुनझुनी के कारण कब वह रास्ते में पाँव से गिर गई पता ही नहीं चला | पर दंड तो मुझे मिलना ही था ,सो एक पैर में चप्पल और दूसरा पैर बिना चप्पल के ही मुझे  पैदल ही भेज दिया गया ,वो खोई हुई चप्पल ढूंढने | पर वो तो मिलने वाली थी नहीं | लौटकर पिटाई तो नहीं हुई पर ,नई चप्पल बहुत दिनों बाद ही नसीब हुई | पर चूँकि पढ़ाई में ठीक ठाक था ,सो धीरे धीरे बाकी शैतानियाँ नज़रंदाज़ की जाने लगी |
                  प्रेम विवाह दो प्रकार से होते हैं | एक तो आप किसी के प्यार में पड़ जाएँ और उसी से विवाह कर लें ,दूसरे आपको अपना जीवन स्वयं अपने दृष्टिकोण से जीना हो और फिर आप उस लिहाज से अपने लिए स्वयम कोई साथी चुन लें और फिर उसी से विवाह कर लें | मेरे पापा ने शायद अपना जीवन अपने लिहाज से जीने की खातिर ही मेरी मम्मी को ढूंढ़ लिया था ,फिर उनसे प्यार किया और कुछ दिनों बाद उन्ही से प्रेम विवाह कर लिया | और तभी से वे अपने आगे का मार्ग बनाते गए और उसी पर हम सभी को लेकर चलते गए |
                  मै अपने को धन्य समझता हूँ ,जो मुझे ऐसे पापा मिले | मै पूरी कोशिश करूँगा कि मै भी अपने बेटों के लिए ऐसा ही कुछ कर पाऊं और फिर शायद  वे भी मुझ पर गर्व कर सकें |   

शनिवार, 11 जून 2011

मायने "रोटी" के

                  १०० करोड़ का अर्थ एक अरब और अरबों रूपए की संपत्ति के मालिक बाबा रामदेव २ रूपए की रोटी का त्याग कर जीवन -मृत्यु  के बीच संघर्ष कर रहे हैं | पिछले ६-७ दिनों के अनशन के दौरान अगर उन्होंने कुल १००-१५० रूपए का भी भोजन कर लिया होता तो आज इस स्थिति में ना होते | अब ऐसी स्थिति में वो अरबों रूपए तो काम आने वाले रहेंगे नहीं| इससे बेहतर, उन्होंने २ रूपए की रोटी के त्याग के बजाय अरबों की संपत्ति का परित्याग किया होता , तो आज ये दिन ना देखने पड़ते और वे अपने मिशन में कामयाब भी रहते |
                  कोई व्यक्ति अपने ही जीवन काल में इतनी अकूत संपत्ति एकत्र कर ले तो इसमें कोई शक नहीं, बल्कि तय बात है कि, उसने कहीं न कहीं कोई गड़बड़ या घोटाला किया है ,या तो  लागत से कहीं अधिक मुनाफ़ा कमाया है या सरकार से धोखा किया है |
                  योग निश्चित तौर पर एक अच्छी विधा है और निरोगी जीवन के लिए लगभग आवश्यक भी,परन्तु कैंसर,किडनी,लीवर,मधुमेह इससे ठीक होता हो, यह सब भ्रामक है | इसके अतिरिक्त पतांजलि का इलाज अत्यंत महंगा है ,जो आम आदमी (जिसकी लड़ाई की बात बाबा रामदेव जी करते हैं ) के बस का कतई नहीं है |
                  हम गिनती में बहुत अधिक हो गए हैं | संसाधनों का अभाव है | मीडिया से सबको सब कुछ देखने और सपने बुनने का अवसर मिल जाता है | प्रत्येक व्यक्ति न्यूनतम अवधि में अधिकतम धन दौलत बटोरने के फेर में पडा हुआ है ,और वो जब किसी को अल्प समय में ही इतनी दौलत का स्वामी बनते देखता है तो बिना कुछ सोचे समझे उससे प्रभावित  हो जाता है ,चाहे वो चंद्रास्वामी हो.,साईं बाबा हो,धीरेन्द्र ब्रह्मचारी हो या बाबा रामदेव हो,और उनके कृत्यों को उचित मान लेता है  |
                      आज देश में कदम कदम पे यदि भ्रष्टाचार व्याप्त है तो उसका निवारण लोकतंत्र में एक अच्छी  चुनी हुई सरकार द्वारा ही हो सकता है | अधिक से अधिक ध्यान चुनावी प्रक्रिया ओर उम्मीदवार के चयन में दिया जाना चाहिए | "हल्ला बोल" थ्योरी से आप अपने बाहरी दुश्मन और विदेशियों से तो लड़ सकते हैं पर जब लड़ाई अपने घर में अपनों से लड़नी हो, तब यह कारगर नहीं हो सकती | भोले भाले लोगों को भड़का कर इतनी संख्या में कही एकत्र कर उनकी जान जोखिम में डलवा देना कतई उचित नहीं था |
                      अगर बाबा रामदेव की ही बात लोग इतना मानते है और उनके करोड़ों अनुयायी है तो  कम से कम वही लोग प्रण ले  कि स्वयं  भ्रष्ट आचरण नहीं करेंगे और आय से अधिक संपत्ति के फेर में नहीं पड़ेंगे |जितने भी शिविर आयोजक होते है, सभी उद्योगपति और बड़े घरानों से होते है, जो अपना काला  धन इसी की  आड़ में सफ़ेद करते है | कब तक बेचारा आम आदमी इनके बंजर साए में कुम्हलाता रहेगा |
                      अपने देश में नट प्रजाति के लोग बाबा रामदेव की तरह सभी आसन बखूबी कर लेते हैं और वर्षों पहले से ही लखनऊ -बाराबंकी रेल लाइन के किनारे विभिन्न तरह के खेल कूद दिखा कर जीवन यापन करते आ रहें हैं  | 
                     अगर चिकित्सकों की माने तो प्रत्येक व्यक्ति (मरीज)  की शारीरिक संरचना भिन्न भिन्न होती है और उसी के अनुसार उसको आसन और व्यायाम करने चाहिए | सबको एक ही प्रकार के आसन कतई नहीं करने चाहिए |
                     अन्ना हजारे का जीवन सदैव संघर्षपूर्ण रहा ,लोकपाल बिल की मांग उनकी उचित है | इस पर बहस-मुबाहिस होती रहनी चाहिए | परन्तु एक अच्छे उद्देश्य की पूर्ति के लिए किये जा रहे प्रयास पर लगता है बाबा रामदेव जी के कमंडल का पानी फिर जायेगा |
                      अनशन से इतना तो सभी को समझ लेना चाहिए की जीवित रहने के लिए केवल दो वक्त की रोटी ही बहुत है ,अकूत संपत्ति का कोई लाभ नहीं और भूखे पेट योग भी काम नहीं आता |
                       ईश्वर बाबा रामदेव जी को दीर्घायु  करे और सदबुद्धि प्रदान करे | (नहीं तो बी.जे.पी. तो घात  लगाए बैठी ही है )
                                 

मंगलवार, 7 जून 2011

तुम तो पूरे "चुगद" हो.......

                    तुम्हें तो अफसरी करना आता ही नहीं , एकदम चुगद हो क्या ,मेरे एक तथा कथित सफल माने जाने वाले दोस्त ने मुझसे कहा | मैंने कहा ,"क्यों क्या हो गया ? वे बोले तुम अपने ड्राईवर और चपरासी को भी 'थैंक्स' बोलते हो !मैंने पूछा ,इसमें कौन सा अपराध हो गया ? वे बोले ,कई दिनों से मै तुम्हारे संपर्क में हूँ, और देख रहा हूँ कि, तुम्हारे अन्दर अफसरी के एक भी गुण नहीं है ,तुम तो पूरे विभाग में सभी अफसरों की किरकिरी करा रहे हो | चलो अबसे बता दो ,क्या और कौन कौन सी कमी है ,मै अब से दुरुस्त करने की कोशिश करूंगा,मैंने कहा  | उनके अनुसार मेरे अन्दर निम्न अवगुण काफी प्रचुर मात्र में व्याप्त हैं --
                      १.मै कभी किसी अधीनस्थ को डांटता नहीं , उनसे बात भी सम्मान पूर्वक ही करता हूँ |
                      २.कोई भी कर्मचारी मुझे पूर्णतया अनुपयोगी नहीं लगता | कभी किसी को स्थानांतरित करने की बात नहीं करता |
                      ३.प्रत्येक कर्मचारी के पारिवारिक विन्यास से परिचित रहता हूँ, और प्रायः सभी सदस्यों के बारे में पूछता रहता हूँ |
                      ४.अपनी निजी परेशानियों अथवा खराब स्वास्थ्य का ज़िक्र कभी नहीं करता |
                      ५.चूँकि पब्लिक डीलिंग में हूँ ,प्रयास रहता है ,जनता को उचित और तथ्यपरक जानकारी कम से कम समय में मिल जाय , और उसे न्यूनतम असुविधा हो |
                       ६.निजी कामों में सरकारी मशीनरी का उपयोग जहां तक हो सके ,बिलकुल ही न हो |
                       ७.अपने विभाग की बुराई कभी नहीं करता |
                       ८.अपनी काबिलियत का बखान नहीं करता कि मै तो यहाँ गलत फंस गया, नहीं तो मै कहीं  और बेहतर पोजीशन में होता | जिस भी स्थिति में हूँ, उसे ही बेहतर करने की कोशिश रहती है |
                       ९.ऑफिस का काम कभी घर नहीं ले जाता | 
                       १०.मोबाइल फ़ोन  किसी भी परिस्थिति में ऑफ नहीं करता |
                       ११.अपना लक्ष्य स्वयं तय करता हूँ और प्रायः प्राप्त भी कर लेता हूँ |
                       १२.मेरे पद और पोजीशन से किसी की गरिमा को ठेस ना पहुंचे,इस बात का भी पूरा ख्याल रखता हूँ |
                       १३.दूसरे की कार्य सीमा में कभी ट्रेस पासिंग नहीं करता और यदि भूल वश दूसरा कोई कभी कर भी दे तो, आहत नहीं महसूस करता |
                       १४.हर अगला दिन बीते दिन से बेहतर हो ऐसा प्रयास स्वयं भी करता हूँ, और सभी से अपेक्षा भी करता हूँ |           
                       १५.जिस सिस्टम में काम कर रहा हूँ, उसके विभिन्न पात्रों के स्थान पर स्वयं को रख के देखता हूँ और मन ही मन में प्रयोग करता रहता हूँ कि इन परिस्थितियों में दूसरों से किस प्रकार का परिणाम और व्यवहार अपेक्षित किया जाना चाहिए |            
                        उपरोक्त आचरण का परिणाम यह होता है कि, मै सभी के लिए सरलता से उपलब्ध रहता हूँ और यहीं मात खा जाती है सरकारी अफसरी, क्योंकि सरकारी अफसर तो वो है,जो किसी को ढूंढे ना मिले ,सीधे मुंह किसी से बात ना करे ,मातहत को बात बात पे झिड़कता हो | 
          
                       मैंने उपरोक्त सारी बातों पे गौर किया और यह पाया  कि इन अवगुणों को अब छोड़ पाना मेरे बस का नहीं है | लोग मुझे अफसर समझें या ना समझे ,मेरी बला से |   

गुरुवार, 2 जून 2011

कभी "अश्क" कभी "तबस्सुम"

यूँ आना तुम्हारा, 
ज़िन्दगी में मेरी, 
फकत,
चंद लम्हों के वास्ते |

और,
उकेरना तुम्हारा, 
उन लम्हों की,
एक, 
इबारत |

जैसे दस्तखत हों, 
वक्त पे,
तुम्हारे, 

उन लम्हों को, 
जो मिटा दो, 
तो बीता वक्त, 
लगे कोरा कोरा सा | 

और गर छू भर लो, 
उन लम्हों को, 
फिर, 
बारिश ही बारिश है, 
अश्कों की, 
लुकती छिपती,
तबस्सुम पे | 

रास्ते में,
कभी गिरे मिले, 
जो बीते लम्हें, 
पाँव बचाना, 
अश्कों में डूबे होंगे,
वे,
भिगो ना दें,
कहीं उन्हें | 

और फिर,
भीगे पाँव,
तो,
निशाँ,
छोड़ेंगे,
बहुत दूर तलक |