"शब्द भीतर रहते हैं तो सालते रहते हैं,
मुक्त होते हैं तो साहित्य बनते हैं"। मन की बाते लिखना पुराना स्वेटर उधेड़ना जैसा है,उधेड़ना तो अच्छा भी लगता है और आसान भी, पर उधेड़े हुए मन को दुबारा बुनना बहुत मुश्किल शायद...।
सोमवार, 23 अगस्त 2010
"अपनापन"
गांव लौटे शहर से तो सादगी अच्छी लगी,
हमको मिट्टी के दिये की रोशनी अच्छी लगी, बासी रोटी सेंक कर जो नाश्ते मे मां ने दी,
हर अमीरी से हमे वह मुफलिसी अच्छी लगी, चांद तारों मे कहां ऐसी चमक,
apnapan man ko chu gaya lucknow aur allahabad ki yad aa gai ...arti noida
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