शनिवार, 28 सितंबर 2013

" सोचता हूँ तो अच्छा लगता है......."

अभिषेक / रमन ,

आज तुम्हारा जन्मदिन है । इस दिन हम लोग दुबारा पापा-मम्मी बने थे । बहुत खुश थे हम लोग उस दिन और तब से आज तक तुमने खुशियाँ ही खुशियाँ हम लोगों को दी हैं । ईश्वर बस ऐसे ही आशीर्वाद बनाए रखें और तुम्हारा लक्ष्य अभीष्ट होता रहे ।

इस पोस्ट के लिए तुम्हारी बचपन की फोटो ढूंढ रहा था आज ,पर मजे की बात तुम्हारी कोई फोटो अकेले की है ही नहीं । सब फोटो अनिमेष / राजन के साथ की हैं । कारण ,तुम उसके बाद आये न हम लोगों के पास ,बस उसके बाद तो तुमने सब कुछ उसके संग ही किया ।









बस यूँ ही हमेशा दूसरों की खुशियों का कारण बनते रहना  ,जन्म दिन बहुत बहुत मुबारक तुम्हे ।

-पापा /मम्मी 

सोमवार, 16 सितंबर 2013

" सरकारी केचुए ........"


आज क्यारी में यूँ ही खुरपी लेकर कुछ घास निकाल रहा था । अचानक से एक केचुआ वही दिख गया । बहुत देर तक उसे और उसकी क्रियाओं को गौर से देखने के बाद सहसा मुझे आभास हुआ कि वह केचुआ तो एक सरकारी अफसर की भाँति काम कर रहा था ।

वह केचुआ बड़ी तन्मयता से धीरे धीरे अपने काम में लगा था । उसकी गति को देख कर उस पर तरस भी आ रहा था और क्रोध भी । ईश्वर ने भला उसे गति क्यों नहीं दी । इतने ज़रा से काम को करने में इतना समय लेने का क्या औचित्य ! काम करते करते अचानक वह कुंडली मार कर रुक गया तो मैंने उसे हाथ से सीधा किया । वह फिर धीरे धीरे रेंगने लगा । मेरे अनुसार वह गलत दिशा में जा रहा था ,अतः मैंने उसके एक सिरे पर हाथ लगाया तो वह वहां से पीछे की ओर रेंगने लगा । पकड़ने की कोशिश की तो इतना चिकना था कि हाथ से फिसल गया । वह बस एक ही काम में लगा था ,मिटटी को ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर किये जा रहा था । अनवरत बस यही काम और कुछ नहीं । बहुत प्रयासों के बाद भी मै यह नहीं पहचान पाया कि उसका मुंह किधर है और पूंछ किधर । लगता था जैसे वह मिटटी ही खाता है और मिटटी ही का उत्सर्जन भी करता है । कभी कभी ऐसा भी लगा भी कि वह आगे बढ़ने का प्रयास तो बहुत कर रहा है ,उसके बदन में हरकत तो बहुत हो रही है पर अपनी जगह से ज़रा भी टस से मस नहीं हो रहा है ।  

मैंने उसे पलट कर देखने की कोशिश की तो भी समझ नहीं आया कि उसका पेट किस ओर है और पीठ किस ओर । उँगलियों से उसे ज़रा सा धक्का दिया तो दूर जा गिरा परन्तु बिना कुछ बोले ,बिना कोई क्रोध दिखाए फिर अपने काम में लग गया उसी मंथर गति से । उसे कितना भी परेशान किया तब भी उसने न काटा ,न भौंका और न ही पलट कर देखा ,बस करता रहा धीरे धीरे मिटटी की उलट पलट ।

कहते हैं इसी उलट पलट से वह केचुआ खेत को उर्वर बनाता है और उससे पैदावार बढ़ जाती है । 

बस ऐसे ही होते हैं सरकारी अफसर । न पेट का पता ,न पीठ का । अति व्यस्त दिखना इनका शगल ,दिन भरे चलते अढाई कोस और फाइलों को ऊपर नीचे कर अपने दफ्तर को उर्वर बनाते रहते हैं

कहते हैं केचुओं को अगर बंजर जमीन में डाल दिया जाये तो वे वहां भी उलट पलट कर उस जमीन  को उर्वर बना कर उसमें भी कुछ न कुछ पैदा करा ही देते हैं । ऐसे ही कुछ अफसर भी अपनी इस 'केचुआ टाइप' कार्यशैली में  इतने सिद्ध हस्त होते हैं कि उन्हें कहीं भी किसी भी जगह तैनात कर दिया जाये ,तब भी वे वहां फाइलों को इतना ऊपर नीचे कर डालते हैं कि वह दफ्तर जो पहले कभी घोर बंजर रहा हो ,वह भी उर्वर हो जाता है और उस दफ्तर में भी जबरदस्त पैदावार होने लगती है । ऐसे अफसर बहुत तेज़ तर्रार और गट्स वाले कहलाते हैं ।

परन्तु मुझे तो ये अफसर सरकारी केचुए नज़र आते हैं । 

शनिवार, 14 सितंबर 2013

" रेयरेस्ट ऑफ द रेयर.........."


तलब लगी ,
जब कभी उनकी ,
भर जी निहारा किये ,

अफ़सोस ,
इल्म न करा पाए ,
मोहब्बत का अपनी,

पर एहसास ,
तो एहसास है ,
एक दिन होना ही था ,

अचानक उस शाम यूँ ही ,
अक्स सा उभरा उनका ,
खिड़की पर जब ,

लगा सरेशाम ,
चाँद सा ,
उग आया हो कोई  ,

काली जुल्फें ,
संवारती थी  ,
गोरी खनकती कलाईयाँ

नज़रें मिली  ,
जब उनकी ,
कंघी की ओट से ,

लगा कंघी में ,
अरझे हों जैसे ,
जुगनू कई , 

होंठों में बुदबुदाया मै ,
'रेयरेस्ट ऑफ द रेयर' 
वाकया है यह तो ,

फिर तो 'मृत्यु दंड' 
तुम्हारी निगाहों के लिए ,
आवाज़ उधर से आई  ,

और वो खिड़की ,
बंद हो गई ,
सदा के लिए '

शायद वह भी थे सजा-याफ्ता  'उम्रकैद' की । 


बुधवार, 4 सितंबर 2013

"शीर्षक कैसा हो......."


'शीर्षक' लिखना लेखक के लिए एक बड़ी चुनौती होता है । पहले विचार आते हैं फिर उस विचार को विस्तार और आयाम देकर लेख / कहानी का स्वरूप बनता है । ऐसे में मन में सदा एक 'पात्र' ,'घटना' या 'कथन' बार बार उछल उछल कर सामने आता रहता है बस उसी से जन्म होता है 'शीर्षक' का । 'शीर्षक' लेख के 'सेंटर ऑफ़ मॉस' की तरह होना चाहिए कि अगर उस लेख / कहानी को 'शीर्षक' के सहारे उठा कर टांग दिया जाए तब लेख / कहानी पूरी तरह से संतुलित ही रहे ।

कुछ सिद्धहस्त लेखक पहले पूरा घटनाक्रम लिख डालते हैं फिर उससे सामंजस्य स्थापित करते हुए 'शीर्षक' को जन्म देते हैं ,परन्तु बाद में 'शीर्षक' देना तनिक मुश्किल होता है ।

'शीर्षक' पहले से तय करने के पश्चात लेख / कहानी लिखते समय उसका ताना बाना उस 'शीर्षक' के इर्द गिर्द बुनता जाता है ,जैसे मकड़ी अपने शिकार को पकड़ते ही उसके चारों ओर बड़ी तेजी से अपना जाल बिछा देती है और उसका शिकार उसकी गिरफ्त से छूट नहीं पाता। 'शीर्षक' जितना सुरक्षित होता है ,लेख पर उसका असर उतना ही अधिक गहरा होता है । 'शीर्षक' एक बड़ी सी 'शिरोरेखा' ही है जिस पर उस 'लेख' के सभी शब्द टंगे होते हैं ।

'शीर्षक' तो इत्र की शीशी के ढक्कन की तरह होना चाहिए कि ज़रा सा खोला नहीं कि पूरा माहौल महक से वाकिफ हो जाए । कुछ 'शीर्षक' ऐसे होते हैं जिनका विषय से कोई लेना देना नहीं होता । इन्हें लेखक केवल आकर्षण हेतु लिख देते हैं परन्तु दो चार पन्ने पढ़ते ही समझ आ जाता है कि 'शीर्षक' का लेख से उतना ही कम सम्बन्ध है जितना कथाकार का कथानक से । लेखक जितना अधिक अपनी कहानी की वास्तविकता से जुड़ा होगा उसका 'शीर्षक' उतना ही अधिक प्रभावशाली होगा ।

लेख / कहानी से भिन्न "कविता" का शीर्षक 'विंड चाइम' की डोरी की तरह होना चाहिए जिसके सहारे पूरी "कविता" लटक कर हवा में लहराती रहे और मधुर संगीत उत्पन्न करती रहे । 

अब के कुछ लेखक / लेखिका , कवि  / कवियत्री ऐसे भी हैं जो लेखन के प्रारम्भ में 'शीर्षक' तय तो कर लेते हैं परन्तु प्रकाशन से पहले ही कथानक का रहस्य खुल न जाए अथवा उस 'शीर्षक' का अन्य लेखों में दुरूपयोग न हो जाए इस भय से उस 'शीर्षक' का खुलासा नहीं करते । 

'शीर्षक' तो लेखक / कवि का अपने लेख / कविता के लिए एक घूँघट की तरह होता है जो उसे पूरी तरह ढके तो रहता है परन्तु पैनी नज़र वालों से अपना रहस्य उद्घाटित भी कराता रहता है । 

सोमवार, 2 सितंबर 2013

" आश्रमों के पीछे का सच ....."



इतना अच्छा बोलता था टी वी पर , कितना चमकदार और रोबदार चेहरा ,कितनी ज्ञान की बातें और अब ऐसे आरोपों से घिरा हुआ। सच क्या है , ऐसा क्यों होता है ,क्या हैं ये 'आसाराम' सरीखे बाबा !! आम आदमी के मन का बड़ा सरल सा प्रश्न ।

ईश्वर में आस्था और भक्ति होने के साथ अनजाने में ही लोग चमत्कार की कल्पना और उसमें सहज विश्वास करने लगते हैं । बचपन से ही बड़ों का आदर, गुरुओं और सन्यासियों का सम्मान और उनसे आशीर्वाद लेने का उपक्रम करते करते कब मन में इन चमत्कारी बाबाओं के प्रति अगाध श्रद्धा की बात घर कर जाती है ,भान ही नहीं रहता । ऐसे में साथ में रहने वाले हमारे बड़े लोग अगर सतर्क न हो और स्वयं भी ऐसे लोगों में अगाध आस्था और विश्वास करते हो तब उनके आस पास के लोगों में ऐसी ही धारणा पनपना निश्चित है ।

जीवन में सदैव आशा और निराशा का एक साथ ही वास होता है । कोई कितना भी सक्षम क्यों न हो ,उसकी भी कोई न कोई अभिलाषा अपूर्ण ही रहती है । ऐसे में अचानक से कहीं कोई आशीर्वाद के रूप में चमत्कार होने की बात प्रबल कर दे तब उसका भटकना तय है । घर घर भिक्षा मांगने वाले भी इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि महिलाओं को उनके बच्चों की सफलता के नाम पर कुछ भी माँग कर उसे प्राप्त कर लेना सबसे आसान काम है । जो भरे पूरे हैं उन्हें उसे बचाए रखने की चिंता और जो आधे अधूरे हैं उन्हें उसे पूरा करने की चिंता ही ,किसी भी भाँति , इन साधुओं की ओर खींचती है ।  

किसी भी प्रवचन में कोई ऐसी बातें नहीं होती जो किसी को ज्ञात न हो । ऐसे किसी भी आयोजनों में वहां का वातावरण इतना सुगन्धित ,सुसज्जित , शांत और मनमोहक होता है और वही व्यक्ति के चित्त पर गहरा असर करता है और व्यक्ति को सोचने पर मजबूर कर देता है कि वहां कुछ तो विशेष है । उस पर से वहां बोलने वाले बाबा की सादगी , भाषा , संगीत और चंद बड़े लोग कुल मिला कर आग में घी का काम करते हैं । भीड़ भाड़ देख कर आम लोग स्वतः आश्वस्त हो जाते हैं ,वहां की सत्यता के प्रति , जबकि होता ऐसा कुछ भी नहीं है । सुगन्धित पदार्थों का प्रयोग , धूप ,अगरबत्ती ,मधुर भजन ,सुन्दर महंगे साज सज्जा की सजावट  ,कहीं भी कर दी जाय तब ऐसा ही प्रभाव हो सकता है ।

ईश्वर में आस्था रखना और किसी अन्य के द्वारा चमत्कार करने की क्षमता में विश्वास करना दो अलग अलग परन्तु बहुत सूक्ष्म अंतर की बातें है । समझना होगा कि सभी अन्य व्यक्ति भी आम जन की तरह ही हैं ,किसी ,साधू ,सन्यासी ,बाबा को यह शक्ति हासिल नहीं है कि वह आपके लिए कुछ कर देगा । अपनी पूजा स्वयं ,करें ईश्वर में आस्था रखे ,उससे आपको संबल मिलेगा और आपके ही कर्म से समस्या का निवारण होगा । यह बात अवश्य सत्य है कि पूजा पाठ से मन , चित्त और घर सुगन्धित और शांत हो जाता है ,जिसे 'अरोमाथिरेपी' कह सकते हैं । यह बाबा लोग बस इसी 'थिरेपी' के सहारे लोगों का विश्वास हासिल करते हैं जो धीरे धीरे अंधविश्वास बन जाता है ।

इस तरह की घटनाएं ( महिलाओं के शोषण की ) स्वयं सिद्ध करती हैं कि ऐसे बाबा साधारण मनुष्य ही हैं ,परन्तु चूंकि समय बीतने के साथ उनका कद इस कदर बढ़ चुका होता है कि भुगतने के बाद भी वह मुंह खोलने का साहस नहीं जुटा पाती और इसी चुप्पी का लाभ लेकर वह बाबा अपना आश्रम ऐसे लोगों से सजाता रहता है । ऐसी जगहों पर नामी -गिरामी लोगों के आने जाने से साधारण व्यक्ति इतना सहमा हुआ होता है कि उसके पास विश्वास करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं होता । उदाहरण के तौर पर साईँ बाबा के भक्त 'कलाम साहब' भी रहे और 'सचिन तेंदुलकर' भी , जबकि साईं बाबा भी आसाराम से कम धूर्त नहीं थे ,अब कलाम साहब और सचिन की योग्यता पर तो किसी को कोई संदेह नहीं है ,न ही मुझे है पर आम लोग यह नहीं जानते कि सचिन और कलाम साहब ने उन पर अंध विश्वास कर अपने कर्मों से समझौता कभी नहीं किया । परन्तु इतने बड़े व्यक्तित्व का उनके यहाँ आना जाना देख कर जाहिर है आम आदमी तो अंध भक्त हो ही जाएगा । अतः ऐसे बड़े लोगों का भी दायित्व है कि ऐसी झूठ मान्यताओं को उन्हें बढ़ावा नहीं देना चाहिए । 

यह साधू ,सन्यासी, बाबा अकेले रहते है और चूंकि साधारण मनुष्य ही हैं तब उनमें भी आम लोगों की तरह सभी आवश्यकताओं का जन्म लेना साधारण सी बात है । वह कोई परमहंस नहीं कि उन पर महिलाओं और लड़कियों की संगत का प्रकृति-जन्य असर नहीं होगा और तभी फिर ऐसी घटनाएं सामने आती हैं ।

ऐसी घटनाओं बहुत होती हैं और उजागर तभी हो पाती हैं तब कभी कभार किसी की आत्मा कचोट उठती है ,अन्यथा अनेक बाबा इसकी आड़ में खूब फूलते फलते रहते हैं । इस दिशा में मीडिया ने भी ख़ास कर 'टी वी' ने भी ऐसे चमत्कारी बाबों को बहुत प्रोमोट किया है । आम आदमी अपनी महत्वाकांक्षा पूरा करने चक्कर में इन सब में ऐसा उलझता है कि बस उसके हाथ चंद मालाएं , ताबीज , अंगूठी , कीमती परन्तु बेजान पत्थर और ऐसे आश्रमों के चक्कर ही आते हैं । सब कुछ लुट जाने के बाद वह लाज के भय से किसी से कुछ कह भी नहीं पाता । 

इन आश्रमों में प्रवचन ने एक उद्दोग का रूप ले लिया है ।लाखों करोड़ों का टर्न ओवर है । यह आश्रम बड़े घरानों के ब्लैक मनी को व्हाईट करने का काम बखूबी करते हैं । इस पर एक बार स्टिंग ऑपरेशन भी हो चुका है परन्तु सब बड़े लोग आपस में मिले हुए हैं । किसी का कुछ नहीं होना, बस आम आदमी यूं ही बेवकूफ बन कर इन आश्रमों के उद्दोग का 'रा मटीरियल' बनता रहता है     

बहुत सरल सी बात है ,पूजा पाठ , ईश्वर का ध्यान , यह सब सब स्वयं करने से ही मन को शान्ति मिल सकती है और फिर इसी शांत मन की ऊर्जा से बड़े से बड़े मनोरथ सिद्ध हो सकते हैं । इस काम के लिए कोई अन्य व्यक्ति कितना बड़ा भी सिद्ध ( ढोंगी ) क्यों न हो ,आपकी सहायता नहीं कर सकता ।

जब तक हम इन बातों को नहीं समझेंगे , उँगलियों में रत्न पहनना नहीं छोड़ेंगे , धूर्त पाखंडियों से शंख बजवाते रहेंगे , इन लाल होते बाबाओं के आश्रमों में जा कर इनके चरण छूते रहेंगे , इनके आचरण ऐसे ही मिलेंगे ।


                                                     ( दिखावे पर मत जाओ अपनी अकल लगाओ  )