शनिवार, 31 मार्च 2012

" मूर्ख दिवस........"



'मूर्ख दिवस' से तो बचता रहा,
पर तमाम रातें मूर्ख बनता रहा,
उनकी एक झलक की खातिर,
छत पे नंगे पाँव टहलता रहा,
कवि बना और बना कभी शायर,
खुद को दीवाना समझता रहा,
वो खेलते रहे मुझसे नाखूनों से,
और मै ज़ख्म देख हंसता रहा,
कितनी रातें, तारे कितने,
मेरे सफों पे,
उतरे  कितने चाँद,
कभी सुर्ख कभी स्याह,
लफ़्ज़ों के बाबत ,
बस कर दिया, 
एक दिन,
मेरे नाम |
.
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" मूर्ख दिवस "


               
                   " कोई भी मूर्ख नहीं होता ,बस चाहत में वो तो स्वयं मूर्ख बन अपने 'प्यार'  को खुश देखना चाहता है ,अगर उसके 'प्यार ' को उसी में ख़ुशी मिलती है ...." 

सोमवार, 26 मार्च 2012

" गुनगुनी सी रात....."



गुनगुनी सी रात में,
तुम्हे गुनगुनाना चाहता हूँ,
अनमने से मन को मनाना चाहता हूँ,
लग न जाए तेरी नज़र को मेरी नज़र,
उस नज़र की नज़र उतारना चाहता हूँ,
रह गई हर वो बात जो अनकही अनसुनी,
उसे सुनना और सुनाना चाहता हूँ,
मन ही मन दावे किये हैं बहुत इस दिल ने,
उन दावों को आज आजमाना चाहता हूँ ,
सच न लगे फिर भी मान लेना थोड़ा सा सच,
सच में प्यार जताना चाहता हूँ,
तुम तो एक फूल हो जिसमे ख़ुशबू है बहुत,
उस ख़ुशबू से थोड़ा महकना चाहता हूँ,
आवाज़ दूँ तो आ जाना ज़रूर,
जाते जाते बुझते चरागों  से तेरा दीदार चाहता हूँ ,
मरना ही सच है गर ज़िन्दगी का,
झूल कर तेरी बाहों में मरना चाहता हूँ | 

मंगलवार, 13 मार्च 2012

" लट्टू और लत्ती ......."


बाएं हाथ में लट्टू पकड़ कर वह दाहिने हाथ से उस लट्टू पर लत्ती लपेट रहा था । लट्टू सफ़ेद डोरी (लत्ती) में यूं लिपटा जा रहा था ,जैसे शर्माते हुए जल्दी जल्दी अपना बदन ढक रहा हो,सफ़ेद धारीदार कपड़ों में ।  पूरा लपेटने के बाद उसने दाहिने हाथ में लत्ती का थोड़ा सा सिरा पकड़ा और अपने हाथ को पीछे खींचते हुए लट्टू को जमीं पर पटक दिया । अब लट्टू नाच रहा था ,ज़मीन पर , गोल गोल एकदम भन्नाते हुए । जब नाचना बंद हुआ ,लट्टू थक कर लुढ़क चुका था ज़मीन पर वो भी एकदम निर्वस्त्र ।

घर से निकलते समय रोज़, वह यह सोच घबराती थी कि चौराहे पर पहुँचते पहुँचते घर से चौराहे के बीच, फिर न जाने कितनी जोड़ी निगाहें उसके बदन पर खींचेंगी, अक्षांश- देशांतर की रेखाएं और लपेटेंगी नज़रों की लत्ती उसके बदन पर चारों ओर ,फिर वे निगाहें मन ही मन खींचेंगी उस लत्ती को जोर से, और महसूस करती  रहेंगी , उसका नाचना, गोल गोल ,वह भी बिना कपड़ों के । जब तक वो रास्ता पार होगा ,वह ढुलक कर गिर चुकी होगी अपनी खुद की ही निगाहों में । लट्टू के पास तो वार करने के लिए छोटी सी लोहे की कील भी थी ,पर उसके पास तो वह भी नहीं ।

मंगलवार, 6 मार्च 2012

" आलिंगन ज़िन्दगी का......"



समय ठहरा सा था,
पंछी भी अवाक थे,
रौशनी और चमकी थी,
हवा भी सकुचाई थी,
तितलियाँ शरमाई थी,
साँसों ने साँसों से कहा था कुछ,
पर पलकें चार न हो पाई थीं,
मन तरंगित हुआ था,
और अब भी सिहर उठता  है,
याद करता है जब,
गले मिली थी,
उस रोज़,
तुम ।
.
.
कि,
था,
आलिंगन,
ज़िन्दगी का,
शायद ।