शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

" आजादी से अलग आजादी के मायने ....."


                                                                                        ( चित्र साभार शिखा वार्ष्णेय )

आजाद होना किसे अच्छा नहीं लगता । पर इससे भी बेहतर तब होगा जब हमें आजाद करना भी अच्छा लगने लगे । किसी के विस्तार को सीमित करना उसकी आजादी की विपरीत की सी हालत होती है । किसी के ख़्वाबों को सीमित करना ,ख्यालों को सीमित कर हकीकत में तब्दील न होने देना गुलामी नहीं तो और क्या है । हम जहाँ भी हैं ,जैसे भी हैं और जिस किसी के संपर्क में हैं उसके विषय में यह अवश्य पता होता है कि वह अपनी मर्जी से जीवन जी भी रहा है या इतना मजबूर और बंद दायरे में है कि वह पूरी तरह से अपने मन की बात कह भी नहीं पा रहा है ,पूरी होने को कौन कहे । घर परिवार ,आस पड़ोस ,कार्य स्थल या और कहीं तमाम लोग ऐसे दिखते और मिलते हैं कि यकीन नहीं होता कि वह भी एक आजाद देश के आजाद नागरिक हैं ।

हमारा दायित्व बनता है कि अब हमारी सोच ऐसी हो कि हमें लोगों को आजाद करना भी अच्छा लगना चाहिए । बात चाहे आपसी रिश्तों / संबंधों की हो ,सास बहू की , पिता पुत्र की , पति पत्नी की या और किसी की , सभी को सोचने की और अपनी बात रखने की आजादी तो होनी ही चाहिए । नौकरी में मातहत को अपने से वरिष्ठ के सामने अपनी राय ,अपनी दिक्कतें रखने की आजादी भी होनी चाहिए और यह सब वह दायरें हैं जहाँ आजादी देने वाले को ही पहल करनी चाहिए ।ऐसे मामलों में आजादी मांगने वाले तो अक्सर नेता बन जाते हैं और उनकी तो सब सुन भी लेते हैं और उनके खुद के स्वार्थ के सारे काम होते भी रहते हैं । परन्तु जो अभी सोच पाने में भी आजाद नहीं ,गुलामी वही ढोते रहते हैं ।

तमाम जगहों पर ईंट भट्ठों , कोयले की खदानों में या और भी मजदूर प्रधान कारखानो में आज भी काम करने वाले मजदूर गुलामी की ज़िन्दगी जीते हैं । वह अपने मालिक से लिया उधार पैसा पीढ़ी दर पीढ़ी वापस करते रहते हैं और उसी के एवज में अपना तन, मन सब रेहन रख देते हैं ।  आखिर यह आजाद मुल्क ऐसे लोगों का भी तो है । उन्हें तो आजाद हम लोगों को ही करना है । उनके लिए तो अब महात्मा गांधी , खुदी राम बोस दुबारा आने से रहे ।

एक बात और ,पक्षियों की उड़ान का कोई सीमित दायरा नहीं होता । ईश्वर ने उन्हें अपार विस्तार दिया है । ऐसे में उन्हें कैद कर पिंजरे में रखना घोर अप्राकृतिक , निंदनीय है और आत्मा को कचोटने वाला भी । कभी भी बंद पिंजरे में कैद तोते को निहार कर देखें ,उसकी आँखों में याचना दिखाई पड़ती है और उन आँखों में एक प्रश्न हमेशा ठहरा सा रहता है कि " आखिर मैं अपनी दुनिया ,परिवार ,समाज से अलग क्यों ,मेरा अपराध क्या ?"
आज कम से कम उन्हें ही आजाद कर ऊंची उड़ान भर लेने दें । 

सोमवार, 11 अगस्त 2014

अरे , इश्क तुम्हे .......है !!


एक्सक्यूज़ मी , 'इश्क तुम्हे हो जायेगा' ,चाहिए थी , किताबों की दुकान पर सेल्सगर्ल से कहा मैंने । पूरी बात सुने बगैर उसने मुझे घूरते हुए देखा और पूछा आपको कैसे पता ,मुझे इश्क हो जाएगा । अरे , यह किताब का नाम है ,जो मुझे चाहिए ,मैंने थोड़ा संकोच व्यक्त करते हुए कहा । इस पर अब वो संकोच में आ गई और बोली ,नहीं मेरे पास तो नहीं है ,आप बगल में देख लें ।

बगल की दूकान पर मैंने फिर वही बात कही ,पर अबकी थोड़ा बदलते हुए पूछा कि वह इश्क होने वाली किताब है । यहाँ भी सेल्सगर्ल ही थी ,मुस्कुराते हुए बोली ,आप कोई भी किताब ले लें ,सभी किताबों से पढ़ने पर इश्क हो जाता है । मैंने कहा नहीं ,किताब का नाम ही है 'इश्क तुम्हे हो जाएगा ' । अरे ,फिर तो बहुत उम्दा किताब होगी ,अभी तो मेरे पास नहीं है ,पर ऑर्डर करती हूँ । मैंने कहा पर मुझे तो अभी चाहिए । इस पर उसने यूनिवर्सल पर देखने को कहा ।

वहां गया तो एक नवयुवती तैनात थी काउंटर पर । अबकी मैंने थोड़ा सावधानी बरतते हुए पूछा ,लगभग फुसफुसाते हुए ,अरे इश्क तुम्हे है । वह भी हलके से मुस्कुरा दी और नज़रें गड़ाते हुए बोली ,आप तो नजूमी मालूम होते हो । अभी आज ही मुझे एहसास हुआ कि मुझे इश्क है किसी से और आपने आते ही मुझसे पूछ लिया । अरे ,मैं नजूमी वजूमी नहीं ,एक किताब की तलाश में हूँ जिसका नाम ही है 'इश्क तुम्हे हो जायेगा' । इस पर वह मुस्कुराते हुए बोली ,मुझे तो इश्क हो चुका है ,आप यह किताब किसी और दुकान पर ढूंढो ।

मैंने कहा ,कही यह नाम ,किताब का, मुझे किसी घोर संकट में न डाल दे ,इसलिए अबकी एक कागज़ के छोटे से पुर्जे पर लिखा 'इश्क तुम्हे हो जायेगा ' और लिखकर एक बहुत बड़ी सी किताबों की दूकान पर गया और घुसते ही एक काउंटर पर बैठी सुन्दर सी महिला को कागज़ का पुर्जा थमा दिया । उसने उसे खोला और पढ़ते ही इशारे से एक हट्टे कट्टे आदमी को बुलाया और उसे पढ़ा दिया । उस आदमी ने आव देखा न ताव और मेरा गिरेबान पकड़ कर बोला ,अपने को बहुत बड़ा रोमियो समझते हो ,यूं खुले आम पर्ची पर लिख कर इश्क का इज़हार कर रहे हो । इतना ओवर कांफिडेंस है कि लिख कर दे रहे हो मैडम को ' इश्क तुम्हे हो जाएगा ' । मैं समझ गया ,यहाँ भी अर्थ का अनर्थ हो ही गया । मैंने तुरंत दोनों हाथों को आपस में मिलाते हुए क्षमा मांगने की मुद्रा में कहा ,अरे इसी कन्फ्यूज़न से बचने के लिए मैं तो किताब का नाम लिख कर दे रहा था कि मैडम नाम पढ़ कर किताब दे देंगी अथवा बता देंगी उसके विषय में । पर यहाँ तो लिख कर पूछना भी गुनाह हो गया ।

अब तक वह मैडम सच समझ चुकी थीं । पूछने लगी ,अच्छा राईटर कौन है । मैंने बताया 'अनुलता राज नायर । ओह ,वह किताब तो ऑनलाइन मिल रही है । अभी दुकानो पर बिक्री के लिए नहीं उपलब्ध है । आप ऑनलाइन मंगवा लें । पर आपने पढ़ा है क्या जो इतनी शिद्दत से खरीदना चाहते हैं इस किताब को , मैंने कहा अभी पढ़ा तो नहीं है ,पर जितना जानता हूँ लेखिका को उस हिसाब से निश्चित तौर पर यह बहुत ही उम्दा किताब होगी ।

अब ढूंढ ही लेता हूँ , इश्क ............ऑनलाइन ।

शनिवार, 2 अगस्त 2014

" मैं लालची हूँ ........"


इधर बहुत दिनों से फेसबुक से दूर था । कारण कोई ख़ास नहीं ,बस यूं ही दूर था । ३० जुलाई को अचानक ख्याल आया कि पहली अगस्त को तो मेरा जन्मदिन है और अगर फेसबुक एकाउंट ऐक्टिवेट नहीं किया तो लोग जन्मदिन पर विश कैसे करेंगे । बस शुभकामनाओं की लालच में पुनः एकाउंट ऐक्टिवेट कर दिया और मैंने वहां लिखा भी था "समेटने की चाहत में फिर आ गया हूँ " ,क्योंकि किसी ने सच ही कहा है " दुआओं का एहले करम न समझिए ,बहुत दे दिया जिसने दिल से दुआ दी " |


फेसबुक पर लगभग ८० प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनसे कभी नहीं मिला पर ऐसे लोगों से विचारों / टिप्पणियों के माध्यम से संवाद का एक सिलसिला सा बन गया है और ऐसे लोगों से बस दो लफ्ज़ "हैपी बर्थडे " सुनना अच्छा तो लगता है । इसके अलावा सिस्टम जनरेटेड ही सही पर गूगल जब आपको नाम के साथ अचानक से विश करे तो भी अच्छा लगता है ।


ऐसे अवसरों पर कुछ लोग ख़ास कर याद आते हैं जो फोन कर सीधे दिल में अपनी दुआएं उतार देते हैं । इन्ही सब बातों में उलझा था ,अचानक से मुझे महसूस हुआ कि मैं अब कुछ लालची होने लगा हूँ । लालच संबंधों का , सामीप्य का ,हंसी का , खिलखिलाहट का बढ़ता जा रहा है ।

जब किसी का संग अच्छा लगे तो चाय न ख़त्म होने का लालच , कोई मुस्कुरा दे तो उसे खिलखिलाहट में बदल पाने का लालच दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है । बेटे अपनी उपलब्धियां बताएं तो उनके चेहरे पर आई चमक के बरक़रार रहने का लालच ,निवेदिता आँखे मीच जब हंसे तो उनके गालों पे डिम्पल बने रहने का लालच ,दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है । 

बदल दूँ खिलखिलाहट में ,तबस्सुम लाएं तो लबों पे वो ,
और रोक सकूँ आंसू उन आँखों में ,भीगे पलकें जब कभी भी । 

इस लालच को बढ़ाने में ईश्वर का ही सारा दोष है क्योंकि प्रत्येक लालच को वह पूर्ण कर देते हैं और इसी क्रम में लालच और बढ़ जाती है । 

हाँ , मैं लालची हूँ ।