बुधवार, 9 जनवरी 2013

"एक मुलाक़ात ....ठण्ड में उनसे ........"


हथेलियाँ उनकी ,
दस्तानों सी थी ,
हाथ जो रखे ,
गरम हो गए ।
गुनगुनी सी ,
निगाहें उनकी ,
नरम धूप सी ,
कुछ यूं थी,
पड़ी जब भी .
मुझ पर ,
ख़याल उन्ही के ,
और सुर्ख हो गए ।
वो बोल तो रहे थे ,
न जाने क्या क्या ,
हम तो गुम थे ,
भाप के बादलों में,
जो उठ रहे थे ,
लबों से उनके।

शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

" न तीन में, न तेरह में .........."


किसी नगर में एक धनी सेठ रहता था । उसके पास धन दौलत की कोई कमी न थी । वह सेठ परिवार से भी सुखी एवं संतुष्ट था । तभी उस नगर में एक गणिका आकर रहने लगी । वह बहुत खूबसूरत थी । उसके सौन्दर्य की चर्चा चारों तरफ फैलते फैलते उस सेठ तक भी पहुंची । उसको देखने की लालसा में वह सेठ भी उस गणिका के पास जाने लगा । धीरे धीरे वह गणिका प्रसिद्द होते होते नगर वधू बन गई । उसका सामीप्य पाने की लोगों में होड़ लगने लगी ।

सेठ उसे मन ही मन बहुत चाहने लगा । धन की कोई कमी तो थी नहीं , सो दोनों हाथों से उस पर लुटाने लगा । नगरवधू भी उससे बहुत प्यार जताती थी । एक दिन सेठ अचानक बहुत बीमार हो गया । उसे नगर वधू की याद सता रही थी । किसी भी कीमत पर वह सेठ उस नगरवधू से मिलना चाह रहा था । उसने अपने मुनीम को बुलाया और उससे कहा कि जाकर नगर वधू को बुला लाओ । उसे मेरा नाम मत बताना ,बस इतना कहना कि  जिसको तुम पूरे नगर में सबसे अधिक प्यार करती हो ,उसकी  तबियत ख़राब है ,उसी ने बुलाया है ।

मुनीम सेठ का सन्देश लेकर नगर वधू के पास पहुंचा और उससे कहा कि , तुमको जो सबसे अधिक प्यार करता  हो उसने तुम्हे याद किया है । इस पर वह नगर वधू ,नहीं समझ पाई । तब फिर मुनीम ने कहा कि अरे , जिसे पूरे नगर में तुम सबसे अधिक चाहती हो, उसका नाम लो, तब समझ आ जाएगा । इस पर उस नगर वधू ने तीन व्यक्तियों के नाम लिए परन्तु उन तीन नामों में उस सेठ का नाम नहीं था । इस पर मुनीम ने पुनः उससे वही बात दोहराई ,अरे वह व्यक्ति जो स्वयं भी तुमसे सबसे अधिक प्यार करता है , उसी ने तुम्हे बुलाया है । इस बार नगर वधू ने तेरह व्यक्तियों के नाम लिए । उन तेरह नामों में भी उस सेठ का नाम नहीं था । अपने सेठ का नाम न सुनकर मुनीम अपने सेठ के पास लौट आया ।

लौट कर उसने सेठ से कहा, आपका नाम न तीन में है , न तेरह में । आप बेकार उसके चक्कर में पड़  कर अपना परिवार , धन ,समय और संस्कार सब नष्ट कर रहे हैं  । यह सुनकर और जानकार सेठ के ज्ञान चक्षु खुल गए और वह उस नगर वधू के मोह से निकल गया और पुनः अपने परिवार में आनन्द से रहने लगा ।

तभी से यह मुहावरा प्रचलित हो गया , " न तीन में न तेरह में " ।

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

" अगर भारत में होता तो क्या होता ....."



शिखा वार्ष्णेय जी ने एक किस्सा लन्दन का कुछ यूं बयाँ किया :

" एक रात करीब डेढ़ बजे दरवाजे की घंटियाँ जोर जोर से बजीं। देखा तो 2-3 पुलिस की गाड़ियां बाहर खड़ीं थीं और 6-7 जवान दनदनाते घर में घुसे की हमें आपके बागीचे में जाना है। हमने बगीचे का गेट खोला उन्होंने जल्दी जल्दी सब तरफ देखा और हमें "थैंक्स , सॉरी तो डिस्टर्ब यू" कहते चलते बने। हमने बाहर जाकर पूछा तो सिर्फ इतना बताया गया कि किसी अपराधी का पीछा कर रहे हैं जो लोगों के घरों में बागीचे के रास्ते भागता , छिपता घूम रहा है। करीब 10 मिनट बाद फिर एक पुलिस अफसर आया यह कहने कि आपका नाम और फ़ोन नंबर दे दीजिये। पीछा करने में आपके गेरेज का दरवाजा हमसे टूट गया है उसकी जिम्मेदारी हमारी है और हम इतनी रात को आपको डिस्टर्ब करने के लिए माफी चाहते हैं।पता चला कि कुछ लोगों के आपस के किसी झगड़े के तहत कोई साधारण गुंडा था जिसे उन्होंने पकड़ लिया था,और उसी के लिए इतना सब था, और अगर जरूरत पड़ती तो हेलीकाप्टर भी बुलाया जाता पर उसे छोड़ा नहीं जाता। उसके बाद का काम कानून का है कि क्या सजा उसे हो , फिर कोर्ट का, कि सजा सुनाये, बेशक सजा कुछ भी हो परन्तु होगी जरूर और शायद यही व्यवस्था का मुख्य कारण है। "

अगर यही किस्सा भारत में होता तो कुछ यूं होता :

एक रात करीब डेढ़ बजे कोई जोर जोर से गेट भडभड़ा रहा था । गुस्से में, मैं बाहर निकला और देखा कि 2/3 पुलिस के सिपाही घर के भीतर कूदने की फिराक में थे। मैंने कहा , भाई क्यों कूद रहे हो भीतर, और घंटी बजाते तो हम खुद ही गेट खोल देते । आप लोग तो गेट ही तोड़ डालने के चक्कर में है । मैं घर के भीतर था सो कुछ अकड़ दिखा रहा था । मेरे गेट खोल देने के बाद वे सब भीतर आ गए , अब अकड़ की बारी उनकी थी । वे पुलिस वाले बोले, एक तो चोर को अपने घर के भीतर छिपाते हो, ऊपर से अंग्रेजी बोल रहे हो । मैंने कहा , सर मेरे यहाँ चोर , क्या कह रहे हैं आप ! इस पर वे बोले ,अभी अभी एक चोर तुम्हारे घर के अन्दर कूद कर भागा है , उसे बाहर निकालो । मैंने कहा , अरे वह मेरे घर की आड़ लेकर कूद फांद कर भाग गया होगा , मेरा रिश्तेदार थोड़े ही है जो मैं उसे बाहर निकालूँ । इस पर उसमें से एक ने जोर से डंडा फटकते हुए कहा , अभी चोर को छुपाने के जुर्म में चलान कर दूंगा ,सारी ज़िन्दगी जेल में कटेगी । पूरे मोहल्ले में इतने सारे घर हैं , वह तुम्हारे ही गेट के अन्दर क्यों कूदा  । मैंने कहा , अरे ! मेरा गेट कम ऊंचाई का है , उसे आसान लगा होगा ,कूद गया होगा और बाकी लोगों के यहाँ चौकीदार रहता है ,सो डर के मारे उधर नहीं गया होगा । मै साधारण सा मध्यम वर्गीय व्यक्ति , मेरा चोर से क्या वास्ता । इस पर पुलिस वाला बोला , ठीक है, पढ़े लिखे लगते हो पर ज्यादा होशियार मत बनो , किसी के माथे पर नहीं लिखा होता कि कोई चोर है कि बादशाह । जितना पूछा जाय , उतना जवाब दो । अब मैं धीरे धीरे एक अत्यंत सामान्य नागरिक की तरह पुलिस के आगे मेमने की तरह गिडगिडाने की मुद्रा में आने लगा था । मैंने कहा , भाई आप पूरे घर की तलाशी ले लो । तलाशी लेने के बहाने उन्होंने पूरे घर को रौंद डाला । उनकी आपाधापी में मेरे घर के 10 / 12 गमले टूट गए , ड्राइंग रूम की कालीन को एकदम अपने गंदे जूतों से कचर डाला । सात / आठ सिगरेट के बचे टुकड़े फेंक गए उस घर में, जहां धुंवे  के नाम पर आज तक केवल अगरबत्ती और धूप का ही धुंआ फैला था । 

बड़ी मुश्किल से समझाते समझाते, उन्हें वापस जाने को तैयार किया फिर भी जाते जाते कह गए कि आगे की तफ्तीश के लिए जब कभी थाने बुलाया जाय , चुपचाप चले आना और हाँ , कुछ खर्च वर्च तो कर दो ,घर तो ठीक ठाक बना रखा है । मैंने जल्दी से पत्नी की नज़र बचा कर 500 के चार नोट उनकी मुट्ठी में पकड़ा दिए और उनके जाने के बाद ऐसा महसूस कर रहा था कि जैसे ईश्वर की कृपा से कितना बड़ा जुर्म करके आज पुलिस से बच निकला और किसी तरह एक ग्रह कटा । 

" मेरा मकसद अपने देश की बुराई करने का बिलकुल नहीं था परन्तु हमारी पुलिस से डर आम आदमियों को ही लगता है , अपराधियों को नहीं । हमें एक बेहतर पुलिस व्यवस्था की आवश्यकता है तभी 'दामिनी' जैसी घटनाओं पर अंकुश लग सकता है । यही सच है । "

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

" उत्साह एक नई कॉपी का ....."


बचपन में पढ़ाई के दौरान जब कभी किसी भी विषय की कॉपी भर जाती थी या भरने वाली होती थी तभी उसी क्षण मन में एक नई कॉपी मिलने का उत्साह और उमंग अंकुरित हो उठता था । नई  कॉपी की खुशबू ही अलग होती थी । उस पर लिखने का उत्साह इस कदर प्रबल होता था कि  उस पर लिखने की शुरुआत भी प्रायः नई  पेन्सिल से ही किया करता था ।

नई  कॉपी मिलने पर पहले उस पर करीने से जिल्द चढ़ाना ,लेबल लगाना और फिर उस पर अपना नाम लिखना एक ऐसा महत्त्वपूर्ण कार्य होता था कि उस समय सब सुध बुध खोई हुई होती थी । अगर गलती से भी नई कॉपी कभी कभार किसी कोने से मुड़  जाती थी तब उसे अपनी तकिया के नीचे  रात भर रख कर सीधा किया करता था । प्रत्येक नई  कॉपी के साथ यह प्रण  भी रहता था कि इस पर लिखने का कार्य इतनी सावधानी के साथ करूंगा कि रबर ( मिटाने हेतु ) का प्रयोग बिलकुल ही न करना पड़े और रिकार्ड के तौर पर कुछ दो / तीन  कॉपियाँ ( ख़ास कर साइंस की ) ऐसी होती भी थी जिन पर रबर का प्रयोग बिलकुल शून्य रहता था ।

आज साल का पहला दिन एक नई कॉपी की सी खुशबू समेटे हुए है अपने में । पुरानी कॉपियों में कितनी भी गोजा गाजी ( यही शब्द सभी लोग प्रयोग करते हैं बचपन में आड़ी  तिरछी लाइन खींचने में ) कर रखी हो अथवा कितना भी रबर का प्रयोग किया गया हो , वह सब भूलते हुए बस नए साल में इतना सा प्रण  करने की आवश्यकता है कि इस नए साल में हम अपनी इबारत ऐसी लिखे कि उस पर पश्चाताप कर उसे मिटाने की आवश्यकता न हो और हमारी लिखी इबारत एक सभ्य और विकसित समाज को ही अपने में संजोये हुए हो और वह सारी दुनिया के सामने एक नजीर की तरह स्थापित हो । 

आगे आने वाले पन्नों में सभी को खुशबू भरी मिले , एक नई  सुबह की , एक नए पुष्प की, एक नई मुस्कान की  ।  बस इतनी सी प्रार्थना के साथ सभी लोगों को नए वर्ष की , एक नई सुबह की, बधाईयाँ और शुभकामनाएं |