सोमवार, 30 जनवरी 2012

" तीन दशक तीन जनम ..."

            
            साइकिल दीवार के सहारे खड़ी कर जैसे ही मै जीने पर पाँव रखता ,उसका छोटा भाई चिल्ला उठता ,दीदी तुम्हारे 'सर' आ गए । प्रारम्भ में मुझे केवल उस लड़की को पढ़ाने के लिए ही रखा गया था, पर एक दो माह बाद उनकी मम्मी और उनके नाना जी को मै कुछ ज्यादा ही भा गया था । अतः उसके भाई को भी पढाने की जिम्मेदारी मुझे मिल गई थी । पारिश्रमिक के तौर पर मुझे १०० या १५० रुपये मिलते थे, जो मेरे लिए अच्छा खासा मायने रखते थे । वो लड़की बहुत ही शरारती थी और चंचलता तो उसमें कूट कूट कर व्याप्त थी । भाई उसका छोटा था पर शैतानी में अपनी बहन का साथ बखूबी देता था ।मै स्वयं में बहुत गंभीर रह उन दोनों को पढाता था । मै स्वयं उस समय कक्षा १२ का छात्र था ।वे दोनों शायद कक्षा ९ और ८ में रहे होंगे ।मेरे लिए प्रतिदिन उन्हें पढ़ाने जाना मेरे लिए एक अच्छा खासा घबराहट भरा अनुभव हुआ करता था। बीच बीच में उन दोनों के नाना जी आकर चुपचाप मेरी पढ़ाने की शैली देखते और मुझे अत्यंत प्रोत्साहित भी करते थे । मूलतः वो परिवार व्यापार एवं कारोबार से सम्बन्ध रखता था । उनके ड्राइंग रूम में एक बड़ी सी आराम कुर्सी रखी होती थी ,जिसके बारे में वे लोग गर्व से बताया करते थे कि कभी जवाहर लाल नेहरु जी उनके इलाके में किसी सिलसिले में जब आये थे तब उसी पर बैठे थे । उनकी मम्मी भी मेरे लिए चाय अवश्य बनाती थी पर जब मेरा पढ़ाने का एक घंटा पूरा हो जाया करता था ,तभी लेकर आती थी । इसी बहाने मुझे १५ मिनट और पढ़ाने पड़ते थे । शायद यह उनके व्यापार का तजुर्बा था । 
          उस लड़की से मेरी पहली मुलाक़ात इस तरह हुई थी
          शायद मैंने एक दो बरस पढ़ाया होगा । फिर मुझसे वो शहर छूट  गया ।
           इसके बाद मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और बिजली विभाग की नौकरी में आ गया । नौकरी के ५/६ वर्ष पूरे करने के बाद मेरी तैनाती पहाड़ों पर उत्तरकाशी जिले में हुई । एक दिन वहीं उत्तरकाशी में अचानक शाम को मैंने उसी लड़की को मोटरसाइकिल पर किसी के साथ बैठे देखा । मुझसे रहा न गया । मैंने आवाज लगा कर रोका ,वो भी देखकर चौक गई ।उसके साथ उसके पति थे, जो मेरे ही विभाग में मेरे कलीग थे ,पर मुझसे पहले से परिचित न थे ।
          लगभग १० वर्षों बाद ,यह उस लड़की से मेरी दूसरी मुलाक़ात थी ।
          फिर वो मेरे घर आई ,मेरी श्रीमती जी से मिली । मैंने देखा उसकी चंचलता में अब तक कोई कमी न आई थी । वो पहले से और ज्यादा शैतान सी हो गई थी । 
          दो वर्षों बाद मेरा  वहां से स्थानान्तरण अन्यत्र हो गया । एक दिन अचानक खबर मिली कि, उस लड़की के पति की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई । वे उत्तरकाशी से बाइक से हरिद्वार जा रहे थे और रास्ते में दुर्घटना हो गई ।कितना  स्तब्ध  और जड़वत हो गया था मै ,यह समाचार सुनकर । उसकी चंचलता और उसके वैधव्य में बस हिसाब किताब करता रह गया था कि,ईश्वर का यह कैसा कारोबार है । खैर ,फिर कभी मुलाक़ात का प्रश्न भी नहीं था। बहुत दिनों बाद यह अवश्य पता चला था कि उस लड़की को मेरे ही विभाग में अनुकम्पा के तौर पर नौकरी मिल गई है ,पर उसकी तैनाती कहाँ है ,यह ज्ञात नहीं था और सच तो यह है कि जानने का भी प्रयास नहीं किया था । 
           आज दिनांक ३०.१.१२ को मै अपने ही विभाग की एक अन्य यूनिट में गया ।मै अपने दोस्त के कक्ष में बैठा बातचीत कर रहा था ,तभी वहां हाथ में फ़ाइल लिए एक महिला आई । उसे देखते ही लगभग २० वर्षों पहले का चेहरा याद आ गया । यह वही लड़की थी ।
           यह मेरी उस लड़की से तीसरी मुलाक़ात थी ।   
           मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि उससे बात का सिलसिला कहाँ से शुरू करूं । पर अबतक शायद जीवन के झंझावात से वो बहुत कुछ सीख और समझ चुकी थी ,फ़ौरन बोल पड़ी कि आपको तो पता होगा कि मेरे हसबैंड की डेथ हो गई थी ,उन्ही की जगह पर जॉब मिल गई है और अब मैंने दूसरी शादी कर ली है ।
           मेरे सामने अभी भी उसके बचपन का  चंचल चेहरा कौंध रहा था । जल्दी से मैंने औपचारिकता वश मोबाइल नंबरों का आदान प्रदान किया और अपने दोस्त से जल्दी उठने का बहाना कर चाय पिए बगैर वापस अपने कार्यालय आ गया । 
            आज दिन भर सोचता रहा कि उस लड़की ने तो तीन दशक में तीन जनम जी लिए, शायद ।   

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

" बेबस तकिया ..."



कितना बेबस,
ये तकिया,
सपनो की मौत, 
होते देखता रोज़,
पर उसके बस में,
कुछ भी नहीं ।
कुछ सुकून पाता तो है, 
दिलों से लिपट कर,
और खुद को,
भिगो भी लेता है अक्सर ।
कितने फूल देखे सिरहाने उसने,
इत्र और खुश्बू से, 
सराबोर हुआ कई बार ।
मगर हिस्से आयी, 
तन्हाई ही अक्सर ।
कभी तो दो दिलों को,
सुलाया भी ,रुलाया भी,
एक ही साथ |
और कभी,
ये तेरा वो मेरा का,
हुआ चश्मदीद गवाह ।
इससे तो अच्छी,
किस्मत चादर की,
दुःख तो नही देखा,
बंटवारे का ।

सोमवार, 23 जनवरी 2012

" आंसू हम पीते रहे, वो खिलखिलाते रहे...."


वो महका किये,
हम बहका किये,
वो संवरते रहे,
हम देखा किये,
वादा वो करते गए,
हम निभाया किये,
गुनाह वो करते रहे,
सज़ा हम पाते रहे,
हम चुप ही रहे,
वो चहका किये,
आंसू हम पीते रहे,
वो खिलखिलाते रहे,
हम दुआ करते रहे,
वो सलामत रहें ,
फिर भी हमको वो,
बद-दुआ समझा किये,
खुश रहें वो अपनी दुनिया में सदा,
हम बस यही दुआ करते चले |

रविवार, 22 जनवरी 2012

" वो महकते रहें,हम बहकते रहें ...."



उनकी पसंद,
खुशबू,
सबेरे के अखबार की,
पहली बरसात की,
पिसी मेहंदी की,
जले दूध की,
भीगे कोहरे की, 
तिल के पुए की,
भीगी सड़क की,
सावन की रात की,
और नींबू के अचार की,
मेरी पसंद, 
खुशबू, 
उनके साथ की,
उनके जज़्बात की,
उनकी बात की,
उनके गेसू की,
उनके टेसू की,
उनके शिकवे की,
उनके शिकायत की,
उनके अंदाज़ की,
खुशबू,
"उनकी खुद की |"


                                "बस वो महकते रहें,हम बहकते रहें....|"

शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

" क्यों लिखूँ कविता .....?"


कविता लिखना शायद ,
होता है कीमोथीरेपी जैसा,
दर्द और बहुत दर्द के बीच, 
झूलती ज़िन्दगी, 
पर हाँ ! उम्र मिल जाती है,
थोड़ी साँसों को और,
साथ ही साथ, 
उस "कैंसर" को भी ।
उनका मिलना,
न मिलना, बिछुड़ना,
रूठना, रुलाना,
कभी लबों पे तबस्सुम,
और कभी, 
डबडबाई आँखें,
जिनमे कोई भी,
डूबना चाहे,
ना-उम्मीद उम्मीदों की,
फिर अचानक,
खुशबू मुठ्ठी भर,
और धूप में,
उनका साया,
क्या करूं,
कितना याद करूं,
सब यादें उलझ, 
सी जाती हैं, 
आपस में,
रूह में उनका आना, 
फिर बिना आवाज, 
चले जाना,
सब सोचता हूँ, 
निचोड़ता हूँ, 
निथारता हूँ,
सीने में दर्द, 
बर्दाश्त करता हूँ, 
तब कविता, 
निकलती है, 
और खुद को, 
लिखती है, 
मेरे सफे पे,
बहुत तकलीफ, 
होती है, 
तब बनती है कविता,


"क्यों लिखूँ कविता !!"





बुधवार, 18 जनवरी 2012

" बच्चों से अपेक्षा से पहले बच्चों की अपेक्षाएं ......"

     
          व्यक्ति का स्वयं का अस्तित्व ही प्रकृति या ईश्वर के होने का बोध कराने का सक्षम प्रमाण होता है परन्तु स्वयं का अस्तित्व में आना इतनी सहजता से होता है कि व्यक्ति स्वयं के होने का दृश्य नहीं देख, समझ पाता । जीवन में जीवन-साथी का आना भी एक सामाजिक और स्वभाविक क्रिया सी लगती है ।परन्तु विवाह के पश्चात घर आँगन में किलकारी सुनने को बेताब कान शनै: शनै: ईश्वर की सत्ता को समझने लगते हैं और जब घर में पुत्र या पुत्री का जन्म होता है तब शत प्रतिशत उस परम पिता परमेश्वर की आस्था में विश्वास हो जाता है कि जीवन से जीवन कैसे उत्पन्न होता है । 
          बच्चे के जन्म के साथ ही माता-पिता उसे एक काल्पनिक सांचे में ढालने को तैयार और तत्पर रहते हैं ।बच्चा प्रारम्भ में अबोध होता है । किलकारी मारता है ,खेलता है ,रोता है, तंग करता है ।माता-पिता उससे अपने मूड ,मन ,समय और आवश्यकतानुसार व्यवहार करते हैं । बच्चा अबोध अवश्य है पर वह उस समय अपने आसपास अपना बिम्ब ही ढूंढता है ।उसकी अपेक्षा यह होती है कि उसके व्यवहार के अनुसार ही माँ-बाप उसके संग व्यव्हार करे । पर शायद उसके बचपन में यह अनदेखी अक्सर सभी से हो जाती है । इसके विपरीत उस नन्ही सी जान से सब आशा करते हैं कि वह उन बड़ों की समय सारिणी के अनुसार ही अपनी दिनचर्या रखे । 
         और यहीं से बच्चों से अपेक्षा और बच्चों की अपेक्षा के बीच द्वन्द आरम्भ हो जाता है ।जैसे जैसे बच्चे बड़े होते हैं ,वे विशेषकर अपने माँ-बाप और शिक्षक में अपना आदर्श और कभी कभी स्वयं को देखते हैं ।बच्चे सारी दुनिया में अपने माँ-बाप को ही सबसे अधिक विद्वान और समर्थ मान लेते हैं । धीरे धीरे बड़े होने पर वे अपने स्कूल और आसपास के बच्चों के परिवेश और उनके माँ-बाप को देखते हैं और तब उनसे अपने परिवार ,विशेषकर अपने माँ-बाप की तुलना करते हैं ।उस समय बच्चों की यह अपेक्षा होती है कि उनके माँ-बाप भी पद प्रतिष्ठा में सबसे उच्च हों । भिन्नता होने पर और स्पष्ट कारण न जानने पर उनमें हीनता का भाव आने लगता है । यहीं से उन्हें तथ्यों को छुपाना और बातें बनाना आने लगता है । इस समय आवश्यकता होती है कि बच्चे को यह बताया जाये कि समाज में आर्थिक विषमता क्यों है और वह कितनी महत्त्वपूर्ण है ।  
          अनुशासित बच्चे स्कूल में सम्मान पाने पर घर में भी वैसा व्यवहार करना चाहते हैं परन्तु घरों में माँ-बाप उसकी बात को सहजता से ले गंभीर नहीं होते । परिणाम स्वरूप उसे समझ आ जाता है कि स्कूल की बातें केवल अंक प्राप्त करने के लिए हैं ,व्यवहारिक जीवन में उनका कोई स्थान नहीं है । 
          वयस्क होते होते उसे तीन प्रकार की ज़िन्दगी दिखाई पड़ने लगती है । पहली घर में ,माँ-बाप के व्यवहार के साथ ,दूसरी स्कूल की और तीसरी उसके अपने दोस्तों के परिवेश और माहौल की । बस इन्ही तीनों में वह उलझ जाता है कि सच क्या है । अन्य बच्चों के माता पिता यदि अधिक सुसंस्कृत है या उच्च पद पर आसीन है तब वह अपने घर में भी वैसा ही वातावरण चाहता है । ऐसे में माँ-बाप को चाहिए कि आर्थिक  पक्ष को छोड़ कर अन्य सभी दी जा सकने वाली सुविधाएं और वातावरण उन बच्चों को  अवश्य दें ।
           जितना कोई माँ-बाप अपने बच्चे को समझता है ,उससे अधिक उनका बच्चा अपने माँ-बाप को समझता है । वह अच्छी तरह से जानता है कि उसके माँ-बाप उससे क्या अपेक्षा रखते हैं  और यदि वह बच्चा उन अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर रहा है तो वो माँ-बाप कैसा अनुभव कर रहे होंगे । अपेक्षाकृत परिणाम न मिलने पर माँ-बाप को बच्चों के आगे या किसी के भी आगे दुःख प्रदर्शित नही करना चाहिए क्योंकि वह बच्चा तो पहले से ही दुखी है ,अपितु उसे यह भरोसा दिलाया जाना चाहिए कि परेशान मत हो ,आखिर हम माँ-बाप है न । उसका भविष्य संवारने के लिए जो भी संभव हो प्रयास करे ,उसकी छोटी छोटी सफलताओं पर प्रसन्नता दिखाएँ और असफल होने की जिम्मेदारी स्वयं पर लें । बचपन में जब माँ-बाप छोटे से बच्चे को जब ऊपर आसमान की तरफ उछालते हैं तब वह बच्चा बिना डरे हुए किलकारी मारते हुए हंसता रहता है क्यों कि उसे विश्वास रहता है कि वह अपने माँ-बाप की गोद में है और वहां पूरी तरह से महफूज़ है । यही भरोसा उसे बड़े होने पर भी मिलता रहना चाहिए कि वह कितना भी असफल क्यों न हो जाए ,माँ-बाप उसे तब भी अपने प्यार में महफूज़ ही रखेंगे ।
         कभी कोई कठिन परिस्थिति उत्पन्न हो जाए तब माँ-बाप को एक प्रयोग यह करना चाहिए कि तनिक देर के लिए अपनी स्थिति अपने बच्चे से परिवर्तित कर लें और जैसा व्यवहार बच्चे से अपेक्षित करते हैं स्वयं करके देखें । तुरंत समाधान मिल जाएगा । आपका बच्चा आपका है और आप के ही जैसा है ,आप क्यों चाहते है कि वह दूसरों की तरह व्यवहार करे । उसके लिए पहले आपको उस दूसरे बच्चे के माँ-बाप की तरह का व्यवहार और जीवन शैली अपनानी पड़ेगी । दुःख होता है जब लोग अपने बच्चों की तुलना दूसरे अच्छे बच्चों से करते हैं और उन्हें कोसते हैं । जबकि यदि तुलना उनकी खुद की, उन अच्छे बच्चों के माँ-बाप से की जाए तो शायद दोषी वह स्वयं ही पाए जायेंगे ।  
         प्रत्येक बच्चा अच्छा होता है, प्यारा होता है और बहुत कुछ करने की क्षमता रखता है । आवश्यकता केवल उसकी खूबियों और रुझान को समझने की होती है ।
               

          "जेनरेशन गैप जैसी कोई चीज नहीं होती ,वह तो बस 'बच्चों की अपेक्षाओं 'और 'बच्चों से अपेक्षाओं' के अंतर का नाम ही है शायद ।"

सोमवार, 16 जनवरी 2012

" वाइपर और ज़िन्दगी ...."

           
              हलकी सी भी बारिश अगर लगातार हो रही हो और कार का वाइपर काम न करे ,तो फिर आँख के आगे का पूरा दृश्य धुंधला हो जाता है और आँखे बेमानी हो उठती हैं | कितनी भी ज़ोरों की बारिश हो ,वाइपर चलता रहा बस, फिर बारिश में कार चलाने का लुत्फ़ आ जाता है | देखें तो, महज दो डंडियाँ बस, लगातार पानी पोछती हुई ,कार की कीमत के आगे उन डंडियों की कीमत नगण्य ,पर वे काम न करें तो बारिश में कार बेकार |
              ज़िन्दगी में भी हमारी ऐसे अक्सर बारिश होती रहती है ,कभी खुशियों की ,कभी दुखों की ,कभी धन दौलत की, अवसरों की ,कभी अभावों की | हम इन बारिशों में अक्सर अपनी ऑंखें धुंधली कर लेते हैं | हमें साफ़ साफ़ कुछ दिखाई नहीं पड़ता है और परिणाम स्वरूप  कभी हर्ष के अतिरेक में और कभी विषाद के साए में अपने लक्ष्य और पथ से भ्रम-वश भटक जाते हैं और इसका भान तब होता है, जब बारिश थमती है पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है |
              ज़िन्दगी की गाड़ी चलाने का लुत्फ़ तभी आ सकता है, जब आपकी जिंदगी रुपी गाड़ी में 'विवेक' रुपी वाइपर लगा हो, जो बारिश चाहे जैसी हो बस उसे साफ़ कर आगे का रास्ता स्पष्ट करता चले | और अगर ऐसा है तो फिर खराब वाइपर वाली 'होंडा सिटी' को अच्छे वाइपर वाली मारुती '८००' भी जीवन की दौड़ में पछाड़ सकती है |
              बस आवश्यकता है एक जोडी वाइपर की ,जिसमे से एक वाइपर आपका और दूसरा आपके जीवन साथी का हो | हाँ ! दोनों एक ही कला में चलने भी चाहिए नही तो उनमे आपस में टकराने का खतरा हो जाएगा और वे आपस में उलझ कर अपना कार्य करना बंद कर देंगे | फिर तो अच्छे वाइपर होते हुए भी आगे कुछ दिखाई नहीं पडेगा |
             
                "बात तो मामूली सी है,पर है समझ से परे "

रविवार, 15 जनवरी 2012

" चुनाव कुछ यूँ क्यों न हो ...?"

         
           लोकतंत्र में बस एक ही सिद्धांत प्रतिपादित और सिद्ध भी है कि, जिस नीति के समर्थक अधिक हैं ,वही उचित और सर्वमान्य होनी है | सारा खेल संख्या बल का है | संख्या बस व्यक्ति की होनी चाहिए ,वो व्यक्ति अथवा मतदाता अंगूठा छाप है या शिक्षित ,दोनों के मत का समान मूल्य है | अब अगर कुल मतदाताओं की संख्या में सही निर्णय न ले पाने वालों की संख्या अधिक है ,तो निश्चित तौर पर उनके  द्वारा लिया गया निर्णय गलत हो जाएगा और अंततः हानि समाज और देश की ही होती है | हमारे नेता लोग इस बात को अच्छी तरह से जानते है | इसीलिए वो ऐसे वर्ग को प्रभाव डालने के लिए अवश्य चुनते है ,बल्कि इसी फेर में रहते है कि जो वर्ग अशिक्षित है और समाज को दिशा नहीं दे सकता ,परन्तु चूंकि मत तो सभी का बराबर है ,ऐसे लोगो को छोटी छोटी और ओछी बातों से बहलाकर अपने पक्ष में मतदान हेतु तैयार कर लेते है |
         लोकतंत्र अच्छी व्यवस्था है ,बशर्ते मतदाता पढ़े लिखे हो ,उनमे ज्ञान हो ,जिसे वे चुनने जा रहे हैं ,वो भविष्य में उन्हें क्या दे सकता है | जाति धर्म क्षेत्र के आधार पर राजनीति कभी समाज के हित में नहीं हो सकती |अल्पकालिक तौर पर यह सब लुभाता तो हो ,पर कुछ ही काल बाद सच्चाई सामने आ जाती है |
         चुनाव के द्वारा हम अपने देश, समाज का सफल गवर्नेंस पांच वर्षों के लिए कराना चाहते है | पर अक्सर चूक हो जाती चयन करने में | एक प्रयोग ऐसा क्यूँ न करें कि जैसे अपने शहर ,जिले या बड़े स्तर पर देश की योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए निविदाएँ (टेंडर ) आमंत्रित करते है ,उसके लिए पहले, किये जाने वाले कार्य की गुणवत्ता और स्तर के सम्बन्ध में एक स्पेसिफिकेशन बना लेते है ,उसकी लागत और समय सीमा भी अनुमानतः पहले से तय कर ली जाती है | टेंडर प्राप्त होने पर सभी के सम्मुख उसे खोला जता है ,जिसकी लागत और मानक पहले से तय मानकों से मेल खाती है ,उसी को कार्य आबंटित किया जाता है | यदि वो टेंडरर गुणवत्ता  या समय के मानक में शिथिलता बरतता है तब उस पर आर्थिक दंड लगता और पुनरावृत्ति होने पर उसे काली सूची में डाल दिया जाता है | इसी फार्मेट पर पहले प्रत्येक क्षेत्र में समस्याओं के निराकरण हेतु और नई योजनाओं के  विकास के लिए ,ब्लाक ,तहसील ,जिले और प्रदेश के स्तर पर योजनाओं का एक ब्लू प्रिंट बनाया जाये ,जिसको बनाने में आम आदमी की भी भागीदारी हो और इस ब्लू प्रिंट के आधार पर प्रस्तावित विकास को कार्यरूप में परिणित करने के लिए राजनैतिक दलों से निविदाएँ आमंत्रित की जाए | जो सही मायने में उन दलों का मेनीफेस्टो हो | जिस दल द्वारा अभीष्ट योजनाओं को अधिक से अधिक क्रियान्वित करने का ,वो भी कम से कम समय और न्यूनतम लागत में ,लिखित अनुबंध किया जाय,उसी दल ,नेता को विधायक या सांसद या सभासद बनाया जाय | सम्पूर्ण प्रस्तावित कार्यों ,योजनाओं को पूरे पांच वर्षों में बाँट दिया जाय और पहले ही दिन से उलटी गिनती प्रारम्भ करते हुए कार्यों का अनुश्रवण किया जाये | यह कार्य दलों के स्तर पर हो | दल अपने अनुसार किसी को भी उस स्थान से नामित कर विधायक ,सांसद बना सकते हैं|
         सारा का सारा चुनाव दल-प्रधान होना चाहिए | दलों का महत्त्व नेता से ऊपर होना चाहिए | स्वतन्त्र रूप से वे ही नेता चुनाव लड़ते है जो अपने क्षेत्र में धनबली और बाहुबली होते है | बाद में अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के उद्देश्य से किसी भी दल में शामिल हो जाते है |
          वर्तमान व्यवस्था में एक प्रयोग यह भी हो सकता है कि चुनाव में उम्मीदवार की घोषणा न की जाये | सारा चुनाव बस दलों के आधार पर कराया जाय | जब दल जीत जाए तब ,दल स्वयं अपने किसी भी नेता को उस क्षेत्र का प्रतिनिधि चयनित कर लें| तभी ये चुनाव सिद्धांतों और विकास की शर्तों पर संपन्न कराया जा सकता है |

               "मतवाले" ये नेता हम "मत" वालों का कब तक शोषण करते रहेंगे  | तनिक सोंचे ज़रा....   

सोमवार, 9 जनवरी 2012

" चुनाव-चिन्ह डायनासोर क्यों न हुआ .......?"


              राजनैतिक दल के चुनाव-चिन्ह वाले सभी बुत ढक दिए जायेंगे | गोया  कहीं बुत खुले रह गए तो वे मतदाताओं को आवाज़ लगा लगा के अपने पक्ष में बहला फुसला न लें | काम युद्ध स्तर पर शुरू कर दिया गया है | ठण्ड भी बहुत है | इन पर कपड़ा लपेटने वाले मजदूरों को देखें ,उनके तन पर ठीक से मोटा कपड़ा भी नहीं है कि वे ठण्ड से बच सके और आदेश ऐसा कि पत्थरों के बुत को मोटे कपड़ों में लपेटा जा रहा है | ठीक भी है, आचार संहिता का उल्लंघन कतई न हो , भले ही मानव-संहिता की अनदेखी हो जाए |
              इन स्मारकों के बगल से गुजरने पर पहले इनकी ओर ज़रा भी ध्यान नहीं जाता था ,परन्तु अब ढके होने बाद कोई भी कौतूहल वश अवश्य पूछेगा कि ,परदे के पीछे क्या है ? और जो मकसद आयोग का रहा होगा ,इसे अनुपालित कराने में, वह पूरी तरह ध्वस्त हो जायेगा | यह कार्यवाई तो अनायास ही भावनाओं को उद्वेलित करने वाली हो गई |
              एक बुत को लपेटने में जितना कपड़ा लग रहा है ,उतने में पचास गरीब आदमी अथवा सौ से अधिक निर्धन बच्चों को कपड़ा मयस्सर कराया जा सकता है , और ऐसे सैकड़ों बुतों को कपड़ों में लपेटा जा रहा है |
             हाँ! कपड़ा आपूर्ति करने वाली एजेंसी अवश्य मुदित फलित होगी ऐसा काम पाकर ,और मन ही मन अफ़सोस  भी कर रही होगी कि "चुनाव-चिन्ह डायनासोर क्यों न हुआ ? "  


गुरुवार, 5 जनवरी 2012

"......और पत्थर हो गए" |

         
              रात शोर मचा कि ,जो सोता रहेगा वो पत्थर का हो जाएगा | आधी से ज्यादा दुनिया में लोग इसी अफरा तफरी में जग गए | एक दूसरे को फोन से जगा जगा कर खुद को उनका शुभचिंतक साबित करने में लगे रहे | मेरी श्रीमती जी की सबसे बड़ी शुभचिंतक उनकी काम वाली बाई है | रात उसी का फ़ोन इनके पास आया कि ,आप लोग उठ जाइए ,ऐसी खबर है कि जो सोता रहेगा वो पत्थर का हो जाएगा | मै तो पहले से ही पत्थरवत बिस्तर पर पडा सो रहा था | मुझे जगाया गया ,पानी की छीटें डाल डाल कर ,खैर मैंने आधी नींद में ही सारी बात समझने की कोशिश की ( वैसे पत्नियों की बात लोग दिन में भी उनींदे ही सुनते है ),मुझे थोड़ी खीज हुई और हंसी भी आई | मैंने कहा अरे ,कुछ नहीं होगा ,"सो जाओ और सोने दो" (तुम मुझे चादर दो ,मै तुम्हे तकिया दूँगा ,की तर्ज़ पे) |
              नींद तो अब तक उड़ चुकी थी ,सो तनिक इस अफवाह पर सोचने लगा कि आखिर इसका मतलब क्या है ? यह अफवाह तो है ,पर इसमें कितना बड़ा "जीवन दर्शन" छुपा है | सोने से मतलब है कि अगर आप अपने जीवन में निष्क्रिय रहेंगे ,अपने आसपास की घटनाओं  के प्रति संवेदना शून्य होंगे ,चिंतन, मनन नहीं करेंगे और सदैव विश्राम की मुद्रा में ही रहेंगे ,फिर तो आपका अस्तित्व पत्थर सरीखा ही रहेगा ,क्योंकि फिर आपके होने या ना होने का कोई अर्थ नहीं होगा | विद्यार्थी जीवन में शिक्षा के प्रति ,लक्ष्य के प्रति सजग रहना आवश्यक है ,यदि आप सोते रह गए अर्थात उसके प्रति चिंतित न रहे ,फिर परिणाम देख आपको पत्थरवत ही होना पडेगा | मनुष्य को अपने समाज को विकसित और साथ साथ संस्कारित बनाये  रखने के लिए यह आवश्यक है कि इस समाज की इकाई प्रत्येक व्यक्ति अपने दायित्वों के प्रति सजग एवं जागरूक रहे ,नहीं तो कुरीतियाँ ,कुसंस्कार और दानवी प्रकृति के लोग आपको पत्थर मानते हुए अपने लाभ एवं स्वार्थानुसार आप जैसे  निष्क्रिय पत्थरों को अपने स्वार्थ के अनुसार काट छाँट कर नए रूप में गढ़ डालेंगे और आप सब अपना स्वरूप खो चुके होंगे |
             चुनाव घोषित हो चुके है | आप अब भी सोते रहे अगर ,(यदि मत का प्रयोग नहीं किया या किया भी तो अपने विवेकानुसार नहीं किया ),फिर तो ये राजनेता आपको पत्थर का बुत मान अपनी मनमानी ही करेंगे क्योंकि आपसे तो किसी प्रतिक्रया या विरोध की आशा होगी नहीं ,फिर भय किस बात का |
             इसे अफवाह न समझे ,इसमें तो जीवन का सिद्धांत निहित है | अब तक मेरी नींद पूरी तरह गायब हो चुकी है ,चाय की तलब लग रही है पर बगल में श्रीमती जी पत्थरवत, क्या एकदम लौहवत सोई पड़ी है,इन्हें सोता देख जैसे लगता है पूरा घर सो रहा है ,दीवारें ,फर्नीचर,किचेन सब सोया सोया सा लगता है और वो कहानी याद आती है  कि  कोई राजकुमार सौ दो सौ साल बाद आएगा और इनको छुयेगा और तब ये भी जाग जायेंगी और सारी दुनिया जाग उठेगी |
           


              "वैसे आधा लखनऊ तो पत्थर का हो चुका है ,लोग सोते रहे तो पूरा भी हो जाएगा "     

रविवार, 1 जनवरी 2012

" कोशिश रहेगी कि.... ..."

अपने में उनको, 
समेटे रहूँ, 
और उनमे ही,  
अपने को बिखेर दूँ,
ख़्वाब मै ही देखूँ, 
उनके तसव्वुर का,
उनके ख्याल में भी न आऊं,
मैंने तो चाहा दिल-ओ -जान  से, 
फिर यादें उनकी मै क्यूँ न सहेजूँ,
कतरा के निकलते है वो, 
तकलीफ होती तो होगी, 
वादा है कभी न पडूँ सामने,
सुना है मेरे ज़िक्र पे, 
भींच लेते है वो होंठ,
और मै हूँ कि होंठों, 
पे रक्खे उनके ज़िक्र,
कोशिश रहेगी कि.... .,
ख्याल से भी उनके ख्याल में न आऊं,
ऐसा उनका यह नया साल रहे !!!!!!!