बुधवार, 19 सितंबर 2012

" चलती कार में ठिठकी निगाहें ......"



साथ उसका और ,
सफ़र कार का,
बाहर मौसम सुहाना था,
भीतर वह दीवाना था ,
निगाहों में उसके रफ़्तार थी,
मेरी निगाहें उस प्यार पे थीं ,
उंगलियाँ उसकी गुनगुनाती जब थी ,
मैं लजाती शर्माती इठलाती तब थी ,
पलकें मेरी गिरती उठती ,
और सहमती थी भय से ,
पर जब भी देखा था हौले से ,
मुस्करा के उसने ,
निगाहें  तब तब ठिठकी सी थी |


12 टिप्‍पणियां:

  1. देख लेती हैं बहुत कुछ ये ठिठकी निगाहें.
    बहुत ही खूबसूरत भाव.

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  2. अमित जी ..आज आपने कैसे ये कविता रच डाली :)))

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    1. यह 'कार-काव्य' है | इसमें व्यक्त भावनाएं 'कविता' की हैं जो कार में 'कहानी' संग बैठी है | 'कहानी' मशगूल है कार चलाने में और 'कविता' रह रह कर बस उसे देख लेती है, ठिठकती निगाहों से कभी कभी |

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